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मनु कथा अनंता.......!

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शैली बक्षी खड़कोतकर

“मनु, गुड नाईट बेटा ! ” मम्मा की आंखें नींद से बोझिल हैं..... 
 
“मम्मा, एक मिनिट..” मनु अपने कमरे में अधलेटा कुछ सोच रहा है और इस चिर-परिचित पुकार का सीधा मतलब है, मनु का कुछ कहना है.... 
 “मनु, कल बात करें बेटू...”
 
“ऊं..हूं...इम्पोर्टेन्ट है...”
 
“दिनभर बतियाने के बाद भी कुछ इम्पोर्टेन्ट रह जाता है ?” पापा मनु के कमरे की दीवाल घड़ी में डालने के लिए सेल लेकर आए हैं... 
 
“सार्थक है न, वो बता रहा था ....” 
 
मनु ने बोलना थोड़ा देर से शुरू किया। पहली बार जब ‘मा’ ‘पा’ के एक अक्षरी मंत्रों का उच्चारण किया तो मम्मा निहाल हो गई। तब क्या पता था कि बस इंजन लगने की देर थी, अब यह एक्सप्रेस रुकने वाली नहीं है। वाक् कला का शुभारम्भ होते ही स्पष्टता, गति और स्वर के नित नए सोपान पार किए जाने लगे। कक्षा में सस्वर कविता पाठ से लेकर तो भाषण-प्रतियोगिताओं में दक्षता सिद्ध होने लगी। अब तो वाकसिद्धता के साथ वाकपटुता में भी निपुणता प्राप्त की जा चुकी है। और इससे प्रत्यक्ष रूप से प्रतिदिन कोई प्रभावित (पापा के शब्दों में प्रताड़ित) होता है, तो वो निसंदेह मम्मा है.... 
 
मनु स्कूल से लौटता है, बमुश्किल जूते-मोजे बाहर उतारते हुए ‘मम्मा ...’ की गुहार लगाता है और मम्मा उसके स्वर से समझ जाती है कि आज का दिन कैसा रहा। दिन जैसा भी रहा हो, ‘अथ से इति’ तक सुनना मम्मा के लिए अनिवार्य है। किसी विकल्प की कोई गुंजाइश ही नहीं है। इसलिए मम्मा पहले ही पराभव स्वीकार कर शांत-भाव से पूरा मनु-पुराण सुन लेती है। 
 
पापा अमूमन बच निकलते हैं पर कभी-कभी उन्हें भी श्रोता की भूमिका में आना पड़ता है। 
 
“पापा, मैं स्कूल पहुंचा ही था कि ...”
 
“क्यों, स्कूल पहुंचने तक रास्ते में कुछ नहीं हुआ? सोच यार, शुरू से शुरू कर.”
 
“पापा, आप मेरा मज़ाक उड़ा रहे हो, आइ एम सिरियस.....सुनो...”
 
लेकिन मनु की अविराम गाथा सुनने के लिए जिस असाधारण धैर्य की आवश्यकता होती है, वह सबके बस की बात नहीं. मम्मा के लिए तो कई बार घटनाओं का पुनर्वाचन होता है, विशेष टिप्पणियों के साथ। नतीजन मम्मा को मनु के सारे साथियों, शिक्षकों के नाम ही नहीं, उनके गुण, विशेषताएं, उनसे जुड़ीं घटनाएं संदर्भ-प्रसंग सहित याद हैं। 
 
वैसे मनु अपनी इस ‘कला’ में निखार लाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है ताकि मम्मा बोर न हो। और इस तरह स्वर के उतार-चढ़ाव, भाव-भंगिमाओं और बैक ग्राउंड म्यूजिक के साथ 2 मिनिट का वाकया 10 मिनिट तक खींच जाता है। कई बार मम्मा उसे टोकना चाहती है, ‘मनु, जरा शार्ट कट में बता दो न’ पर मनु के प्रवाह के बीच ‘हूं’ ‘हां’ ‘अच्छा’ ही कहने का मौका मिल पता है। 
 
अनुभवी विशेषज्ञ के तौर पर मनु के मामा के उद्गार, “इसके लिए क्रोमोजोम्स जिम्मेदार है, जो उसे मम्मा से मिले हैं। यह भी तो बचपन से अपनी मां से जाने क्या बतिया रही है, अभी तक गिटपिट चल रही है.” फिर पापा के वचन, “ याद करो....इत्ता-सा बच्चा घर आता, चाहे खेल कर, स्कूल से या बर्थ-डे पार्टी से, तुम उससे कितने सवाल पूछती.... क्या किया? किसके साथ बैठे? किसने क्या कहा?....मनु को सविस्तार वर्णन की आदत तो तुमने लगाई, अब उस बिचारे का क्या दोष?” लो...तो सारा कसूर मम्मा का है। वैसे बात तो दोनों की गलत नहीं है पर अभी पढ़ाई का समय है और इसका ध्यान बतियाने में और चुटकुले गढ़ने में लगा रहता है। हां, बाहर जरुर मनु का व्यवहार सीमित होता जा रहा है, अनंत की तरह। 
 
“कल स्कूल में कुछ हुआ क्या? अनंत का किसी से झगड़ा या टीचर ने कुछ कहा, जरा मनु से पूछो न.”
 
“हां, पर अनंत ने क्या बताया?”
 
“अरे, वही तो रोना है, आजकल अनंत कुछ शेयर ही नहीं करता है. स्कूल से आया है, तब से मूड ख़राब है, पर पूछो तो ‘कोई बात नहीं’ कह कर टाल जाता है। 
 
अनंत की मम्मी खासी चिंतित हैं। क्यों न हो, आजकल कैसी-कैसी खबरे सुनने को मिलती हैं। 
 
“एक बात पूछूं , आप मनु को कैसे मोटिवेट करती हैं, शेयर करने के लिए?” 
 
मम्मा को हंसी छूट गई. क्या कहें, यह मामला कुछ हद तक तो जेनेटिक है( सौजन्य – मनु के मामा), कुछ मम्मा द्वारा प्रेरित है (बकौल पापा) और कुछ स्वभावगत है.  
 
फिर भी यह बात तो है कि मनु घर में बेझिझक सब कुछ कह लेता है। खासकर रात को सोने से पहले का समय सीक्रेट शेयरिंग का रहा है। मन में कैसी भी उथल-पुथल हो, सवाल हो या उसे किसी भी बात से चोट पहुंची हो, वह दिल खोलकर कह लेता है। विषय चाहे टीनएज में हो रहे परिवर्तन हो या मन की कोई उलझन। 
 
ओह, तो मनु की नॉन-स्टॉप बड़बड़ इतनी बेमतलब भी नहीं। यह झरने का निश्छल प्रवाह है, जिसमें जीवन में रुकावट लाने वाले सारे तत्व बह जाते हैं। वरना रुके पानी में ही तो सड़ांध पैदा होती है। मनोविशेषज्ञ आज नाजुक उम्र की सभी समस्याओं के लिए खुले और मजबूत संवाद सेतु की वकालत करते हैं पर मनु और मम्मा के बीच तो यह अत्यंत स्वाभाविक तौर पर होता गया। इसके लिए कुछ भी अतिरिक्त किया हो, ऐसा नहीं। यह बेहद धीमी प्रक्रिया है, जो दिन पर दिन, क्षण-प्रतिक्षण पल्लवित हुई है। मम्मा और मनु की नानू के बीच भी ऐसा ही रिश्ता रहा है। सहेलियां आश्चर्य करतीं, 'तुमने यह भी मम्मी को बता दिया?' और मम्मा गर्व से कहती, “मेरी मम्मी मेरी बेस्ट फ्रेंड हैं.” मनु भी अक्सर यही कहता है। मम्मा को याद आया, एक बार एक फंक्शन में गेम रखा गया था, जिसमें मांओं से उनकी बेटियों से संबंधित सवाल पूछे गए थे और नानू ने हर सवाल का सही जवाब दिया था। सारे लोग हैरान थे। तब नानू ने स्टेज पर कहा था, “हमारे बीच भरोसे का रिश्ता है. यह भरोसा ही बच्चों को सच बोलने का साहस देता है।”
 
अनंत और उसके जैसे अनेक बच्चों को घर में यह भरोसा ही शायद न मिल पता हो। बड़े होते बच्चे, खास तौर पर लड़के अपने दायरों में सिमटने लगते हैं। बिना उनकी इच्छा के बगैर कोई उनकी दुनिया में प्रवेश नहीं कर सकता है, माता-पिता भी नहीं। ऐसे में शंकाएं जन्म लेती हैं, सवाल खड़े होते हैं और भरोसा दरकने लगता है। 
 
मम्मा ने एक क्षण को कल्पना की, मनु कभी ऐसा ही चुप्पा हो जाए, कुछ बताए ही नहीं तो......? नहीं...नहीं... सोचकर ही घुटन सी होने लगी है। 
 
“मनु, अनंत को कुछ हुआ है क्या, गुमसुम-सा लग रहा था आज.”
 
“अरे, मैंने बताया नहीं क्या आपको? कैसे भूल गया! पंगा हुआ है .....”
 
मनु कथा शुरू हो चुकी है और मम्मा शांत चित्त से सुन रही है। आखिर यही मनु की दुनिया का गेटपास जो है। 

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