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अमेरिकी विदेश मंत्री की यात्रा के आखि‍र क्‍या हैं मायने

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अवधेश कुमार

अमेरिकी विदेश मंत्री एंटोनी ब्लिंकन पर केवल भारत के अंदर ही नहीं बाहर भी कई देशों की गहरी दृष्टि रही होगी। अफगानिस्तान के अलावा पाकिस्तान, चीन रूस और ईरान अवश्य देख रहे होंगे कि ब्लिंकन इस दौरान क्या बोलते हैं, किन-किन से उनकी मुलाकात होती है और भारत की ओर से क्या बयान दिया जाता है।

वे ऐसे समय भारत आए जब अफगानिस्तान को लेकर अनिश्चय का माहौल है, पाकिस्तान चीन के साथ मिलकर वहां महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की ओर अग्रसर है, भारत को अफगानिस्तान से बाहर करने या वहां भूमिकाहीन करने की कोशिशें चल रही हैं एवं चीन की भारत विरोधी गतिविधियां जारी है…...।

निस्संदेह,  कोविड महामारी से निपटने में आपसी सहयोग भी यात्रा का एक महत्वपूर्ण मुद्दा था, पर सामरिक चुनौतियां एजेंडा में सबसे ऊपर रहा। जो बिडेन प्रशासन भारत को कितना महत्व देता है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इस वर्ष ब्लिंकन भारत आने वाले तीसरे अमेरिकी नेता थे। ब्लिंकन के पहले रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन तथा जलवायु परिवर्तन मामलों पर अमेरिकी राष्ट्रपति के विशेष दूत जॉन कैरी भारत आ चुके हैं।
संयुक्त विज्ञप्ति से यह साफ है कि हिंद प्रशांत क्षेत्र में शांति और स्थिरता को बढ़ावा देने के अलावा अफगानिस्तान सहित क्षेत्रीय सुरक्षा के मामलों पर अधिक सशक्तता से मिलकर काम करने पर सहमति बनी है। यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रगति है। विदेश मंत्री एस जयशंकर के साथ संयुक्त प्रेसवार्ता में ब्लिंकन ने कहा कि भारत और अमेरिका की साझेदारी हिंद प्रशांत क्षेत्र में स्थिरता और समृद्धि प्रदान करने तथा दुनिया को यह दिखाने के लिए महत्वपूर्ण होगी कि लोकतंत्र अपने लोगों के लिए कैसे काम कर सकता है।

उन्होंने भारत के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि दुनिया में ऐसे बहुत कम रिश्ते हैं जो भारत और अमेरिका के बीच के संबंधों से ज्यादा महत्वपूर्ण है। उनके शब्द थे कि भारत और अमेरिका के लोग मानवीय गरिमा और अवसर की समानता, कानून के शासन, धर्म और विश्वास की स्वतंत्रता सहित मौलिक स्वतंत्रता में विश्वास करते हैं। यह हमारे जैसे लोकतंत्र के मूल सिद्धांत हैं।

ये बातें महत्वपूर्ण हैं और इनसे भारत अमेरिका संबंधों की ठोस व्यावहारिक और वैचारिक आधार भूमि का आभास होता है। इस समय आम भारतीय की रुचि ज्यादा शुद्ध व्यवहारिक मुद्दों पर थी। इनमें अफगानिस्तान सबसे ऊपर है। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अफगानिस्तान सहित क्षेत्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर व्यापक चर्चा की बात कही।

उन्होंने कहा कि शांतिपूर्ण सुरक्षित और स्थिर अफगानिस्तान में भारत और अमेरिका की गहरी रुचि है। जयशंकर के अनुसार इस क्षेत्र में एक विश्वसनीय भागीदार के रूप में भारत ने अफगानिस्तान की स्थिरता और विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है तथा उसे जारी रखेगा। उन्होंने आश्वस्त करने के अंदाज में कहा कि अमेरिका और भारत अफगान लोगों के हितों के लिए मिलकर काम करना जारी रखेंगे तथा क्षेत्रीय स्थिरता का समर्थन करने के लिए भी काम करेंगे। जाहिर है, दोनों नेताओं की बातचीत में सहमति उभरने के बाद ही जयशंकर ने ये बातें कहीं। कह सकते हैं कि भारत और अमेरिका वहां क्या करेंगे इसकी स्पष्ट रूपरेखा सामने नहीं आई। कूटनीति में ये बातें सार्वजनिक रुप से नहीं कहीं जातीं

अमेरिका जिस तरह वहां से निकल गया उससे उसकी अपनी साख तो कमजोर हुई ही है पूरे क्षेत्र की सुरक्षा और स्थिरता पर खतरा पैदा हो चुका है। पाकिस्तान की कोशिश है कि तालिबान किसी तरह वहां फिर से सत्ता पर कब्जा जमाये और उसके माध्यम से उसका प्रभाव कायम हो । चीन पाकिस्तान के माध्यम से वहां प्रभावी भूमिका निभाने की ओर अग्रसर है। पाकिस्तान के सहयोग से तालिबानी नेताओं के साथ चीन के विदेश मंत्री की बातचीत भी हो चुकी है। तालिबान ने घोषणा भी किया है कि वह चीन के हितों को कतई नुकसान नहीं पहुंचाएगा तथा शिनजियांग के विद्रोहियों को अपने यहां किसी सूरत में शरण नहीं देगा। भारत के संदर्भ में तालिबान का ऐसा कोई बयान नहीं आया है।

हालांकि अभी अफगानिस्तान की जो तस्वीर मीडिया के माध्यम से हमारे सामने आ रही है वह सच्चाई का एक पक्ष है। तालिबान का प्रभाव क्षेत्र बढ़ने के बावजूद अफगानिस्तान सरकार की ताकत अभी बनी हुई है और वह तालिबान के साथ जमकर लोहा ले रही है। ऐसी स्थिति अभी तक कायम नहीं हुई जिससे लगे कि वाकई अब्दुल गनी की सरकार पराजय की ओर बढ़ रही है।

तालिबान अफगान सरकार के साथ शांति समझौते के अपने वचन से हटकर सत्ता पर कब्जा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं तथा उन्हें कुछ क्षेत्रों में सफलता भी मिली है। अफगान के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति दोनों ने कहा है कि पाकिस्तान तालिबान की खुली मदद कर रहा है, उन्हें हवाई सुरक्षा भी दे रहा है।

वैसे तालिबान का मजबूत होना पाकिस्तान के लिए कुछ मायनों में परेशानी का कारण भी बनेगा। क्वेटा के क्षेत्र में तालिबान पहले से जमे हुए हैं। मजबूत होने के बाद वे वहां से आसानी से नहीं निकाले जा सकते। जैसे-जैसे उनकी ताकत अफगानिस्तान में बढ़ेगी पाकिस्तान के यहां शरणार्थियों का आगमन भी उतनी ही ज्यादा संख्या में होगा। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा भी है कि वे शरणार्थियों की संख्या बढ़ने देंगे। ऐसा कर पाना उनके लिए आसान नहीं होगा।

पाकिस्तान जो भी वह हमारे लिए तालिबान की ताकत बढ़ना निश्चित रूप से गहरी चिंता का कारण है। भारत ने तीन अरब डॉलर से ज्यादा निवेश कर वहां सड़कें , बांध, अस्पताल ,पुस्तकालय आदि आधारभूत संरचनाओं का निर्माण किया है। यहां तक कि संसद भवन भी भारत न ही बनाया है।

भारत ने वहां के सभी 34 प्रांतों में 400 से अधिक परियोजनाएं आरंभ की है। तालिबान उन्हें ध्वस्त कर सकते हैं पुणे। पाकिस्तान और चीन साथ मिलकर भी भारत को वहां से बाहर करने की कोशिश कर सकते हैं। हालांकि तालिबान ने कहा है कि ऐसा नहीं करेंगे लेकिन वे भरोसा के लायक नहीं है। अगर चीन और पाकिस्तान का उन पर प्रभाव कायम रहा तो भारत विरोधी रवैया उनका निश्चित रूप से सामने आएगा। भारत की पूरी कोशिश है कि अमेरिका अफगानिस्तान के संदर्भ में ठोस रणनीति बनाए और उसके तहत भारत की मदद करता रहे। पर व्यापक बातचीत हुई है और कुछ ठोस निर्णय भी करने का संकेत है।

ब्लिंकन की राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के साथ भी लंबी मुलाकात हुई। इसमें द्विपक्षीय एवं क्षेत्रीय सामरिक मुद्दे शामिल थे। जैसी खबर है इसमें सामरिक संबंधों को ऊंचाई पर ले जाने पर जोर दिया गया। हालांकि इस संबंध में सार्वजनिक तौर पर बहुत कुछ नहीं कहा गया लेकिन हम मान सकते हैं कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान, चीन और हिन्द प्रशांत क्षेत्र पर बातचीत केंद्रित रही होगी।

अफगानिस्तान को लेकर अमेरिका ने भारत के क्या बातें की इसका पता आने वाले समय में चलेगा लेकिन वह तालिबान के खिलाफ बीच-बीच में हवाई हमले कर रहा है तथा अफगानिस्तान सरकार को भारी आर्थिक एवं सैन्य सहायता देने जा रहा है। इसका अर्थ हुआ कि अमेरिका जमीन से भले वापस चला जाए, अफगानिस्तान सरकार को अब वह केवल उनके ही हाल पर नहीं छोड़ रहा। भारत-अमेरिका के बीच प्रशांत क्षेत्र से जुड़ा स्क्वाड भी बहुआयामी सहयोग का मंच है। इस वर्ष के आरंभ में क्वाड का वर्चुअल शिखर सम्मेलन हुआ जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन के अलावा जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा,भारत के नरेंद्र मोदी और ऑस्ट्रेलिया के स्‍कॉट मॉरिसन शामिल हुए थे।

उस बैठक में कोविड-19 टीके को लेकर एक कार्य समूह गठित हुई थी तथा यह तय हुआ था कि जापान के आर्थिक व ऑस्ट्रेलिया के लॉजिस्टिक मदद से भारत हिन्द प्रशांत के देशों के लिए अमेरिकी टीका की एक अरब खुराक बनाएगा। जॉनसन एंड जॉनसन की टीका में तकनीकी गड़बड़ियों के कारण टीका निर्माण में देरी की आशंकाएं उत्पन्न हैं। इसलिए आगे कैसे उस निर्णय को अमल में लाया जाएगा यह ब्लिंकन की यात्रा के दौरान चर्चा का विषय रहा होगा।

बताने की आवश्यकता नहीं कि क्वाड से अमेरिका के हित भी गहरे जुड़े हुए हैं। दो महासागरों वाले हिंद प्रशांत क्षेत्र अमेरिका के समुद्री हितों की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार इस वर्ष दुनिया के कुल निर्यात के 42 प्रतिशत और आयात की 38 प्रतिशत सामग्रियां यहां से गुजर सकती हैं। 2019 का आंकड़ा बताता है कि इन महासागरों से 19 खराब डॉलर मूल्य की अमेरिकी व्यापार सामग्रियां गई थी। ब्लिंकन की यात्रा में क्वाड को लेकर भी गहन चर्चा हुई होगी।

क्वाड का मुख्य उद्देश्य क्या है यह अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ। चीन जिस प्रकार अपने आर्थिक और सैन्य ताकत की बदौलत दुनिया में वर्चस्व कायम करने की ओर अग्रसर है उसमें क्वाड उसे रोकने का रणनीतिक मंच बनाए तभी इसकी उपयोगिता है। एंटोनी ब्लिंकन ने नई दिल्ली में निर्वासित तिब्बती सरकार तथा दलाई लामा के प्रतिनिधियों से सार्वजनिक मुलाकात कर फिर से चीन को कुछ साफ संकेत दिया है।

वैसे तो भारत यात्रा के दौरान कई अमेरिकी नेता तिब्बतियों से मुलाकात करते रहे हैं पर इस बार यह इस मायने में अलग हो जाता है की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों दलाई लामा को जन्म दिवस पर बधाई देने का संदेश ट्वीट भी कर दिया। किसी भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा ऐसा पहली बार किया गया। जाहिर है चीन के खतरनाक मंसूबे को देखते हुए भारत ने पूर्व के परंपरागत धारा से थोड़ा अलग हटने का संकेत दिया है। यह बिल्कुल संभव है कि अमेरिका और भारत के बीच तिब्बत को लेकर कुछ दीर्घकालीन नीतियों पर सहमति बनी हो।

सिंचियांग के साथ तिब्बत चीन के लिए काफी संवेदनशील मसला है और यदि भारत अमेरिका, यूरोप तथा एशिया में जापान जैसे देशों के साथ मिलकर सक्रिय होता है तो यह चीन की आक्रामकता का माकूल प्रत्युत्तर होगा। देखना है आगे क्या होता है। अमेरिका का हालिया बयान है कि वह क्वाड देशों के बीच कोविड के विरुद्ध हर प्रकार की मदद करेगा। अमेरिका को भी पता है कि छोटे छोटे देश जब महामारी से पीड़ित होकर छटपटा रहे थे तो एकमात्र भारत ही था जिसने अपनी हैसियत के अनुरूप थोड़ी बहुत उनकी सहायता की। इस सफल कूटनीति के समानांतर चीन तेजी से कुछ अफ्रीकी और पूर्वी एशियाई देशों को कोविड-19 में सहायता प्रदान करने की कोशिश कर रहा है। चीन का सामना करने के लिए क्वाड का विस्तार जरूरी है। भारत और अमेरिका साथ मिलकर अगर इसमें यूरोपीय देशों को शामिल करें तो फिर यह ज्यादा सशक्त मंच बन सकता है

अमेरिका और भारत के बीच रक्षा सहयोग काफी आगे बढ़ चुका है और उस पर ब्लिंकन के यात्रा के दौरान भी बातचीत हुई। वि‍ज्ञप्‍ति में सैन्य अभ्यास, प्रशिक्षण, आतंकवाद विरोध,  गुप्तचर सूचनाओं के आदान-प्रदान आदि की बात की गई है। आने वाले समय में इस दिशा में और बातचीत होती रहेगी। हथियार बेचने की बात अपनी जगह है लेकिन भारत रक्षा उद्योग बढ़ाने की नीति पर काम कर रहा है। नरेंद्र मोदी सरकार की कोशिश है कि साझेदारी के साथ अमेरिकी कंपनियां यहां रक्षा सामग्रियों का उत्पादन करें। उस दिशा में अमेरिका क्या करता है या देखना होगा। द्विपक्षीय व्यापार में अमेरिका ने जिस तरह के शुल्क लगाकर अपने देश को रक्षित करने की कोशिश की हुई है उससे भारत का निर्यात काफी प्रभावित हो रहा है। इस संदर्भ में एस जयशंकर की अमेरिकी यात्रा के दौरान भी बात हुई थी और निश्चित रूप से ब्लिंकन से भी इस पर चर्चा हुई होगी। कुल मिलाकर ब्लिंकन की यात्रा भारत की दृष्टि से भी काफी सकारात्मक मानी जाएगी।

अफगानिस्तान में अमेरिका कई रूपों में सक्रिय होगा तथा वह किसी सूरत में नहीं चाहेगा कि वह चीन पाकिस्तान हाथों चला जाये तथा वे वहां प्रभाव हों एवं भारत निष्प्रभावी। यह हमारे लिए बड़ी बात है। ज्यादातर मुद्दों पर आपसी सहमति यह बताने के लिए पर्याप्त है कि आने वाले समय में दोनों देशों का सहयोग कई रूपों में ज्यादा ठोस और विस्तारित शक्ल में दिखेगा। भारत अमेरिका सहयोग और साझेदारी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को प्रभावित करने वाला साबित हो सकता है।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)

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