संसद का बजट सत्र समाप्त हो गया। लेकिन लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी का भाषण और सत्तारूढ़ गठबंधन के सांसदों, मंत्रियों और नेताओं द्वारा दिए गए प्रत्युत्तर ने ऐसे अनेक प्रश्न उठाए हैं जिनका उत्तर तलाशना ही होगा। संसद में हमने कभी भी इस तरह के नैरेटिव और परिदृश्य नहीं देखे।
राहुल गांधी ने विपक्ष के नेता के रूप में जिस तरह का भाषण दिया वैसा पहले कभी सुना नहीं गया। हालांकि पिछले दो वर्षों की उनकी राजनीति पर गहराई से दृष्टि रखने वालों के लिए यह अपेक्षित है।
17वीं लोकसभा के बाद के काल के लोकसभा में और बाहर उनके भाषणों और वक्तव्यों में एक क्रमबद्धता है। वह भले विवेकशील लोगों को पसंद न आए या पुराने कांग्रेसियों को भी स्वीकार नहीं हो, किंतु वह इसी तरह की भाषा बोलते रहे हैं। चूंकि विपक्ष के नेता के रूप में वह बजट पर चर्चा कर रहे थे, इसलिए स्वाभाविक ही मुख्य फोकस इसी पर होना चाहिए था।
इस समय उनके सलाहकारों, रणनीतिकारों, थिंक टैंक आदि की रणनीति यही है कि हर अवसर पर ऐसा भाषण या वक्तव्य देना है जिनसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा की छवि जनता में दागदार हो, ऐसे मुद्दे उठे जिनका सीधा-सीधा उत्तर देना कठिन हो और इसके लिए किसी सीमा को स्वीकार करने की आवश्यकता नही। सामान्य तथ्यगत विरोध आक्रामकता के साथ होना कतई चिंता का विषय नहीं होगा। स्थिति इससे बहुत आगे है।
भारत और भारत से जुड़े वैश्विक नैरेटिव समूहों की स्थिति ऐसी है जिसमें हमें ज्यादातर एकपक्षीय स्वर इतने प्रभावी से सुनाई पड़ते हैं कि उनमें आसानी से सच समझना कठिन हो जाता है। पूर्व केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का लोकसभा भाषण इस मामले में सबसे ज्यादा निशाने पर है। अखिलेश यादव ने उस पर आपत्ति उठाते हुए कहा कि आप किसी की जाति कैसे पूछ सकते हैं?
राहुल गांधी ने कहा कि अनुराग ठाकुर ने उनको अपमानित किया है लेकिन मैं इन लोगों की तरह नहीं हूं, इन्हें क्षमा मांगने के लिए नहीं कहूंगा। अनुराग ठाकुर ने बिना नाम लिए कहा था कि जिसकी अपनी जाति का पता नहीं वह जाति सर्वेक्षण की बात करता है। लोकसभा के रिकॉर्ड से उनकी इस पंक्ति को हटा दिया गया है। आप अगर सोशल मीडिया पर जाएं तो देखेंगे कि राहुल गांधी के विरुद्ध अनुराग ठाकुर के इस बयान का भी व्यापक समर्थन है और ऐसा करने में बड़े-बड़े लोग शामिल है। यह इस बात का प्रमाण है कि नेताओं ने पूरा माहौल समाज में कितना आक्रामक और उग्र बना दिया है।
अनुराग ठाकुर भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं, उनकी पार्टी सत्ता में है इसलिए कहा जा सकता है कि अति उत्तेजना और उकसावे के बीच भी उन्हें अंतिम सीमा तक संयम का परिचय देना चाहिए। दूसरे आप पर हमला करें और आप उसी भाषा में बोले तो फिर दोनों के बीच अंतर कठिन हो जाता है। किंतु नैरेटिव की दुनिया में वर्चस्व रखने वाले समूह ने एक पंक्ति नहीं कहा कि राहुल गांधी ने अपने भाषण में सत्तारूढ़ पार्टी को उकसाने, उत्तेजित करने या चिढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं।
यहां तक कि बार-बार वे लोकसभा अध्यक्ष को भी परोक्ष रूप में कठघरे में खड़ा करते रहे। अध्यक्ष ओम बिरला के टोकने या आपत्ति करने पर उनका उत्तर होता था कि सर, इसे कैसे बोलें या सॉरी सर सॉरी सर लेकिन वह उसी बात को सॉरी कहते हुए दोहराते भी रहे। अध्यक्ष के लिए भी उनको संभालना या रोकना असंभव हो गया है।
यह पहली बार होगा जब संसद के अंदर विपक्ष के नेता ने सरकार को घेरने के लिए ऐसा उपमा दिया जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तक घसीटे गए। चक्रव्यूह के बारे में राहुल गांधी को निश्चित रूप से कुछ गलत तथ्य दिए गए किंतु ऐसा हो जाता है।
बावजूद उन्हें अपने पद के दायित्व का भान होना चाहिए था। सत्तापक्ष हो या विपक्ष राष्ट्रीय सुरक्षा सर्वोपरि है। आपका सरकार से राजनीतिक वैचारिक मतभेद है और उसे प्रकट करने का अधिकार भी। वैसे उसमें भी सीमा है कि हम विरोध में कहां तक जाते हैं। कभी भी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को इस तरह राजनीतिक दल के हमले के साथ जोड़ा नहीं गया।
आप कल्पना करिए इसका संदेश देश के अंदर और बाहर क्या जाएगा। आंतरिक सुरक्षा हमारे देश में कितने नाजुक स्थिति में लंबे समय तक रहा है और बाहरी खतरे कितने बड़े हैं इसका अनुमान उन सब लोगों को है जो थोड़ा बहुत भी सुरक्षा स्थिति पर दृष्टि रखते हैं।
इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की भूमिका महत्वपूर्ण होती है जिसे कभी सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। राहुल गांधी के भाषण को आधार बनाकर देश के अंदर उनके समर्थक तथा सरकार विरोधी सीमा के पार भी भारत के अनेक सुरक्षा या विदेश नीति संबंधी निर्णयों को आसानी से निशाना बनाएंगे। उनका खंडन करना भारत के लिए ज्यादा कठिन होगा।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के साथ बजट के पूर्व हलवा परंपरा की तस्वीरें डालकर उन्होंने राजनीति के अपनी जाति कार्ड को खेला। पिछले करीब 2 वर्षों से उनकी राजनीति में स्वयं को पिछड़ों दलितों का समर्थन तथा भाजपा को उसके विरुद्ध साबित करना सर्वोपरि हो गया है। परिणाम यह हुआ कि वित्त मंत्री ने यूपीए सरकार के कार्यकाल में हलवा परंपरा सहित कई तथ्यों का उल्लेख कर साबित कर दिया कि राहुल गांधी तथ्यात्मक रूप से तो गलत है ही अपनी ही सरकार की परंपरा की धज्जियां उड़ा रहे हैं।
लोगों ने यूपीए सरकर में वित्त मंत्री पी चिदंबरम की हलवा संबंधी तस्वीरें निकाल कर बताना शुरू कर दिया कि उनमें एक भी पिछड़े नहीं थे। इसी तरह सीतारमण के साथ खड़े अधिकारियों के बारे में भी कहा गया कि उनकी नियुक्ति तो राजीव गांधी सरकार के कार्यकाल में हुई थी।
हालांकि राहुल गांधी ने बड़ी बुद्धिमत्ता से तस्वीर में से एक चेहरे हटा दिए जो वाकई पिछड़ी जाति का था। क्या सरकार की आलोचना या उसके विरोध के लिए संसदीय -राजनीतिक मर्यादाओं की सीमा इस तरह लांघने और उनमें नौकरशाहों और प्रमुख पदों पर बैठे लोगों को निशाना बनाना उचित है? वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह के साथ देश के दो शीर्ष उद्योगपतियों के हाथों भारत संचालन का सूत्र बताएंगे तो इस पर उत्तेजना पैदा होगी और दूसरी ओर से भी कुछ लोग सीमा उल्लंघन कर आपको उसी तरह प्रति हमले का शिकार बनाएंगे। उन्होंने इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख डॉ, मोहन भागवत को भी ले आया। ऐसा वह प्रयास करते हैं। वह इतना कुछ बोलते हैं, कभी संघ प्रतिवाद करने नहीं आता। संघ से सहमत या असहमत होना, इसका विरोध करना सबका अधिकार है पर इस दूसरे पहलू को भी कभी अपने चिंतन में लाना चाहिए।
राहुल गांधी और उनके रणनीतिकारों को संसद में महत्वपूर्ण विपक्षी नेताओं के भाषण, उनके हस्तक्षेप, उठाए गए प्रश्न आदि का गंभीरता से अध्ययन करना चाहिए। कम से कम बजट पर विपक्षी नेताओं के संसद में दिए गए भाषण को एक बार सरसरी ती तौर पर देख लें और आत्ममंथन करें तो आभास हो जाएगा कि वह कहां खड़े हैं। राहुल गांधी और उनके टीम थोड़ा परिश्रम करती तो बजट से ऐसे तथ्य निकाल सकते थे, जिनका सरकार के लिए सहमति करने योग्य उत्तर देना कठिन होता। बजट में उन प्रावधानों को संशोधित भी करने की नौबत आ सकती थी।
विपक्ष के नेता के सामने मुख्य लक्ष्य देश और आम लोगों का हित ही होना चाहिए। इस दृष्टि से बजट प्रावधानों को और सामने लाते तो उनका पक्ष ज्यादा सबल होता है ज्यादा स्थाई लोग उनके समर्थन में आते। यह धारणा भी बनती कि वह अब परिपक्व और जिम्मेदार राजनेता हो रहे हैं। उनकी टीम के लोग भले इस बात को आसानी से स्वीकार नहीं करेंगे पर सच यही है कि उनके घनघोर समर्थकों में विवेकशील लोग भी इस तरह की भूमिका को उचित नहीं मानते हैं।
हमारे देश और देश के बाहर वातावरण निर्माण करने वाले लोगों में उनकी बड़ी संख्या है जो संघ और भाजपा से सामान्य वैचारिक मतभेद नहीं रखते बल्कि उस सीमा तक नफरत और वैर भाव पालते हैं जिनकी हम आप कल्पना नहीं कर सकते। इसी का परिणाम राहुल गांधी का पिछले कुछ वर्षों में उभरा नया तेवर है। वह उन सबके विचारों की अभिव्यक्ति करने वाले व्यक्तित्व के रूप में इस समय संसद या उसके बाहर दिखाई देते हैं।
इन सबको सरकार या उन संगठनों के विरोध का पूरा अधिकार है पर हमेशा ध्यान रखें कि आपके पास सत्य और तथ्य नहीं है तो नैरेटिव लंबी आयु तक नहीं टिका रह सकता। तथ्य और सत्य के आधार पर विरोध हो तो टिकाऊ होगा। हालांकि वर्तमान वातावरण में इसमें बदलाव की संभावना नहीं है। इसलिए देश के विवेकशील लोग, जिनमें राजनेता भी शामिल हैं शांत मन से सोचें, विचारें कि कैसे संतुलित तरीके से इसका प्रत्युत्तर दें तथा अपने व्यवहार से देश का वातावरण सकारात्मक शांत और संतुलित बनाए रखा जाए।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)