हे गजानन कहां हो तुम? तुम्हें जरा भी उसकी गुहार, दर्द, तड़प, पीड़ा दिखाई-सुनाई नहीं दी? हे देवों के देव वक्रतुंड, महाकाय, सूर्य कोटि समप्रभ।।।कितने निष्ठुर हो गए तुम भी? हे सुमुख, उस निर्दोष गर्भवती हथिनी मां के मुख में उन विश्वास घातियों ने जो आग ठूंस दी उस पाप का दण्ड देने, पापियों का संहार करने कब आओगे हे सिंदूरी बदन, चार भुजा धारी?
दुनिया की सभी संस्कृतियों में गर्भवती माता और उसके शिशु के संरक्षण को विशेष महत्व दिया गया है। भारत में तो किसी भी प्राणी के गर्भस्थ शिशु को ब्रह्म स्वरुप बताया गया है। क्योंकि उसे गर्भ में रहने तक पूर्व जन्म का ज्ञान होता है और इसलिए प्रत्एक गर्भवती माता को जगन्माता का साक्षात् स्वरूप मान कर उसकी हर इच्छा पूरी करने का हर संभव प्रयास किया जाता है।
ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिनमें गर्भवती को अधिक से अधिक धार्मिक गतिविधियों में संलग्न रखा जाता था। यहां तक कि कंस जैसा अत्याचारी भी गर्भस्थ शिशु को नहीं मारता था। ऐसे शिशु को मारने का प्रयत्न करने का एकमात्र उदाहरण अश्वत्थामा का है। जिसने पांडवों से बदला लेने के लिए उत्तरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र से प्रहार किया था।
यद्यपि श्रीकृष्ण ने बालक परीक्षित की रक्षा तो कर ली थी लेकिन शिशुह्त्या के अपराधी अवत्थामा को मस्तक से मणि निकाल कर, जो मणि अश्वत्थामा का गर्व थी, सर में घाव दे कर चिरंजीवी होने का श्राप दिया। वही चिरंजीवी जिसे हम अपने बालकों के लिए 'आशीर्वाद' स्वरूप कामना करते हैं।
विश्व के किसी भी धर्मग्रन्थ में ऐसे श्राप का उल्लेख नहीं मिलता। कहते हैं आज भी अपने माथे से खून रिसते-मवाद भरे घाव लिए पीड़ा और दर्द से कराहता हुआ अश्वत्थामा अपने जख्मों के लिए हल्दी मांगता घूमता-भटकता फिर रहा है। आशीर्वाद शब्द चिरंजीव श्राप में भुगत रहा है।
जाने अनजाने हम इस ब्रह्माण्ड को अपनी बपौती समझ कर अक्षम्य अपराधों पर अपराध करते हुए अपने माथे की मणि इन जीवों और प्रकृति के नाश के साथ खुद ही अभिशप्त हो चले हैं कि अब इसी चिरंजीवी का श्राप पूरी मानव जाति सदियों तक भोगे तब भी मोक्ष संभव नहीं।
जिन महाराक्षसों ने केरल में गर्भवती हथिनी मां की हत्या की उनकी सजा तो आजतक विश्व में निर्धारित ही नहीं हो पाई है। अश्वत्थमा ने तो युद्ध के उन्माद व प्रतिशोध में आक्रमण किया था। जबकि केरल के इन महा राक्षसों ने केवल आसुरी आनंद के लिए इस प्रकार का जघन्यतम अपराध किया है। शायद मनु या याज्ञवल्क जैसे ऋषि भी इस अपराध की कोई सजा निर्धारित न कर पाएं।
कहने को तो केरल ‘god’s own country’ कहा जाता है। यहां के विशाल उत्सवों में हाथियों का भव्य श्रृंगार होता है। यहां अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य है। फिरभी ऐसी निकृष्ट मानसिकता पैदा हो जाना बड़े आश्चर्य का विषय है। सुना है हाथी कभी भी नहीं भूलता पर इन नराधमों का अपराध तो कोई मनुष्य भी कभी नहीं भूल पाएगा।
डिस्कवरी व नेशनल जॉग्राफी जैसे चैनलों के आलावा कई वीडियो में हमने कई बार ऐसे दृश्य देखें हैं जिसमें शेर चीते जैसे अन्य कोई हिंसक पशु किसी जानवर का शिकार कर लेते हैं, लेकिन जब उस शिकार का नन्हा बच्चा पास में देखते हैं तो उसे दुलार करने लग जाते हैं। और अन्य जानवरों से उसकी रक्षा करते हैं। यह भले ही उनका पश्चाताप हो लेकिन घोर हिंसक जानवरों में भी ममता की ऐसी धार प्रवाहित होती है जो उन्हें शिशु देख कर हिंसा छोड़ देने के लिए प्रेरित करती है। केरल के इन हत्यारों को पशु कहना भी पशुओं का अपमान प्रतीत होता है।
इन पढ़े-लिखे लोगों से बेहतर तो वे आदिवासी हैं जो जंगलों को बचाने के लिए अपनी जान लगा देते हैं। जंगलों से प्रेम करना जानते हैं। जानवरों से प्रेम करना जानते हैं। शिक्षा के नाम पर कलंक ये लोग काला धब्बा हैं केरल की स्वर्गिक भूमि पर। "ये वही रक्तबीज के वंशज, चंड-मुंड के बांधव, खर-दूषण के नातेदार हैं जिन्होंने कुछ समय पूर्व गायमाता को क्रूरता से मारा व जश्न मनाया"। भूले तो नहीं ही होंगे न?
वह ख़बर ज़्यादा पुरानी नहीं हुई है जब अमेज़न के जंगल जले। इन जंगलों में जाने कितने जीव मरे होंगे। ऑस्ट्रेलिया में हज़ारों ऊंट मार दिए गए, यह कहकर कि वे ज़्यादा पानी पीते हैं। जैसे पानी इनके पूर्वज जो बना कर इनके लिए रख गए थे। नाशुक्रे दानव। कितने ही जानवर मनुष्य के स्वार्थ की भेंट चढ़ते हैं। जिनके बारे में तो हमें पता ही नहीं चलता है।
भारत में हाथियों की कुल संख्या 20000 से 25000 के बीच है। भारतीय हाथी को विलुप्तप्राय जाति के तौर पर वर्गीकृत किया गया है। ऐसी कई प्रजातियां हमारे घटिया, निम्नतम और पिशाची प्रवृत्ति का दण्ड भोग रहीं हैं। विलुप्त होने की कगार पर हैं।
एक ऐसा ‘जानवर’ जिसे हमारे यहां निर्विघ्नं कुरु में देवो सर्वकार्एषु सर्वदा से आव्हान किया जाता है वो ही आज घोर विघ्न और संकट भोगने को मजबूर है। जो किसी ज़माने में राजाओं की शान होता था आज अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा है। ‘जिसके नाम से देश भर में और विदेश भर में दस-दस दिनों के पूजने का स्वांग रचा जाता हो’ ऐसा धरती का एक बुद्धिमान, समझदार, याद्दाश्त में सबसे तेज़, शाकाहारी जीव क्या बिगाड़ रहा है इन दुष्ट आत्माओं का जो प्रेत की भांति जानवरों को खाने और नष्ट करने का कुकर्म करते ही जा रहे हैं। ये पिशाची प्रवृत्ति कहां तक गिराएगी मानवीयता को जो इन मूक प्राणियों के साथ ऐसा सलूक कर रहे हैं?
कोरोना अन्य आपदाओं ने हम इंसानों का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया है। यह बता दिया है कि हमने प्रकृति के दोहन में हर सीमा पार कर दी है। लेकिन अब भी हमें अकल नहीं आई। हमारी क्रूरता नहीं गई। मनुष्य इस धरती का सबसे क्रूर और स्वार्थी प्राणी है। इतने सबक दे रही धरती, प्रकृति पर ए ढीठ, मूर्ख, अहंकारी मानव नाम का दैत्य है कि मानता ही नहीं।
पृथ्वी जितनी इंसानों की है उतनी ही जानवरों और इस पर रहने-बसने वाले प्रत्येक जीव व पेड़-पौधों की भी है। सब जीव कुदरत के लिए एक समान है इन्सान से ज्यादा तो पृथ्वी की महत्ता जानवर समझते हैं। हम जलील इंसानों ने तो आधुनिकता के ढोंग पर पूरे कुदरत को उथल पुथल कर के रख दिया।
इतने आपदाओं के बाद भी कुछ सीखने ही तैयार नहीं है। कहते हैं न ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ बस वही साक्षात् दिख रहा है। हिसाब से तो हम इंसानों से ज्यादा जानवरो का हक है यहां रहने का। पर इंसान इतना घटिया व स्वार्थी हो गया है कि हर जगह अपना अधिकार जताने लगा है। "वो गर्भवती न भी होती तो भी अपराध दंडनीय ही है। जीवहत्या से बड़ा कोई पाप नहीं। कोई और मूक प्राणी होता तो भी अक्षम्य अपराध ही है"।
हे गजानन, लम्बोदर, एकदंत कहां हो प्रभु...त्राहिमाम...त्राहिमाम... प्रार्थना सुनो हे दयावंत! यहां इस धरती मां की रिद्धि-सिद्धि, लाभ-शुभ, कुछ दानव वंश मनुष्य रूपी राक्षसों ने हरने का कुत्सित कृत्य किया है। उन्हें दण्ड दें, व उन सब मासूमों, निर्दोषों पर अपनी दया का रक्षाकवच पहना दो प्रभु.....