इंदौर में आतिशबाजी : आखिर इस मर्ज की दवा क्या है?

डॉ. छाया मंगल मिश्र
Indore 5 April 2020


हम लोग, हमारा आचरण, हमारा अति उत्साह, हमारी बुद्धि, हमारी संवेदनशीलता, हमारा मनुष्यत्व सभी कुछ शोध का विषय होता जा रहा है। कल 5 अप्रैल 2020 के  प्रकाशोत्सव की आड़ में कुछ लोगों की मूढ़ता ने फिर हमें इंसानियत के कटघरे में खड़ा किया है?
 
हम इतने निष्ठुर और स्वार्थी हो गए हैं कि प्रार्थना को उत्सव समझने लगे? लोगों के घरों में राशन-पानी की दिक्कतें हो रही हैं, वहीं हमारे घरों से आतिशबाजी के सामान निकल आए? 'अति सर्वत्र वर्जयेत्'। किसी भी चीज की अति हमेशा हानि का कारण बनती है। प्रार्थना के लिए जो हाथ उठने थे, वो बारूद को आग लगा रहे थे? हाथ नहीं कांपे? कांपते भी कैसे? संयम का जो अभाव है। संयम का पाठ जो नहीं पढ़ा है। जानते नहीं ये बेवकूफ कि संयम ही संस्कृति का मूल है।
 
'चऊव्विहे संजमे- मणसंजमे, वईसंजमे, कायसंजमे, उवगरणसंजमे'। (स्थानांग-4/2)। संयम के 4 रूप होते हैं- मन का संयम, वचन का संयम, देह का संयम, उपाधि सामग्री का संयम। और हम सभी एक-एक कर के इनसे किनारा करते जा रहे हैं जबकि संयम और परिश्रम ही इंसान के 2 सर्वोत्तम चिकित्सक हैं।
 
स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा था- 'नाव जल में रहे, लेकिन जल नाव में नहीं रहना चाहिए। पर यहां तो हम जल भी अपनी नाव में खुद ही भर रहे हैं और वो भी अपनी नाव में खुद ही छेद कर-कर के। धिक्कार है उन्हें, जो मर्म समझे बिना अनुसरण कर रहे हैं।
 
खुद तो जड़मति सिद्ध हो ही रहे हैं, साथ में पूरे शहर व देश को भी बट्टा लगा रहे हैं। क्यों नहीं समझ पा रहे कि यह 'एक युद्ध है, अपने ही विरुद्ध'। इसमें दुश्मन कोई दूसरा नहीं है और इसमें संयमी और सच्चे आचरण वाला व्यक्ति निश्चित ही विजयी होगा। पहले हम तो संयमित हों तभी दूसरों को उपदेश दें।
 
'वशी वशं नयासा एकज त्वं'- अथर्ववेद में कहा गया है- सर्वप्रथम तू अपने आपको वश में कर, संयमित कर तभी तू दूसरों को वश में कर सकेगा। हम रामायण पूजते हैं। रामायण के नायक मर्यादा पुरुषोत्तम राम के गुणों का बखान करते नहीं अघाते। पर अनुसरण करने में कभी रामाचरण याद नहीं आता। क्यों भूल जाते हैं हम अपनी सभ्यता?
 
हमारी सभ्यता की जान यह है कि हम अपने तमाम निजी और सार्वजनिक कामों में नैतिकता को प्रधानता देते हैं। पर यहां तो नैतिकता का हमने गला ही घोंट दिया है। जो सभ्यता गरीबों के मुंह का निवाला छीनने, लोगों के दु:ख और तकलीफ के समय जश्न मनाने का भाव पैदा करे, जनसाधारण की सोच व बुद्धि को जंग लगा दे, संवेदनाओं को ग्रहण लगा दे, जीने के लिए संघर्ष कर रहे इंसानों के दर्द से बेखबर हो संवेदनाओं को अपनी मुट्ठी से क्रूरतापूर्वक मसल दे, वो सभ्यता राक्षसी नहीं तो और क्या कहलाएगी?
 
जिस सभ्यता का स्पिरिट स्वार्थ हो वह सभ्यता नहीं है, संसार के लिए अभिशाप है, समाज के लिए विपत्ति है। याद रखना चाहिए कि इंसान की तरह राष्ट्र भी जीवित रहते हैं और मरते हैं, किंतु सभ्यता का कभी पतन नहीं होता, कभी नहीं मरती, न नष्ट होती है।
 
हम क्यों बार-बार गलतियां कर रहे हैं? अयोध्या में रामलला का मंदिर निर्माण होने की ख़ुशी मनाने वालों पहले रामजी के आचरण को जीवन में उतारना तो सीखो। उनके जैसे संयम का पाठ तो पढ़ो। प्राणीमात्र को अभय करने के कारणों में एक संयम ही है, जो शीतगृह के समान शांतिप्रद होता है। पर जबसे यह 'कोरोना' शत्रु बनकर सामने आया है, तब से हम अपनी समझ को गिरवी रख आए हैं। हर वर्जित को करने में अपनी महानता का अनुभव कर रहे हैं।
 
रामधारी सिंह 'दिनकर' की पंक्तियां हैं, जो वर्तमान संदर्भ में याद आ रही हैं-
 
घूम रही सभ्यता दानवी, शांति-शांति करती भूतल में।
पूछे कोई भिगो रही वह, क्यों अपने विषदंत गरल में।
 
जब हम ऐसी किसी घटना/दुर्घटना के साक्षी बनते हैं, तब हमारा मन इस दुष्कर्म के आगे भय से सिकुड़ जाता है। आज की सभ्यता दु:शासन की तरह संयम का चीरहरण करना चाहती है। सभ्यता की वास्तविक परीक्षा देश की जनगणना या नगरों की रूपरेखा अथवा फसल से नहीं होती, वरन किस प्रकार के इंसान राष्ट्र पैदा करता है इससे होती है और हम इंदौरी तो इनकी मिसाल हैं।
 
ये जो मुट्ठीभर लोगों की नादानियों ने कलंक लगवाया है, न वो भले ही लम्हों का रहा हो, पर इसको धोने में सदियां लगेंगी। बापू भी कहते हैं- 'भारतीय सभ्यता आस्तिक है। हिन्दुस्तान के हितैषियों को चाहिए कि इस बात को समझकर उसी श्रद्धा के साथ भारतीय सभ्यता से चिपटे रहें जिस तरह कि बच्चा अपनी मां की छाती से चिपटा रहता है।'
 
मनु स्मृति में भी कहा है- 'सुखार्थी संयमो भवेत्' अर्थात सुख की इच्छा रखने वालों को हमेशा संयम से रहना चाहिए। वरना कालचक्र अपनी पूरी गति से घूम रहा है। कर्मों का फल अवश्य मिलता है। समय किसी को माफ़ नहीं करता। कल को हम, हमारे लोग भी उस कष्ट के पीड़ादायक घेरे में हो सकते हैं।
 
ये कोरोनारूपी श्राप है, दोषी-निर्दोषी सबको चिपक सकता है। इसलिए असंयत प्रदर्शनों की अपेक्षा संवेगों का संयमन ही अधिक शक्तिशाली और मोहक होगा। मनुष्यता, इंसानियत, संवेदनाओं से भरपूर। तो मशीनी होते मानवों, ईश्वर द्वारा तुम्हारे अवचेतन में संवेदनाओं के फीड किए हुए ऑपरेटिंग सिस्टम को बूट करो ताकि उसका आउटपुट शहर के स्क्रीन पर प्रभावशाली रूप से झलके। और सहायक हो पुन: अपनी उज्ज्वल, संयमित, सभ्यतापूर्ण छबि बनाने में ताकि हम सिद्ध कर सकें कि हम इंसान हैं इंसानियत से सजे हुए, मन, वचन, कर्म से सभी की कल्याण की भावना से ओत-प्रोत। निखरे हुए। संवेदनशील। 

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