सुनहरी यादों के साथ (3) : हाय! जिंदगी कितनी इंद्रधनुषी हुआ करती थी

डॉ. छाया मंगल मिश्र
school memories


वो जाफरियों वाले बरामदे और कवेलू की छतों वाले हरे-भरे बड़े-बड़े मैदानों वाले हमारे स्कूल। सारे विषयों के साथ एक खेल का पीरियड भी लगा करता था। कभी कोई बहनजी नहीं आती थीं तो भी ऐसा ही कुछ समायोजन कर लिया जाता था। हां, हम अपनी टीचर को 'बहनजी' और प्रिंसिपल मैडम को 'बड़ी बहनजी' ही कहते थे।
 
एक कुआं हुआ करता था। कुछ ने उसमें कूदकर जान भी दी। बाद में जाली लगवाई गई। उसके ही पास बबूल का पुराना पेड़ था। कहते थे उस पर उनकी आत्मा है, जो कुएं में कूदकर मरे। बड़े मैदान में आगे बड़ा स्कूल, उसके मैदान जिसमें खो-खो, डॉजबॉल, कबड्डी, स्लो साइकल, दौड़ जैसे कई खेलों की प्रैक्टिस चलती थी। हॉस्टल, क्वार्टर्स बने हुए थे। कार्यक्रम के लिए बड़ा-सा हॉल। सब के सब हरा-भरा।
 
वर्षों पुराना एक गुलमोहर का झाड़ जिसकी फलियों को तलवार बनाकर खेलते और खुद को रानी लक्ष्मीबाई से कम नहीं समझते। उसके फूलों में से राजा-रानी पत्तियां छांटते (ध्यान से देखिएगा गुलमोहर के फूल उसमें एक पंखुरी अलग किस्म की होती है, उसे रानी और बाकी को राजा कहते), खट्टे-मीठे फूल, कलियां पेट पूजा के काम आते। यही नहीं, गर्मियों में जब सांय-सांय हवा चलती तब यूकेलिप्टस की पत्तियां जोड़कर पटपट बाजा बनाते, उसके फूलों के सूखे तिकोने भूरे रंग के नन्हें खोलों को आपस में जोड़कर ज्वेलरी बना लिया करते।
 
हरी पत्तियों की पिपाड़ी बनाने के हुनर पर तो हम खुद ही अपने पर वारे जाते थे। ठंड के दिनों में रंग-बिरंगे ऊनी स्वेटर, जो घर की बड़ी-छोटी किसी भी महिला सदस्य के प्रेम, लगन, आशीर्वाद, स्नेह की गर्मी के फंदों के साथ प्यार से बुने हुए होते।
 
क्लास की सभी लड़कियां उनमें से रुएं नोचतीं रहतीं। इकट्ठा करतीं। फिर मनचाही सुन्दर मनोरम आकृतियों में बदल देतीं। उनमें कुछ गुड़िया, परियां, फूलों का गुलदस्ता खास पसंदीदा रहते। खोपड़ी पर रंग-बिरंगे अलग-अलग रंगों के ऊनी, सूती, रेशमी, सिल्कन स्कॉर्फ और टोपे-टोपियां खूब भाते।
 
'मंकी केप' खास आकर्षण का केंद्र होती। हाथों में उंगलियों वाले दस्ताने और कोट पहनने वाला उस समय रईस की श्रेणी में आता था हमारे लिए। ठंडीगार लालचट्ट नाक, जो अधिकतर बच्चों की सर्दी की वजह से बहा करती, फटे हुए गाल जो हाथपांव के साथ तिराड़े लिए हुए खून निकलने की कगार तक हद पार कर जाते। पर फिर भी खेलने-कूदने से बाज नहीं आते।
 
रातों को वैसलिन, नींबू मिले ग्लीसरीन मस्त कुटाव, चुटकी नुचाव के साथ पोत दिए जाते, जो भयंकर जलन करते। हम हाय-हाय करते सो जाते। गर्मियों में उठते धूल के बवंडर कभी-कभी डरा भी दिया करते। गर्मी की छुट्टियों का आनंद ही हमें गर्मियां पसंद करने का कारण भी था।
 
शरबत, आइसक्रीम, गन्ने का रस, बर्फ के गोले, जो सिवैंया के साथ होते जिन्हें फालूदा कहते। कुल्फियां, खिरनी, करोंदे, शहतूत, फालसे, कबीट, इमली, लाल और विलायती इमली भी, चौवे (कच्ची नन्ही इमली) जिनके ठेले गुमटियां हमें अपनी ओर खींचते। मसाले के साथ इनको खाना जन्नत का मजा देता। पंखे, एसी वगैरह को हम धता बताते पूरे महल्ले में कुदल्ले मारते-फिरते। जिस पर एक अलग आनंदनामा लिखा जा सकता है।
 
बारिश में पतरे की छत पर कवेलू की खुशबू और टपर-टपर पानी की बूंदों की आवाज मधुर सुरताल पैदा करती। मन मस्ती से झूम जाता। रंग-बिरंगी छोटी-छोटी छतरियां, बरसाती, प्लास्टिक की थैलियों की टोपियां, गीले-सूखे पानी से बचते-बचाते आने का ढोंग करते, डबरकों में छपाक छप-छप करते स्कूल पहुंच जाते। तब कोई 'रैनी डे', 'कोल्ड डे', 'हॉट डे' का हवाला देकर छुट्टियां नहीं हुआ करती थीं।
 
हाय! जिंदगी कितनी इंद्रधनुषी हुआ करती थी। हां, त्योहार सारे मनाए जाते थे संक्रांति खासकर के। गिल्ली-डंडे, सित्तोल्लिया, गधामार, रस्सी कूद, पतंग उड़ाना, बबूल की टहनी को तोड़कर बांसड़े पर बांधकर दौड़ लगाकर पतंग लूटना, पेंच लड़ना-लड़ाना, लिंगड़ लड़ना पूरी शानोशौकत के साथ होता था। सभी सर-मैडम यानी कि बहनजी हमारे साथ खेलते थे। कई बार टिफिन पार्टियां भी आयोजित कर ली जाती थीं। कभी-कभार शहर में ही आसपास की किसी हरी-भरी जगह व बगीचों में भी पिकनिक मन जाया करती थी।
 
आनंद मेलों और बाल फिल्मों में भी लाइन बनाकर जाने-आने का मजा भी कुछ और ही रहता। हमारा प्राथमिक व माध्यमिक स्कूल एक जगह ही था। उसमें टेबल-टेबल-टेबल जोड़कर मंच बना लिया जाता। उस पर मोटी-सी दरी डाल ली जाती। लो जी हो गया स्टेज तैयार।
 
उस समय गिने-चुने ही प्राइवेट स्कूल हुआ करते थे, पर उनको सरकारी स्कूल कड़ी टक्कर देते थे पढ़ाई, खेल, वाद-विवाद, डांस सभी प्रतियोगिताओं में। उस समय सरकारी स्कूल बेहद सम्मानित और नामी हुआ करते थे। शिक्षा के नाम पर इतनी लूट-खसोट व छीछालेदरी नहीं थी। हां पर, शैतानी-शरारतें व मस्ती भी खूब थी। अपनी टीचर्स और साथियों की 'चिढ़ावनी' रखना सबसे प्रिय शगल हुआ करता और वो उसी नाम से पीढ़ियों तक जाने जाते। जाने वाले बच्चे आने वाले बच्चों में उस नाम का प्रसारण कर जाते।
 
हां, पर वो कभी भी भद्दे या अपमानजनक नहीं होते थे। अधिकतर तो आदतों और तकिया कलामों पर होते। क्या मजेदार वक्त बीत गया। मन कह रहा है। 
 
याद न जाए बीते दिनों की,
जा के न आए जो दिन दिल क्यों बुलाए उन्हें।
 
दिन जो पखेरू होते, पिंजरे में मैं रख लेती,
पालती उनको जतन से, मोती के दाने देती।
सीने से रखती लगाए, याद न जाए बीते दिनों की...। 
 
आज इतना ही...! दिल, दिमाग व मन सब अतिभावुक और भारी हो चला है...! अगली बार जल्द ही मिलेंगे...!

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