वो इमरजेंसी का दौर था और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की स्कूल जाने की उम्र थी। एक दिन देवेंद्र फडणवीस ने स्कूल जाने से मना कर दिया। जब उनसे कारण पूछा गया तो उन्होंने कहा था कि मैं उस स्कूल में पढाई नहीं करुंगा, जिसके नाम में इंदिरा गांधी का भी नाम शामिल हो।
दरअसल, देवेंद्र फडणवीस जिस स्कूल में जाते थे, उसका नाम इंदिरा गांधी कॉन्वेट स्कूल था। पिता गंगाधर जनसंघ के सदस्य थे और इमरजेंसी में सरकार का विरोध करने पर उन्हें जेल में डाल दिया गया था। जाहिर तौर पर वे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपने पिता के जेल जाने के पीछे जिम्मेदार मानते थे।
यह घटना महाराष्ट्र के सीएम रह चुके देवेंद्र फडणवीस की राजनीतिक सफर का बीज थी। इस छोटे से विरोध के साथ सौम्य और साफ-सुथरी राजनीति का एक प्रारंभ। राजनीति की इसी सीधी रेखा का पालन करते हुए युवा मोर्चा में कई पदों और नागपुर के मेयर और फिर राज्य के मुख्यमंत्री तक बने।
दूसरी बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बनने पर उनका कद काफी ऊंचा होने वाला था, लेकिन 23 नवंबर की आधी रात के अंधेरे में वे इस माया महाठगिनी का बहुत आसानी से शिकार हो गए और राजनीतिक हेर-फेर के रसातल में जा गिरे।
ऐसा नहीं है कि अब तक कि राजनीति में उन्होंने कोई समीकरण नहीं बनाए होंगे और जोड़तोड़ नहीं की होगी, लेकिन बहुत मोटे तौर पर उनकी राजनीतिक राह बहुत सीधी और सरल ही रही है। लेकिन इस बार संख्या बल की कमी को उन्होंने नजरअंदाज कर दिया। वे अपनी ही पार्टी के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी की हार की स्वीकृति वाला वो उदाहरण भूल गए जब साल 1996 में मई की दोपहरी में अटलजी ने संख्या की ताकत के सामने झुकते हुए इस्तीफा दे दिया था। तब फ्लोर टेस्ट में सिर्फ एक वोट से अटल जी की सरकार गिर गई थी।
महाराष्ट्र के ताजा घटनाक्रम में देवेंद्र फडणवीस के साथ बहुत सारी चीजें एक साथ हुईं। वे राजनीतिक उतावलेपन का शिकार हुए और उन्होंने एनसीपी घराने के सदस्य और शरद पवार के सिपाहसालार अजीत पवार पर अतिरेक में भरोसा किया। भले ही अखबारों में ग्राउंड रिपोर्ट प्रकाशित होती रही हो कि अजीत पवार ने शरद पवार को बायपास किया और देवेंद्र फडणवीस के साथ मिलकर उप-मुख्यमंत्री बन गए और यह एक राजनीतिक भूल थी और अब अजीत पवार सुबह के भूले की तरह शाम को घर लौट आए हैं, यहां तक कि शरद पवार ने उन्हें माफ कर दिया है। क्या यह इतनी छोटी भूल थी जो अजीत पवार से हो गई और फिर आसानी से सुधार भी ली गई।
दरअसल यह राजनीति का ‘शरद पवार ट्रैप’ था। जसिमें इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इसमें खुद फडणवीस की भाजपा पार्टी के लोग शामिल न हों। पहले तो 80 घंटे की देवेंद्र सरकार के कार्यकाल के दौरान शरद पवार के हावभाव और प्रतिक्रियाओं पर नजर डालिए। वे बिल्कुल निश्चिंत और अपने तय जैस्चर में नजर आते हैं, न ही उन्होंने अजीत पवार को पार्टी से निकाला और न ही कोई ऐसा सख्त लहजा अपनाया जिसकी बाद में भरपाई न हो सके।
एक तय स्क्रिप्ट की तरह अजीत पवार गए और बेहद आसानी से देवेंद्र फडणवीस को ट्रैप में छोड़कर वापस लौट आए। अगर ऐसा नहीं था तो विधायकों का संख्या बल इतनी आसानी से फिर से एनसीपी के खेमे में आकर सोनिया गांधी की कसमें खाने के लिए कैसे एक ही रात में राजी हो गया।
दूसरा क्यों और कैसे देवेंद्र फडणवीस को उनकी पार्टी के सदस्यों ने इस ट्रैप में फंस जाने से नहीं बचाया। याद कीजिए कुछ वक्त पहले देवेंद्र फणडवीस ने वरिष्ठ नेता एकनाथ खडसे को मंत्रि मंडल से बाहर कर दिया था। यहां तक कि उन्हें विधानसभा चुनाव में टिकट देने से भी मना कर दिया था। बाद में आधे मन से उनकी बहू रक्षा खडसे को टिकट दिया गया था जो हार गईं थीं। खडसे खेमे को आज भी यही लगता है कि उनकी बहू की इस हार में देवेंद्र फडणवीस का हाथ है।
गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे महाराष्ट्र की राजनीति में महत्वकांक्षी रहीं हैं, उनके बारे यह भी उड़ाया जाता रहा है कि वे सीएम बनने का स्वप्न देख रही हैं, लेकिन अपने क्षेत्र परली में वे अपने ही चचेरे भाई से हार गईं थीं, इस हार के बाद देवेंद्र फडणवीस को संशय की निगाहों से से देखा जाता है।
अप्रत्यक्ष रूप से खडसे और मुंडे परिवारों से देवेंद्र की इन वजहों से यह दूरी तो नजर आती ही रही है। जाहिर है दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने पर देवेंद्र फडणवीस का कद केंद्र की राजनीति में भी अपने होने के अर्थ खंगालता। इन सबके बीच जो सबसे बड़ा सवाल है वह यह है कि साल 2014 से शरु हुई नई राजनीति के चाणक्य अमित शाह के रहते हुए कैसे देवेंद्र फडणवीस शरद पवार ट्रैप का शिकार हो सकते हैं?
कहते हैं राजनीति में कोई भी स्थाई दोस्त नहीं होता और न ही कोई स्थाई दुश्मन होता है। कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना की नई सरकार ने इस विचार को पूरी तरह पुख्ता कर दिया है, लेकिन राजनीति इस हद तक भी की जा सकती है, इसकी उम्मीद किसी को नहीं थी।