Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

हे स्वर्णपुरुष ! मैं नित करती हूं तुम्हारा इंतजार

हमें फॉलो करें हे स्वर्णपुरुष ! मैं नित करती हूं तुम्हारा इंतजार
webdunia

सीमा व्यास

पौ फटते ही देह घर की चारदीवारी का घेरा छोड़ उस दिशा में दौड़ लगा देती है, जहां से खुला आसमान साफ-साफ नजर आता है। अधीर नयन स्वत: ही दसों दिशाओं में से दिनमणि के आगमन की पूरब दिशा को चुन लेते हैं और स्वर्ण रथ पर सवार होकर आने वाले सविता देवता की अगवानी करने टकटकी लगाकर बैठ जाते हैं।

तम को हरती हल्की उजास दस्तक दे चुकी है। आसमान में झुंड के झुंड पक्षी कलरव करते हुए उषा के आगमन की सूचना चहुंओर देने लगते हैं। रक्तिम आभा लिए बादलों के छोटे-छोटे समूह दौड़-दौड़कर यूं तनने लगते हैं मानो आदित्य के आगमन के लिए शामियाना बांध रहे हों। मंद बहती पवन प्रकृति के कण-कण को अंशुमाली के शुभ आगमन की सूचना देने को लालायित हो उठती है।

वृक्ष, लताएं, पुष्प और पल्लव आदि सुगंध बिखेरकर तिग्मांशु के दर्शन के उत्साह में कुछ और खिल जाते हैं। चारों ओर उत्सव का माहौल। भीनी लालिमा, भीना उजास, भीनी पवन,  भीना खग स्वर, भीनी सुगंध। मेघ समूह कुछ और रक्तिम हो, तनकर द्वारपाल बन प्राची से भास्वान के आने का स्थान तय कर देते हैं।

अहा! अप्रतिम दृश्य। अर्क अभी प्रगट नहीं हुए हैं। नयन अधीरता से एकटक पूर्व दिशा की ओर देख रहे हैं। कुछ क्षणोपरांत ही अस्ताचलगामी अपनी दिवस यात्रा आरंभ करते हुए नारंगी आभा के साथ आकाश के भाल पर गोल टीका लगाते हुए दर्शन देते हैं। आसमां की थाली में रखे मोतीचूर के लड्डू की भांति मीठा रूप। क्या इसी रूप के लोभ में बाल हनुमान जी ने सूर्यदेव को मुख में लेने का साहस कर लिया था?

सौर ग्रह के महाराजा का तप्त रूप दपदपाने लगता है। भानु के दैदीप्यमान स्वरूप से साक्षात्कार होते ही सारी सृष्टि स्थिर हो जाती है। पवन स्थिर, तरु स्थिर, नदी स्थिर, ताल स्थिर, बेल स्थिर, धान स्थिर, गान स्थिर,चाल स्थिर, सुगंध स्थिर, गति स्थिर, दृष्टि स्थिर, सृष्टि स्थिर, धरती अंबर स्थिर।

रक्ताभ वृत्ताकार दिवाकर की मुस्कान धरा तक आते ही जड़ चैतन्य हो उठते हैं। एकाग्रचित्त से सूर्यदेव को निहार रहे नयन नत हो जाते हैं। जड़वत शरीर से दोनों हाथ स्वमेव उठकर हृदय के समक्ष जुड़ जाते हैं और ओंठ उच्चारित करते हैं," आदिदेव नमस्तुभ्यम् प्रसीद मम भास्कर, दिवाकर नमस्तुभ्यम् प्रभाकर नमोस्तुते।"
सूर्याष्टक पूर्ण होते ही नयन खुलें तब तक दिनकांत की गोद से छूटकर चंचल किरणें गोद से छूटे बच्चे की भांति धरा की ओर दौड़ लगा देती हैं। क्षण भर में ही रश्मि किरणें पर्वत,पठार, घाटी, पगडंडी, नदी, झरने, ताल-तलैया, सागर-मैदान, खेत-बाग, वृक्ष-लता सब पर बिखरकर धरती को उजास से भर देती हैं। ज्यों बिखर गई हो मोतियों से भरी थैली या कि धरा पर उतर आई हो शिवजटा से गंगधार। श्वेत...निर्मल.. उज्ज्वल। चहुंओर उजास। तिमिर का कोई स्थान नहीं अब।

विवस्वान की ऊर्जा धरती को चैतन्य कर देती है। तृण से लेकर वन तक, जीव से लेकर जगत तक, बूंद से लेकर सागर तक, सभी में ऊष्मा का प्रवाह आरंभ हो जाता है। धरा का पोर-पोर ऊष्मा महसूसता है। गुनगुनी होती धरा गुनगुना उठती है। नवपल्लव अंगड़ाई ले सीधे तनने लगते हैं। पुष्प पूरे खिलकर सौन्दर्य और सुगंध बिखेरने लगते हैं। कलियां अपना रूप तलाशने लगती हैं। विहग गान थम जाता है,पंछी दाने-तिनके की तलाश में निकल पड़ते हैं। बीजों में अंकुरण होता है और फलों में पक्वन। नमी सूखने लगती है। धान्य पककर स्वर्ण रूप लेने लगता है। रोग-रोगाणु मरने लगते हैं। स्वास्थ्य किरणें जीवन देने लगती हैं।

यात्रा कर सिर पर आते सूर्यदेव समंदर के जल को पुकारते हैं, चलो आओ, बारिश के लिए थोड़े बादल बना लें। वरना अन्नदाता की आस पूरी न हो सकेगी।

कहते हैं, सूर्यदेव साक्षात देव हैं, जो दिखाई देते हैं। वे सौरमंडल के सबसे बड़े तारे हैं, इतने बड़े जिसमें 13 लाख पृथ्वी समा सकती है। तभी तो, धरती पर एक दिन तरणि उदय न हों तो पूरी धरा हिम बन जाए। रक्त हिम,श्वास हिम। जल हिम,वायु हिम। सब जम जाएगा तो गति कहां होगी? गति नहीं तो जीवन नहीं। ओह ! जीना तो है,हर दिन,हर पल। गतिमान रहना है हमें देव, गतिहीन कदापि नहीं।

संध्या को दिवस अवसान का समय समीप आता है। भास्वान अपनी यात्रा कर पश्चिम के छोर पर पहुंच चुके हैं। आसमान में छोटे-छोटे बादल एकत्र हो विदा करने पहुंच रहे हैं। उनमें झांकती किरणों के बिंब से ऐसी छवि दिखाई देती है मानो अस्त होते सविता देवता के समक्ष मोहन भोग का थाल रख दिया हो।

आसमान की पुकार सुनते ही किरणें पुनः पिता की गोद में सिमट जाती हैं। सूर्य रश्मियां एकत्र होते ही देव पुनः स्वर्ण गोले के रूप में आ जाते हैं, बिलकुल प्रात:काल की भांति। क्षितिज में डूबते उस नारंगी वृत्त में दिव्य तेज धरे पतंग से विदा लेते हुए मैं कह उठती हूं," हे स्वर्ण पुरुष! कल पुनः आना। मैं नित करती हूं तुम्हारा इंतज़ार।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

आज है वर्ल्‍ड स्‍लीप डे, क्‍या है इतिहास और क्‍यों मनाया जाता है?