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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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‘मुनव्‍वर राणा’ साहब आपकी इस ‘जबान का जायका’ सालों तक इस ‘देश की आत्‍मा’ पर चिपका रहेगा

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नवीन रांगियाल

मशहूर शायर, मुनव्‍वर राणा साहब.

बचपन से ही मैं अपनी मां से बेहद प्‍यार करता रहा हूं। लेकिन जब भी मेरा अपनी मां से  आमना सामना हुआ तो मैं उन्‍हें सिर्फ गले लगाकर ही रह गया। मेरे पास कोई अल्‍फाज नहीं  थे, कि जिससे मैं मां को बता सकूं कि मैं उनसे कितनी मुहब्‍बत करता हूं।

फि‍र एक दिन किसी महफि‍ल में आपकी शायरी सुनी तो जैसे मुझे अल्‍फाज मिल गए। मां के  प्रति अपना प्‍यार और स्‍नेह दिखाने के लिए आपकी दो पंक्‍तियों ने इस कदर अर्थ दे दिए कि  पूरी दुनिया में मां और बेटे का रिश्‍ता जैसे मुकम्‍मल सा हो गया।

मैं उस सर्द रात में दूर जलते अलाव के धुएं में अपनी आंखें मसल रहा था, ठीक उसी वक्‍त  किसी मंच पर आपका नाम पुकारा तो एक उर्दू अदब की एक गर्माहट सी दौड़ गई भीतर।

महफि‍ल की उस आखि‍री पंक्‍त‍ि में बैठकर भी मैं मुतमईन था कि कुछ बेहतर सुनने को  मिलेगा। उम्‍मीद के मुताबि‍क ऐसा हुआ भी, आपने एक शेर कहा, जो कुछ यूं था...

किसी के हिस्‍से में मकां आया, किसी के हिस्‍से दुकान आई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्‍से में मां आई    
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती हैं
मां जब गुस्‍से में होती हैं तो रो देती हैं।


यह सुनकर बहुत से सुनकार रो दिए आप भी शेर पढ़ते-पढ़ते लिहाफ से अपने आंसू पोछने लगे  थे। ऐसा लगा कि जैसे मां-बेटे के रि‍श्‍ते को मायने मिल गए हों।

मां पर इतनी शि‍दृत से सोचने और लिखने के लिए कई लोग आपका शुक्रि‍या अदा करते हैं, लेकिन इन दिनों जब मुहम्‍मद पैगंबर के कार्टून को लेकर इस्‍लामिक कट्टरवाद को लेकर जो  बहस और विवाद चल रहे हैं, उस परिपेक्ष्‍य में आपके मुंह से कत्‍ल करने की जो बात सुनी तो  आपकी शायरी पर से भी और उर्दू अदब की सभ्‍यता और रवायत पर से भी मेरा यकीन उठ  गया, जिसके बूते पर अब तक गंगा-जमनी तहजीब की बातें की जा रही थीं।

आपने कहा कि ‘जो भी मेरे पिता और मां का कार्टून बनाएगा तो हम उसे मार देंगे’

यह बात आपने बेहद सोच-समझकर और बहुत इत्‍मीनान के साथ कही। ऐसा भी नहीं है कि  गलती से यह बात मुं‍ह से निकल गई। कई कई बार वो वीडियो देखने पर भी ऐसा कुछ नजर  नहीं आया कि कह सकूं कि आपकी जबान फि‍सल गई थी।

यह बात कहते वक्‍त न आपके पास वो अल्‍फाज थे जो आप ताउम्र मंचों पर कहते रहे और न  ही वो शायराना तासीर थी।

ना ही उर्दू की वो तबीयत थी और न ही आंखों में मां की मुहब्‍बत में छलक आया पानी ही था।

इस वक्‍त बेइंतहा जहरभरे शब्‍दों के साथ आपने गंगा-जमनी तहजीब को ठोकर मारकर ठेस लगा  दी। वह भी उस वक्‍त जब आपके जैसे खत्‍तात से उम्‍मीद की जाती है कि बेनूर वक्‍त में  एक-दूसरे के मजहब के ऐहतराम की बात करें।

लेकिन आपने अपनी उम्र और अपनी शाइरी के तकरीबन आखि‍री मकाम पर ऐसी खता कर  डाली कि यह आपके शायरी के सिलसिले का आखि‍री पन्‍ना साबि‍त होगा। जिस वक्त आपने मां  के गुनाह माफ करने वाला शेर पढ़ा था तब श्रोताओं की आंखें भीग गई थीं, लेकिन इसके उलट  आज जब आपने यह मजहबी टिप्पणी की तो न सिर्फ आपकी मां बल्कि भारत मां की आंखें भी  आंसुओं से डूब गई होंगी।

यह ठीक वैसा ही हो गया जैसे इस शेर में नजर आता है कि... लम्‍हों ने खता की और सदियों  ने सजा पाई ... इस लम्‍हेभर की खता के लिए आपकी तमाम उम्र सजा पाती रहेगी।

शायर मुनव्‍वर राणा साहब, मजहब के नाम पर अपनी बात कहना और सुनना इस वक्‍त की  मांग है, लेकिन उसकी नजाकत को आप चूक गए।

मजहब के नाम पर ये बहसें आती-जाती रहेंगी, ये अच्‍छे-बुरे सिलसिले चलते रहेंगे, लेकिन  आपके जैसे शायरों, कलाकारों और खत्‍तातों की जबान का अच्‍छा-बुरा जायका हमेशा के लिए  इस देश की आत्‍मा पर चिपका रह जाएगा। जो सालों तक याद रहेगा, सालों तक याद रहेगा...

पूरे ऐहतराम के साथ आपका एक सुनकार,

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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