दुनिया के प्रजातांत्रिक मुल्कों का ध्यान इस समय भारत की कथित आर्थिक तरक्की पर नहीं, बल्कि इस बात पर है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मई 2014 में सत्ता में आने के बाद पहली बार इतने निर्णायक तरीक़े से राजनीतिक चुनौती मिल रही है और सत्तारूढ़ दल में 2024 के परिणामों को लेकर एक तरह की बेचैनी है।
बाहरी दुनिया देखना चाह रही है कि प्रधानमंत्री सामने खड़ी चुनौती से कैसे निपटते हैं, उनका अगला कदम क्या हो सकता है? और यह भी कि उनके द्वारा उठाए जाने वाले कदम कितने राजनीतिक और प्रजातांत्रिक होंगे? इंदिरा गांधी के जमाने के आपातकालीन उपाय तो आज़ादी के अमृतकाल में नहीं दोहराए जाएँगे? देश की जनता अपने प्रधानमंत्री से राष्ट्र के नाम अचानक से दिए जाने वाले संदेशों के ज़रिए ही ज़्यादा परिचित है।
वे तमाम लोग जो इस समय सत्ता के शीर्ष पर हैं, इस हक़ीक़त को महसूस नहीं कर पा रहे हैं कि पिछले आठ-साढ़े आठ सालों के दौरान एक-एक करके काफ़ी लोगों को नाराज़ कर दिया गया है। नाराज़ लोगों की बढ़ती हुई भीड़ में सिर्फ़ एनडीए के घटक, विपक्षी पार्टियाँ और गांधी परिवार के सदस्य ही नहीं हैं बल्कि सत्तारूढ़ भाजपा के कई नेता और कार्यकर्ता भी शामिल हैं जिन्हें उनके वर्षों के संघर्ष के पुरस्कार स्वरूप हाशियों पर पटक दिया गया है।
विश्व इतिहास में उल्लेख है कि कई बार नायक अपनी सत्ता के वर्तमान को ही अपना और देश का भविष्य मान बैठने के अहंकार का शिकार हो जाते हैं। वे चुनावों में जनता द्वारा अस्वीकार कर दिए जाने की स्थिति में भी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और संवैधानिक व्यवस्थाओं का सम्मान करते हुए शांतिपूर्ण तरीक़ों से सत्ता का हस्तांतरण करने से इनकार कर देते हैं। अमेरिका में दो साल पहले ऐसा ही हुआ था।
राष्ट्रपति पद के चुनाव में प्राप्त हुई पराजय को विपक्षियों के द्वारा अपने ख़िलाफ़ किया गया आपराधिक षड्यंत्र घोषित करते हुए डोनाल्ड ट्रंप ने न सिर्फ़ बाइडन को सत्ता सौंपने से मना कर दिया था, चुनाव-परिणामों की पुष्टि के दौरान उनके समर्थकों को हिंसक तरीक़े से उकसाकर वॉशिंगटन डीसी स्थित अमेरिकी संसद पर हमला भी करवा दिया गया था। इसी नवंबर अमेरिका में होने जा रहे मध्यावधि चुनावों को लेकर ट्रंप की पार्टी के उम्मीदवारों ने अभी से घोषणा कर दी है कि पराजय की स्थिति में वे चुनाव परिणामों को स्वीकार करने से इनकार कर सकते हैं।
हमारे यहाँ नागरिकों का ध्यान इस समय प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर नामीबिया से लाए गए चीतों पर केंद्रित कर दिया गया है। चीतों के आगमन को एक ऐतिहासिक घटना और देश में अच्छे दिनों की शुरुआत के तौर पर पेश किया जा रहा है। कुछ दिनों के बाद ऐसा ही कोई नया चमत्कार देखने को मिल सकता है। कुछ ही दिन पहले हमें गर्व के साथ जानकारी दी गई थी कि हमारे एक उद्योगपति दुनिया में दूसरे नम्बर के सबसे धनी व्यक्ति बन गए हैं।
सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह और राहुल गांधी से पूछा जा सकता है कि जो चमत्कार सिर्फ़ पिछले आठ सालों में हो गया वह कांग्रेस के पचपन सालों के शासनकाल में क्यों सम्भव नहीं हो पाया? देश को यह भी बताया गया है कि एक आर्थिक शक्ति के रूप में भारत ने ब्रिटेन को भी पीछे छोड़ दिया है और अब देश दुनिया में पांचवें नम्बर पर पहुँच गया है। आर्थिक विकास की दर के मामले में भी हमने बड़े-बड़े देशों को पीछे छोड़ दिया है।
हमारे शासक यह नहीं बताना चाहते हैं कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स (विश्व भुखमरी सूचकांक) में 116 देशों के बीच भारत 101वें स्थान पर क्यों है? क्या कल्पना की जा सकती है कि भारत का शुमार उन 31 मुल्कों में किया गया है जहां भुखमरी की स्थिति गम्भीर बताई जाती है!
सरकार अगर अस्सी करोड़ लोगों को दिया जाने वाला मुफ़्त का अनाज बंद कर दे तो हालात क्या बनेंगे? देश में प्रजातंत्र की मौजूदा स्थिति के बारे में इकॉनॉमिस्ट इंटेलिजेन्स यूनिट ने भारत को दुनिया के मुल्कों के बीच 46वें स्थान पर तथा ह्यूमन फ़्रीडम इंडेक्स में अमेरिकन थिंक टैंक केटो ने 119वें क्रम पर रखा है। प्रेस की आज़ादी के मामले में हम 180 देशों के बीच 150वें स्थान पर हैं।
इस हक़ीक़त की ओर हमने अभी झांकना भी प्रारम्भ नहीं किया है कि अब आगे आने वाले बीस महीने भारत के लोकतांत्रिक भविष्य के लिए कितने निर्णायक साबित होने वाले है! देश इस समय अनिश्चय की राजनीति के दौर से गुज़र रहा है। ऐसा पहले नहीं हुआ। आपातकाल के ख़राब दिनों में भी लोकतांत्रिक राजनीतिक स्थिरता को लेकर आज जैसी अनिश्चितता की स्थिति नहीं थी।
आश्चर्य नहीं कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को देश के नागरिक, विशेषकर वह युवा पीढ़ी जिसका जन्म इस शताब्दी के उदय के साथ हुआ है, हवा के एक ताज़ा झोंके की तरह से देख रहे हैं। यात्रा को प्रारम्भ हुए अभी दो सप्ताह ही हुए हैं और वह लोगों की आकांक्षाओं में प्रकट होने लगी है।
उसे अभी पाँच महीने या उससे भी ज़्यादा का वक्त उन सड़कों से गुजरना है जिन पर भूखे-प्यासे पैदल चलकर लाखों देशवासियों ने कोरोना के दुर्भाग्यपूर्ण क्षणों में घर-वापसी की थी। इस बीच मौसम और पेड़-पौधों के रंग बदल जाएँगे। वे सैकड़ों यात्री जो तमाम कष्टों को सहते हुए यात्रा में शामिल हैं उनकी यह नवरात्रि, दशहरा, दीपावली जनता के बीच मनने वाली है।
पिछले एक दशक के दौरान योजनाबद्ध तरीक़े से इतना कुछ बदलकर नागरिकों के जीवन में स्थापित कर दिया गया है कि इस एक यात्रा से ज़्यादा बदलने वाला नहीं है। यात्रा और उसकी उपलब्धियों को विफल करने और नकारने के लिए तमाम तरह की ताक़तें जुट गईं हैं, संगठित हो गईं हैं। इनमें किसी समय सत्ता को बदल देने का आह्वान करने वाली वे पार्टियाँ भी शामिल हैं जो कांग्रेस के पैदल चलने से अपने पैरों में थकान महसूस कर रही हैं।
यात्रा की सफलतापूर्वक समाप्ति के लिए इसलिए प्रार्थनाएँ कीं जानी चाहिए कि देश के जीवन में इस तरह के क्षण बार-बार उपस्थित नहीं होते हैं। भारत जोड़ो यात्रा की सुखद पूर्णाहुति विभाजन की विभीषिका को दोहराने की कोशिशों को ध्वस्त कर कई नई यात्राओं को जन्म देने वाली है।
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)