ग्रीष्म ऋतु का आगाज़ हो गया है। दिन तपने लगे हैं। गर्मी धीरे-धीरे रंग पकड़ रही है। गृहिणियों को रसोईघर में तपना है,बच्चों को विद्यालयों में ,युवाओं को महाविद्यालयों और कार्यालयों में और बुज़ुर्गों को घर या बाज़ार में। सभी के हाल, बेहाल और सभी इस तपन से मुक्ति पाने के लिए आतुर।
अब प्रकृति से तो आप लड़ नहीं सकते। वह तो अपना असर दिखाएगी। हां,इतना जरूर है कि आधुनिक उपकरणों की सहायता से कुछ शीतलता हासिल की जा सकती है और वो हम सभी करते भी हैं। लेकिन इसके अतिरिक्त ऐसा भी बहुत कुछ है, जो यदि हम नित्य करें,तो ये शीतलता न केवल बढ़ेगी बल्कि हमारे जीवन में स्थायी हो जाएगी।
मैं बात कर रही हूं उस भाव को जीने की,जो मानवता के मूल में है-स्नेह। इस ग्रीष्म की तपन को कम करने के लिए हम सभी अपने स्नेह को 'परिवार' से तो जोड़ें ही,थोड़ा और व्यापक करते हुए समाज और प्रकृति से भी संयुत कर दें।
कुछ समय अपने घर के बुज़ुर्गों के साथ व्यतीत करें। अपने सुदीर्घ जीवन से अर्जित ज्ञान और अनुभवों, आयुगत समस्याओं ,अब तक अनभिव्यक्त रहीं अपनी अनेक कोमल भावनाओं और अपूर्ण इच्छाओं को वे आपके साथ बांटना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि जैसे वे आपके साथ जीवन के हर पड़ाव पर अपने मन,प्राण और आत्मा से खड़े थे,वैसे ही आप भी उनके दर्द पर अपनी संवेदना का मरहम लगाएं,उनके लिए अपना स्नेह और चिंता व्यक्त करें,उन्हें महसूस कराएं कि वे आपके लिए बोझ नहीं अनिवार्य हैं-उतने ही जितना आपके लिए वो आपके बचपन में थे।
जीवन-संचालन के लिए आपकी व्यावहारिक भाग-दौड़ और उसके चलते समय का अभाव स्वाभाविक है, लेकिन हम चाहें तो कुछ पल उनके लिए निकाल सकते हैं। बस,उतने ही पल,जितने पल आप टी.वी.देखते हैं अथवा सिनेमाघर जाकर फ़िल्म देखते हैं या फिर मोबाइल में गेम्स खेलते हैं।
यदि आपने ऐसा किया,तो आप अपने बुज़ुर्गों के मुख पर ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण वजूद में वो प्रसन्नता व सुकून देखेंगे,जो आपकी आत्मा को परम सुख की शीतलता से आप्लावित कर देगा।
अब आते हैं घर के बच्चों पर। बच्चे प्रश्न एवं जिज्ञासाओं की खान होते हैं। उन्हें कोई संतुष्ट करने वाला नहीं मिलता क्योंकि आप तो सदा व्यस्त हैं।
तनिक अपनी व्यस्तता को परे रखकर बच्चों की दुनिया में जाइये। अपने अनुभव से कहती हूं कि ऐसा करने पर बच्चे तो परम प्रसन्न हो ही जाएंगे, आप भी आनंद के वो अनमोल मोती पाएंगे,जो आपके जीवन को अधिक सुखकारी बना देंगे।
बच्चों को प्रायः यह शिकायत रहती है कि उन्हें कोई नहीं समझता।बात कुछ अंशों में सही भी है। हम अपने कामों की आपाधापी में उन्हें ठीक से सुनते ही नहीं। हमारे लिए वे सदा 'बच्चे' अर्थात् अनुभवहीन ही रहते हैं। उनकी समस्याओं पर भी हमारा ये तर्क होता है-'तुम चिंता मत करो,हम निपट लेंगे।'
हमारा यह व्यवहार उनमें निराशा के साथ आत्मविश्वास की कमी को जन्म देता है। उन्हें स्वयं मजबूत होने का बल दीजिए और यह बल तब आएगा जब आप उन्हें ध्यान से सुनेंगे,समझेंगे।
'हम निपट लेंगे' की अतार्किक और अहंकारपूर्ण गर्वोक्ति के स्थान पर 'हम तुम्हारे साथ हैं' की शक्ति उन्हें दीजिए। आप पाएंगे कि आपके ये स्वर्ण-वाक्य उनके लिए संजीवनी का काम करेंगे और वे अपनी समस्याओं के समाधान के साथ उज्ज्वल जीवन-राह को पा लेंगे।
और आप क्या पाएंगे? आप पाएंगे अतुलनीय वत्सल आनंद ,जो आपको अपने बच्चों की आत्मा से सदा के लिए जोड़ देगा। यह आत्मिक शीतलता जीवन की ग्रीष्म ऋतु से लड़ने की शक्ति देगी।
फिर अपने मन को कुछ 'सार्थक' कर पाने के सुकून से ठंडक देनी हो,तो समाज के निर्धन तबके की कुछ मदद कीजिए। वृद्धाश्रमों में रह रहे बुज़ुर्गों के बीच अपने माता-पिता और बच्चों को लेकर जाइए। उन अकेले बुज़ुर्गों को 'परिवार' का सुख देकर आप दिल से प्रसन्नता को जी पाएंगे।
इसी प्रकार अनाथाश्रमों में अनाथ बच्चों के लिए उपहार लेकर सपरिवार जाएंगे, तो उन बच्चों का अकेलापन कम होगा और वो कुछ देर के लिए ही सही,उन रिश्तों को जी पाएंगे जिनसे नियति ने उन्हें वंचित रखा है। आपके ऐसा करने से उन्हें मिली ख़ुशी देखकर आपकी रूह तृप्त हो जाएगी।
साथ ही ये आपके अभिभावकों को भी प्रसन्नता देगा और आपके बच्चों में 'देने' का भाव विकसित होगा।
अलावा इसके,अपना कुछ योगदान प्रकृति की सुरक्षा और संवर्धन के लिए भी दीजिये। अवकाश के दिन पौधे रोपिए। अपने घर की क्यारी को संवारिए। अपने बुज़ुर्ग अभिभावकों को मार्गदर्शक बनाकर उनके साथ यह कार्य कीजिए। ऐसा करने से दो सत्कर्म सधेंगे-आपको माता-पिता का और उन्हें आपका नैकट्य मिलेगा तथा प्रकृति रक्षण-संवर्धन का कार्य भी होगा।
यदि स्नेह की ऐसी सच्ची राह पकड़ ली,तो इस तपती गर्मी में भी आत्मा का सुकून ठंडक पहुंचाएगा। आखिर आत्मा का सुख ही तो मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य माना गया है।