छत्रपति शिवाजी महाराज वास्तु संग्रहालय : मुंबई की अनमोल विरासत

नर्मदाप्रसाद उपाध्याय
अतीत कभी अतीत नहीं होता।वह हमेशा वर्तमान की धड़कनों में बसा होता है। अपने इस अतीत को सहेजना हमारा संस्कार है।यही कारण है कि हमारे पास आज इस अतीत की असंख्य विरासतें हैं। इनमें खजुराहो और ताजमहल से लेकर, अजंता, बाघ, बदामी , एहोल और सित्तनवासल तक के शिल्प, स्थापत्य और चित्रों के अप्रतिम वैभव के साथ साथ पूरे देश के विभिन्न अंचलों में बने वे संग्रहालय हैं जिनमें अतीत की अनमोल विरासतों को करीने से संजोया गया है।
 
इनमें एक अनमोल विरासत मुंबई में है जिसे छत्रपति शिवाजी महाराज वास्तु संग्रहालय के नाम से आज जाना जाता है।इसका पूर्व नाम प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूज़ियम था। हिन्दू, मुस्लिम और पाश्चात्य स्थापत्य के संविलयन से इंडो सार्सेनिक शैली के भव्य भवन में स्थापित इस संग्रहालय को स्थापित करने का विचार तब के बॉम्बे के कुछ सुप्रसिद्ध लोगों को आया और 11 नवम्बर 1905 को इसकी नींव प्रिंस ऑफ़ वेल्स, भविष्य के जॉर्ज पंचम ने रखी तथा जनसहयोग व शासकीय सहयोग से भवन वर्ष 1914 में पूर्ण हुआ तथा वर्ष 10 जनवरी 1922 को इसे दर्शकों के लिए खोल दिया गया। इसका आकल्पन उस समय के प्रसिद्ध वास्तुविद जॉर्ज विटेट ने किया था।
 
समय समय पर इसके पुरावस्तुओं के संग्रह में वृद्धि होती गई। आज इस संग्रहालय में लगभग 70 हज़ार एतिहासिक और कलात्मक वस्तुएं संग्रहीत हैं। यह संग्रहालय तीन भागों में विभाजित है ये है, कला, पुरातत्व तथा प्राकृतिक इतिहास।
 
यहां सिन्धु घाटी और हड़प्पा युगीन अवशेषों से लेकर मौर्य, गुप्त, चालुक्य और राष्ट्रकूट शासकों के समय के अवशेषों सहित मराठा युगीन विरासतें जहां एक ओर संरक्षित हैं वहीं दूसरी ओर कांस्य शिल्प, टेराकोटा, पोर्सलीन और हाथी दांत से बनी वस्तुओं के साथ भारतीय लघुचित्र, यूरोपीय चित्र तथा चीन व जापान की कलाकृतियां भी हैं। यहां महाराष्ट्र और उससे जुड़े भारत के पश्चिमी घाट के प्रदेशों सहित विशेष रूप से दक्षिणी भाग की महत्वपूर्ण धरोहरों को संजोया गया है।
 
आज यह संग्रहालय विश्व के नामचीन संग्रहालयों की श्रेणी में आता है।
 
इस संग्रहालय में अनेक वीथिकाएं या गैलरी हैं।प्रिंट गैलरी, टेक्सटाइल गैलरी तथा मेरिटाईम हेरिटेज गैलरी यहां हैं।इनके अलावा एक खण्ड वन्य सम्पदा का भी है।यह संग्रहालय अनेक कला वस्तुओं के संग्राहकों द्वारा प्रदत्त वस्तुओं से भी समृद्ध है।इनमें सर पुरुषोत्तम मावजी, सर रतन टाटा व दोराबजी टाटा तथा कार्ल एवं मेहरबाई खन्डालावाला संग्रह प्रमुख हैं। टाटा व खंडालावाला परिवार की ओर से विशिष्ट योगदान संग्रहालय को दिया गया ।यहां डॉक्टर मोतिचन्द्र जैसे ख्यात कला इतिहाकारों ने इतिहास रचा।आज भी यहां शोध की व्यापक सुविधाएं हैं तथा डॉक्टर देवांगना देसाई ने अपनी ओर से आर्थिक रूप से भी सतत सुविधा देने का उपक्रम स्थापित किया है।
 
वर्तमान में डॉक्टर सव्यसांची मुखर्जी जैसे मनीषी और समर्पित विद्वान इस संग्रहालय के महानिदेशक हैं जिनके अहिर्निश प्रयासों से इस संग्रहालय में उपलब्धियों के नये आयाम जुड़ रहे हैं।
 
इस संग्रहालय को जहां एक ओर प्रख्यात कला विदुषी डॉक्टर सरयू दोषी और डॉक्टर देवांगना देसाई सहित डॉक्टर उषा भाटिया का सान्निध्य और मार्गदर्शन प्राप्त है वहीं डॉक्टर वन्दना प्रपन्ना जैसी ललित कला की मर्मज्ञ यहां रखे लघुचित्रों का संरक्षण करती हैं। यहां डॉक्टर मनीषा नेने तथा डॉक्टर अपर्णा भोगल के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इस संग्रहालय में कार्यरत और इससे जुड़े सभी लोग पूरे समर्पित भाव से इस संग्रहालय की समृद्धि के लिए  प्रयासरत हैं।
 
संग्रहालय की वेबसाइट पर विस्तृत जानकारी उपलब्ध है।
 
यहां स्थापित वीथिकाओं में एक नई वीथिका सन् 2008 में स्थापित हुई कृष्णा गैलरी के नाम से जिसके सम्बन्ध में यह जानकारी विशेष रूप से दी जा रही है।
 
यह वीथिका प्रख्यात संस्कृतिविद डॉक्टर हर्ष दहेजिया के द्वारा अपने स्वर्गीय माता श्रीमती तृणिका व्ही दहेजिया व पिता स्वर्गीय श्री वेनीलाल व्ही दहेजिया की स्मृति में स्थापित की गई है।डॉक्टर हर्ष दहेजिया मुंबई विश्वविद्यालय से चिकित्साशास्त्र में स्नातकोत्तर हैं।उन्होंने एम ड़ी किया है साथ ही प्राचीन भारतीय संस्कृति में भी उन्होंने पी एच डी की है और पिछ्ले चालीस वर्षों से वे कार्ल्टंन विश्वविद्यालय कनाडा में प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति विषय के विभागाध्यक्ष हैं।वे कनाडा के भारतीय दूतावास के मानद चिकित्सक भी रहे हैं।
 
 डॉक्टर दहेजिया भारतीय लघुचित्रों व पुरावस्तुओं के संग्राहक हैं तथा विशेष रूप से राधा व कृष्ण केन्द्रित लघुचित्रों व अन्य कलाकृतियों को वे दशकों से एकत्र करते रहे हैं। भारतीय कला के वे उत्कृष्ट अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान हैं और उनकी भारतीय कला पर अनेक कृतियां हैं। ये कृतियां न केवल भारतीय लघुचित्रों पर केन्द्रित हैं बल्कि अमरूक शतक, बालगोपाल स्तुति, रसिकप्रिया, भर्तृहरि के शृंगार शतक रसखान के काव्य , राधा, कालिदास की नायिकाओं और पारिजात हरण जैसे अल्पज्ञात प्रसंगों से लेकर बुन्देलखण्ड की चित्रांकन परम्परा पर भी हैं। वे कृष्ण काव्य, नायिका भेद और मधुरा भक्ति से जुड़े विभिन्न दार्शनिक आयामों के अदभुत विद्वान हैं। 
 
वे उन बिरले विद्वानों के श्रेणी में प्रतिष्ठित हैं जिन्होंने साहित्य, दर्शन और कला को जोड़कर भारतीय संस्कृति के समग्र परिप्रेक्ष्य को हमारे सामने प्रस्तुत किया है। उनकी अन्तरनुशासिक दृष्टि संपूर्णता में हमारी विरासत का अनुसन्धान कर उसकी भव्य छबि को हमारे सामने प्रस्तुत करती है। गीत गोविन्द के बाद के राधा और कृष्ण के स्वरूप औरउससे सम्बन्धित कला और साहित्य उनके अध्ययन के प्रमुख विषय हैं।
 
यहां यह जानना भी रोचक होगा कि उन्होंने पारुल जैसा उपन्यास भी अंग्रेज़ी में लिखा है जिसका मैंने हिन्दी अनुवाद किया है।यह उपन्यास केशव के बारमासा के वर्णन के आधार पर है।कविप्रिया में केशव ने बारहों माहों के भावों और उनकी प्राकृतिक शोभा को नायक और नायिका के प्रणय के परिप्रेक्ष्य में वर्णित किया है।डॉक्टर दहेजिया ने न केवल इन भावों और प्रकृति की सुषमा को अपितु इन बारह ऋतुओं से जुड़े विभिन्न सांस्कृतिक उपादानों और लोकविश्वासों को केन्द्र में रखते हुए इस उपन्यास की रचना की है जो अपने आपमें एक अभिनव प्रयोग है।
 
आलोचना का नहीं यह विचार का प्रश्न है कि उनके इस प्रकार के महत्वपूर्ण अन्तरानुशासिक कार्य की ओर हमारा अपेक्षित ध्यान अभी दिया जाना है।
सौभाग्य से पिछ्ले लगभग 15 वर्षों से मैं उनके साथ विभिन्न परियोजनाओं पर कार्य करता रहा हूं व उनके साथ मैंने अनेक पुस्तकें लिखी हैं।
 
डॉक्टर दहेजिया ने आरम्भ में वेदों और पुराणों का अध्ययन किया और उसके बाद वे शंकर के अद्वैतवाद मे अध्ययन की ओर मुड़े। कश्मीर के शैव दर्शन, सौन्दर्य मीमांसा और शिव पार्वती के विवाह दर्शन की व्यंजक यात्रा करते हुए उनकी अध्ययन और मनन यात्रा श्रीमदभागवत और विशेष रूप से उसके दशम स्कन्ध पर पहुंच कर विश्रान्ति पा गई। वे कहते हैं कि यहां मुझे अपना घर मिल गया। भागवत ने उन्हें अनेक दिशाओं में विचरण करने का अवसर दे दिया।वे कृष्ण श्रृंगार और कृष्ण भक्ति से जुड़े और इसी रस माधुरी में डूबकर वे चैतन्य , जयदेव, विद्यापति, अष्टछाप के कवियों सहित कृष्ण काव्य के विभिन्न सर्जकों , रसिकों और उन पर निर्मित लघुचित्रों के संकलन की गतिविधि से जुड़े और विशेषकर कृष्ण केन्द्रित लघुचित्रों का उन्होंने एक अद्वितीय संकलन निर्मित किया।
 
डॉक्टर दहेजिया के पिता एक आई सी एस अधिकारी थे ।उन्होंने लंदन के इम्पीरियल कालेज में अध्ययन किया और वहीं इस प्रतिष्ठित परीक्षा में बैठे।वे बॉम्बे प्रेसिडेंसी में गृह सचिव रहे, नेहरूजी के कार्यकाल में भारत के वित्त सचिव रहे तथा भारतीय स्टेट बैंक के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए।डॉक्टर दहेजिया की माँ वर्ष 1930 में मुंबई विश्वविद्यालय की अर्थशास्त्र विषय में प्रथम महिला स्नातकोत्तर महिला थीं।वे मुंबई की अनेक संस्थाओं से जुड़ी थीं।
अपने पिता की 100 वीं बरसी की पर वर्ष 2008 में पिता व माता की स्मृति में डॉक्टर दहेजिया व उनकी पत्नी डॉक्टर सुधा दहेजिया ने इस प्रतिष्ठित संग्रहालय में "गैलरी ऑफ़ कृष्णा आर्ट" को स्थापित किया तथा अपने इस संकलन को , राधा माधव के इन दुर्लभ लघुचित्रों को इस संग्रहालय के विग्रह को समर्पित कर दिया।
 
इस अनमोल संग्रह में विभिन्न लघुचित्र शैलियों में विभिन्न कालखंडों में बनाए गए अंकन हैं जिनमें 16 वीं सदी का बालगोपाल स्तुति का कृष्ण के स्वरूप की वन्दना करने वाला वह अंकन भी अपभ्रंश कलम का है जो " कस्तूरी तिलकं ललाट पटले ---" के श्लोक पर बनाया गया है।इस संग्रह में कोटा कलम से लेकर पहाड़ और राजस्थान की लघुचित्र शैलियों के अंकन हैं तो वहीं दूसरी ओर चम्बा रूमाल, कांस्य शिल्प, पाषाण शिल्प और पिछ्वाई भी हैं।नायाब कलाकृतियों से सजे इस संग्रह में पहाड़ी कलम के आधुनिक काल के निष्णात कलाकार विजय शर्मा (पद्मश्री प्राप्त) कलाकार के अंकन भी हैं। इस संग्रह में देवी के अंकन भी हैं।इस संग्रह की कला कृतियों का पूर्ण वर्णन करने के लिये बहुत विस्तार चाहिये।लेकिन यह सत्य अपने स्थान पर है कि दहेजिया दंपत्ति ने अपना समूचा जीवन लगाकर इन कला कृतियों को एकत्र कर इसे इस बेजोड़ संग्रहालय के माध्यम से लोक को अपनी अनमोल विरासत से साक्षात करने के लिए सौंप दिया है।

 
 

 
चित्र सौजन्य : लेखक नर्मदा प्रसाद उपाध्याय 
 

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