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इसे अंधराष्ट्रवाद कहना राष्ट्रीय भावनाओं का अपमान

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अवधेश कुमार

इस समय भारत के अधिकतर व्यक्तियों के पास कोई न कोई सुझाव है। हर निवासी को ऐसे आतंकवादी दुस्साहस के बाद अपने देश की सुरक्षा तथा आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष की मांग एवं इसके लिए सुझाव देने का अधिकार है। हालांकि यह भारत देश है, जहां ऐसी पीड़ा और क्षोभ पैदा करने वाली घटना में भी कुछ लोगों को राजनीति नजर आ रही है। कुछ लोग मीडिया द्वारा शहीदों के शवों के अंतिम संस्कारों से लेकर लोगों के आक्रोश प्रकटीकरण की कवरेज को अंधराष्ट्रवाद या उन्माद पैदा करने वाला कारनामा साबित करने पर तुले हैं। 'भारतमाता की जय' तथा 'वंदे मातरम्' का सामूहिक नारा भी इन्हें अंधराष्ट्रवाद लग रहा है।
 
 
ऐसे लोगों के बारे में क्या शब्द प्रकट किया जाए, यह आप तय कीजिए। क्या यह अंधराष्ट्रवाद है? अंधराष्ट्रवाद पश्चिम द्वारा दिए गए शब्द 'जिंगोइज्म' का हिन्दी अनुवाद है। हालांकि इसका अर्थ यह नहीं है, जैसा कि बताया जा रहा है। अंधराष्ट्रवाद के अंदर बिना किसी कारण के अपने देश को सबसे बेहतर मानने का गुमान तथा दूसरे राष्ट्रों से घृणा, उनका विरोध तथा उन पर हमला करने तक विस्तारित होता है। उसका एक स्वरूप फासीवाद, साम्राज्यवाद भी है।

 
ऐसे 'महाज्ञाता' (?) लोग, जो देश की मानसिकता को प्रदूषित करने की भूमिका निभा रहे हैं, वह पुलवामा में आतंकवादियों की वारदात से छोटा अपराध नहीं है। आखिर ये चाहते क्या हैं? हमारे यहां पड़ोसी आतंकवादियों को भेजकर हमला कराए, एकसाथ इतने जवानों को शहीद कर दे और देश इसलिए चुप रहे कि वे अगर गुस्सा प्रकट करेंगे तो लोग उन्हें जिंगोइस्ट, फासिस्ट आदि शब्दों से गालियां देंगे? इसका साफ उत्तर है, नहीं। जो लोग ऐसा लिख-बोल रहे हैं उनसे पूछिए कि आपके पास इसका क्या समाधान है? तो इनके पास कोई उत्तर नहीं है। इनमें ऐसे लोग भी शामिल हैं, जो पाकिस्तान के पिट्ठू और देश को तोड़ने की खुलेआम बात करने वाले, भारत का खाते हुए स्वयं को भारत का नागरिक न मानने वाले, स्वयं को पाकिस्तानी कहने वाले हुर्रियत नेताओं से जाकर गले मिलते हैं, संभव होने पर उनको अपने बुद्धि विलास कार्यक्रम में बुलाकर सम्मान करते हैं।

 
यह बात अलग है कि भारत के आम समाज में इन्हें कभी स्वीकृति नहीं मिलती किंतु इन्होंने भी अपना एक समुदाय सृजित कर लिया है जिसकी ताकत हर प्रकार की सत्ता में है। साहित्य, पत्रकारिता, कला, अकादमी, एक्टिविज्म, एनजीओ से लेकर सत्ता के दूसरे अंगों और यहां तक कि विदेशों तक इनका प्रभाव है। हां, ये कभी समाज की मुख्य धारा के अंग नहीं हैं लेकिन वे पत्रकारों, लेखकों यहां तक कि नेताओं और नौकरशाहों तक पर स्थायी मनोवैज्ञानिक दबाव निर्मित करने में काफी हद तक सफल रहते हैं। दुनिया में ऐसा शायद ही कोई देश होगा, जहां आतंकवाद और देश की सुरक्षा के मुद्दे पर इस तरह की गलीज सोच रखने वाला प्रभावी समुदाय होगा।

 
यह कितनी अजीब स्थिति है। एक ओर दुनिया के बड़े-छोटे देश भारत के प्रति संवेदना और सहयोग का वक्तव्य दे रहे हैं, विदेशी नेताओं और नौकरशाहों के फोन हमारे यहां आ रहे हैं, कुछ देशों ने तो भारत के संघर्ष में खुलेआम साथ देने का बयान दे दिया है, अमेरिका ने तो पाकिस्तान को सीधी चेतावनी दी है, उसके दूसरी ओर यह वर्ग है, जो मानने लगा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कारण देश में इस घटना के बाद से जिंगोइज्म पैदा हो रहा है, जो एक दिन हमें बर्बाद कर देगा।

 
कैसी शर्मनाक सोच है? आखिर भारत में इस समय पाकिस्तान के अलावा किसी देश के खिलाफ वातावरण है क्या? भारत के लोग जिंगोइस्ट होते तो वे कितने देशों से नफरत तथा गुस्सा पालते और प्रकट करते। इसकी विस्तार से चर्चा इसलिए जरूरी है कि कल अगर पाकिस्तान के खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई होती है तो इनके शब्दबाण और ज्यादा तीखे होंगे। ये सरकार पर आरोप लगाएंगे कि जिंगोइज्म पैदा कर इसका राजनीतिक लाभ लेने की नीति पर काम हो रहा है। मोदी इसका राजनीतिक फायदा उठाना चाहते हैं।

 
कुछ ऐसा ही करीब 20 वर्ष पूर्व कारगिल युद्ध के समय था। भारत की सीमा में पाकिस्तानी घुसपैठियों के जगह जमा लेने की सूचना पर पूरे देश में उबाल था। सरकार ने पाकिस्तान को पहले चेतावनी दी और न मानने पर फिर सैनिक कार्रवाई आरंभ हुई। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने स्वयं मोर्चा संभाला एवं रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडीस उनके सक्रिय सहायक के नाते भूमिका निभाते रहे। देश का बहुमत उस युद्ध में एकजुट था। किंतु उस समय के समाचार पत्र या टीवी के फुटेज निकाल लीजिए। ये लोग उस समय भी सरकार के खिलाफ विषवमन करते रहे व अपने देश की नीति के खिलाफ बोलते रहे।

 
जॉर्ज फर्नांडीस जब युद्धसीमा पर जाकर सैनिकों के साथ 'वंदे मातरम्' और 'भारतमाता की जय' का नारा लगाते तो ये उन्हें फासिस्ट घोषित करते थे। जब उन्होंने निर्णय किया कि परंपरा तोड़कर युद्ध में शहीद हुए सैनिकों के शव उनके घर भेजे जाएं, तो इसका कुछ हल्कों में तीखा विरोध हुआ। इसे भी जिंगोइज्म पैदा करने का कदम घोषित किया गया। सैनिकों के शव के दर्शन करने भीड़ उमड़ने लगी, राष्ट्रवाद की लहर पैदा हुई और दूसरी ओर ये छाती पीटकर स्यापा करते रहे।

 
संयोग से उस समय सरकार का लोकसभा में पतन हो चुका था तथा चुनाव की घोषणा कभी भी होने वाली थी। इसे वाजपेयी द्वारा लोगों की भावनाएं भड़काकर चुनावी लाभ लेने की चाल साबित किया जाता रहा। और कुछ नहीं मिला तो जॉर्ज फर्नांडीस को 'कफन चोर' बोला गया। जो ताबूत मंगाए गए थे, उसमें भ्रष्टाचार की बात उठाई गई। यह बात अलग है कि उसके काफी सालों बाद उच्चतम न्यायालय ने इस आरोप को निराधार करार दे दिया।

 
कहने का तात्पर्य यह कि ये तत्व हमेशा रहे हैं और ये आम लोगों से लेकर कई बार नीति-निर्माताओं तक को भ्रमित कर देते हैं। एक युद्ध हमें आतंकवादी और बाहरी दुश्मन से लड़ना होता है, तो दूसरा अपने अंदर के इन कुंठित 'महाज्ञानियों' से। कारगिल में हमें यही करना पड़ा। हालांकि हमारे जवानों ने अपने शौर्य और अनुशासन से कारगिल युद्ध में विजय प्राप्त की तथा पाकिस्तान के कई हजार सैनिकों को मौत की नींद सुला दिया। वस्तुत: अभी तो इनका स्वर निकलना आरंभ हुआ है। जैसे-जैसे भारत कार्रवाई की ओर बढ़ेगा, इनके स्वर ज्यादा प्रबल और तीखे होंगे। पूरे कारगिल युद्ध को भी इन्होंने बदनाम करने की कोशिश की।

 
यहां तक मानने में हमें कोई हर्ज नहीं है कि सीआरपीएफ के उतने बड़े काफिले पर आतंकवादी हमला करने में सफल हुआ तो यह हमारी सुरक्षा व्यवस्था में चूक है। आखिर कोई आतंकवादी समूह अपने एक आत्मघाती को विनाश मचाने वाले विस्फोटकों से भरी गाड़ी को वहां तक ले जाने में सफल हुआ, घंटों वहां प्रतीक्षा करता रहा तो वह पकड़ में क्यों नहीं आया? हमें इसकी जांच करानी चाहिए। पर हम ऐसी स्थिति तो बनाए नहीं रख सकते कि हमारे जवानों के लिए भी सड़कों से गुजरने में जान का जोखिम बना रहे। तो इसका जो कारण है, उसे जड़-मूल से नष्ट करने के लिए जो भी संभव हो किया जाए और जब तक जरूरी हो तब तक कार्रवाई की जाए।

 
इसमें देश का जितना संसाधन लगे लगाया जाए, जितने लोगों की बलि चढ़नी हो चढ़े, किंतु अब यह स्थिति खत्म होनी चाहिए। अपने को सुरक्षित करने के लिए की जाने वाले सैन्य कार्रवाई या परोक्ष युद्ध की रणनीति को परास्त करने के लिए किया गया हमला या आतंकवादियों तथा उनको पालने-पोसने वालों का विनाश करना जिंगोइज्म की श्रेणी में नहीं आता। एक देश के नाते अपने को सुरक्षित करना तथा संपूर्ण मानवता को भयमुक्त करने का पुण्य कार्य है। जिंगोइज्म रटने वालों के लिए तो 'पाप' और 'पुण्य' शब्द ही लोगों को भ्रमित करने वाले हैं तो इनके शब्दजाल से भ्रमित होने की आवश्यकता नहीं है। हां, इनके कारण हमको दो मोर्चों पर एकसाथ लड़ना होगा। इसमें किसे राजनीतिक लाभ मिलेगा, किसे नहीं मिलेगा, यह विचार का विषय होना ही नहीं चाहिए।

 
आखिर चुनाव में जो भी जीतेगा, वो होगा तो भारत का ही दल। इस आधार पर राष्ट्र की रक्षा और सुरक्षा संबंधी कार्रवाई नहीं हो सकती। वास्तव में मूल बात यह है कि क्या हमारी मानसिक तैयारी आतंकवाद और परोक्ष युद्ध का अंत करने तक संघर्ष की है या नहीं? यही वह प्रश्न है, जो सबसे ज्यादा मायने रखता है। जिंगोइज्म-जिंगोइज्म चिल्लाने वालों को नजरअंदाज करते हुए या कई बार उनको करारा प्रत्युत्तर देते हुए देश को मानसिक रूप से अपने तथा आने वाली पीढ़ी की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तैयार रहना होगा। यह जिंगोइज्म नहीं, राष्ट्र के प्रति हमारा दायित्व है।
 

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