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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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नोटबंदी की सीख यही कि युद्धबंदी भी ठीक

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मनोज श्रीवास्तव

नोटबंदी से फायदे-नुकसान के पहलुओं पर विवेचन लंबे समय तक चलते रहेंगे। आज के आज उसके लाभ नहीं दिखना है और न ही नुकसान, क्योंकि देश के पास किसी भी क्षेत्र में इतना पुख्ता डाटा इंतजाम ही नहीं है कि हाल के हाल रिजल्ट मिल जाएं। खासकर व्यापार या रुपए से जुड़े क्षेत्र में जो लेखा-जोखा उपलब्ध है, वह वह है जो कि रुपए वाला बताना चाहता है, न कि वह, जो कि किसी पारदर्शी स्कैनर/सिस्टम या युक्ति से निकलकर आए जिसमें छुपाने के कोई चांस न हो। 


 
तो जब तक देश के पास ऐसी सुघड़, दृढ़, सुचारु और पारदर्शी युक्ति नहीं आ जाती जिससे कि रुपए वालों की विवरणी पर निर्भरता समाप्त हो जाए, तब तक हमें मृग-मरीचिका में ही चढ़ते-उतरते रहना होगा। इस कमी के कारण आंकड़ों का खेल उत्पन्न होता है, जो सामान्य व्यक्ति की समझ से बाहर होता है और इसी वजह से आंकड़ों के विवेचन वास्तविक परिणामों से परे दिखते हैं। 
 
कैशलेस व्यवस्था इस दिशा में एक कदम हो सकती है, पर उसे संपूर्ण रूप से अंगीकार करने में अभी समय लगना है। उसके लिए गांव-गांव तक नेटवर्क, बिजली, बैंक, ट्रांजेक्शन यूटिलिटी, जागरूकता और हर हाथ में मोबाइल के साथ उपयोग करने के अभ्यास की दरकार है। फिर भी इस दिशा में चलने पर उम्मीद है कि अच्छे रिजल्ट आना है। और हो सकता है कि आने वाले समय में तकनीक की सहायता से कोई बेहतर एवं आसान तरीका सामने आए जिससे लेखा-जोखा पकड़ने के लिए रुपए वालों पर निर्भरता न रहे बल्कि बंद तिजोरियां दूर किसी नेटवर्क पर हरदम खुली और पारदर्शी बनी रहें।
 
नोटबंदी के बीच बीते अर्द्ध शतक दिनों में लोगों के अंदर भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई करने का जज्बा दिखा जिसे सहेजने की आवश्यकता है। नोटबंदी से चाहे तकलीफें सामने आईं, पर इससे एक बात जरूर परिलक्षित हुई कि आम जनमानस के अंदर व्यवस्था सुधार के प्रति जबरदस्त खुमार बना हुआ है। इस खुमार में देशभक्ति की भावना भी प्रज्वलित है, जो वाकई तारीफ-ए-काबिल है।
 
तमाम विरोधाभासी दौर, बुरे उदाहरणों और अनुभवों के बावजूद आमजन में देशप्रेम की ज्वाला धधकते रहना एक उम्मीद जगाती है कि अभी भी देर नहीं हुई है। देश के लिए यह एक मोड़ है और इस मौके को भुनाने के लिए मिसाल पेश करने का वक्त है जिसके लिए उच्च पदों पर जुड़े लोगों को आगे बढ़कर सादगीपूर्ण आदर्श पेश करने चाहिए। 
 
सरकारी सुविधाओं जैसे बंगले, गाड़ी, नौकर-चाकर, वातानुकूलन इत्यादि को यदि त्यागने की मुहिम चले तो इस समय में बहुत गहरा प्रभाव होगा। इससे जनता में व्यवस्था के प्रति पुन: विश्वास बनेगा, जो प्रजातंत्र की लंबी उम्र के लिए संजीवनी साबित होगा। आमजन चाहता है कि यह तस्वीर बदले, ज्यादा नहीं तो कुछ बदले पर बदले जरूर! 
 
इस चाह की गतिशीलता के मध्य नोटबंदी ने हमें कुछ खराब पहलुओं से भी रूबरू करा दिया है, मसलन नोटों की हेराफेरी में मिलीभगत होना या तिकड़मों से काला धन सफेद करने के जो प्रयास हुए हैं उन्हें भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि ये गोरखधंधे खुलते हैं तो हमारे छद्म देशप्रेम की कलई भी खुल जाती है। 
 
शुक्र है कि इसमें बहुत ही कम प्रतिशत लोग संलग्न हैं फिर भी कहीं-न-कहीं हमारे अंदर कमतरी है, जो जरा-से लोभ-लालच में देश को किनारे कर देती है। यह चीज खतरनाक है, जो दर्शाती है कि हमें बहुत सुधार की जरूरत है। खासकर देश के कठिन समय, विपत्ति या युद्ध की स्थिति में इस तरह की कमतर देशभक्ति कभी भी डुबो सकती है। 
 
समस्याओं से लड़ने, मुक्त होने के लिए बड़े नोटों को बंद करने की मांग कई वर्षों से जनसामान्य के अंदर घुमड़ रही थी, पर किसी भी शहर या गांव में कोई एक उदाहरण नहीं मिला जिधर कालेधन को खपाने में लगे लोगों का विरोध हुआ या उन्हें असफल करने का प्रयास हुआ। न ही बैंकों की लंबी लाइन में कोई समझाते नजर आया कि दूसरों के पैसे सफेद न कीजिए, यह अपराध है। निर्बल न सही, पर सबल में भी यह साहस नहीं दिखा कि वह इस राष्ट्रहित के यज्ञ को असफल करते लोगों का जमीन पर विरोध करें। 
 
यह स्थिति दर्शाती है कि प्रभावी और मजबूत लोगों का देशप्रेम भी महज नारों और सोशल मैसेज तक ही सीमित है, उनके बनिस्बत कमजोर और अप्रभावी जनमानस ज्यादा शिद्दत से देश के लिए तकलीफें उठाने में हरदम तत्पर दिखता है। इस कमजोरी से होने वाले नुकसान को समझने की आवश्यकता कुछ यूं है कि यदि हमारे शहर-कस्बे का कालाधन सफेद हो गया, तो जानिए कि उससे उस शहर-कस्बे के तथाकथित कालेधन वाले पुन: मजबूत बने रहेंगे जिससे स्थानीय स्तर पर जमीन, मकान, इलेक्ट्रॉनिक्स इत्यादि की मांग बने रहने से उनकी दरें ऊंचाई पर ही रहेंगी और हश्र में यह होगा कि कीमतें फिर से गरीबों की पहुंच से दूर हो जाएंगी इसलिए स्थानीय स्तर पर कालाधन खपाने की मुहिम को असहयोग करना और तोड़ना जरूरी था, पर अफसोस कि यह नहीं हुआ। 
 
ध्यान देने की बात यह है कि देश के धन कुबेर या धन दैत्यों की काली कमाई से गांव-कस्बे की स्थानीय संपत्ति की कीमतें इतने प्रभावित नहीं होतीं जितनी कि स्थानीय काले कुबेरों से होती है। बहुत ऊपरी स्तर के धन कुबेर न हमारे गांव में मकान-प्लॉट खरीदते हैं, न ही उनकी रुचि देशी ब्रांड में होती है जिससे कि हमारा बाजार प्रभावित हो। वे तो वैसे ही आयातित विदेशी सामान के शौकीन हैं तो समझिए कि लोकल बाजार पर असर हमारे स्थानीय कालेधन से ही होता है और इसी स्थानीय कालेधन को हमने आगे रहकर सहयोग कर उसे गोरा बनाकर अपने ही जेब पर कैंची चलाई है। 
 
कहने-सुनने की बात है, पर बहुत संभव हो कि बैंकों की लाइनों में चाय-पानी की सप्लाई के बीच लाइन में लगे भाड़े के लोगों पर निगाह रखने की तरह भी प्रयोग हुए हों तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इन सब बातों से बचने के लिए जनता को जागरूक, सजग रहने के साथ मीडिया और सोशल मीडिया के भ्रमजाल से बचना भी सीखना होगा तभी ये सब रुकेगा अन्यथा नोटबंदी क्या, कोई भी योजना सार्थक नहीं हो सकेगी।
 
बड़े नोटों को बंद करने से भाग्य परिवर्तन होने का स्वप्न कुछ दशक से चल रहा था, वह अब हकीकत बनकर सामने है। इसके क्या फायदे होने हैं, यह वक्त बताएगा! नोटबंदी से समस्याओं के निदान संभव मानने के साथ युद्ध की भी ऐसी ही छवि बनी हुई है कि जिससे समस्याओं का निदान हो सकता है। युद्ध को निदानकारक देखने-समझने के पहले ध्यान रहे कि युद्ध की भयावह स्थित से निपटने के लिए कहीं और अधिक उच्चतर देशभक्ति-देशप्रेम चाहिए ताकि छोटा-सा लोभ-लालच बड़ा नुकसान न कर सके।

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