बाल मजदूरी से छुड़ाकर हमने जिन बच्चों को किताबें पकड़ाईं, दुनियाभर की प्रमुख हस्तियां को उन बच्चों के सम्मान में खड़े होकर तालियां बजाते देखना एक भावुक करने वाला क्षण था।
“मैं एक ऐसे समुदाय से आती हूँ जहां कभी कोई स्कूल नहीं गया। जवान-बूढ़े, बच्चे सब मजदूरी करते थे। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं स्कूल जाऊंगी। 2012 में बाल आश्रम ट्रस्ट ने हमारी बस्ती में एक स्कूल खोला और उसकी बदौलत मैं आज यहां आपके बीच हूँ। मैं अपने समुदाय से 12वीं पास करने वाली पहली लड़की हूँ। हम गरीब परिवार में जन्मे तो क्या हमें मजदूरी करनी चाहिए? इसमें हमारी क्या गलती है? क्या हमें पढ़ने-लिखने का मौका नहीं मिलना चाहिए?” अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) द्वारा बाल श्रम उन्मूलन के लिए डरबन में हुए पांचवें वैश्विक सम्मेलन की महत्वपूर्ण बैठक में तारा बंजारा ने मंच से जब ये बातें कहीं तो करीब डेढ़ दशक पुरानी बहुत सी बातें दिमाग में अचानक घूम गईं। ऐसा लगा जैसे यादों का कोई एल्बम खुल गया हो।
2001 की बात होगी। हमने बाल मित्र ग्राम बनाने शुरू किए थे। बाल मित्र ग्राम बच्चों की भागीदारी से गाँवों का विकास सुनिश्चित कराने का एक अभिनव प्रयोग है। इसका मूल मकसद है बच्चों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक अहम साझेदार बनाना और उन्हें उन विषयों से जुड़े निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदार बनाना जो बच्चों को सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं।
किसी गांव को बाल मित्र ग्राम बनाने की प्रक्रिया चार चरणों में पूरी होती है। जिस गांव को चुना जाता है सबसे पहले वहां यह सुनिश्चित किया जाता है कि उस गांव का कोई भी बच्चा मेहनत-मजदूरी में लिप्त न हो।
गांव के सभी बच्चों का स्कूलों में दाखिला कराया जाता है। फिर बच्चों के बीच चुनाव कराकर उनकी एक अपनी बाल पंचायत का गठन किया जाता है। बाल पंचायत को सरकार की चुनाव प्रक्रिया द्वारा चुनी गई वयस्कों की ग्राम पंचायत के साथ जोड़ दिया जाता है। हम ग्राम पंचायत में बच्चों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कराते हैं और गांव के प्रबुद्धजनों, जिम्मेदार लोगों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाता है कि वे ग्राम पंचायत के साथ उन बच्चों का तालमेल बेहतर बनाने में सहयोग करें और बच्चों के हितों से जुड़ा कोई भी फैसला बिना बच्चों की सहमति के न हो। इस तरह ये बच्चे अपने स्कूलों, खेल के मैदान, पार्कों या बहुत सी दूसरी चीजों पर अपनी राय रखते हैं और फैसलों में उनकी भागीदारी रहती है। इसमें ग्राम पंचायतों को एक रुपया भी अतिरिक्त खर्च नहीं करना पड़ता। प्रशासन से भी बाल मित्र ग्रामों के गठन में सहयोग मिलता रहा है।
इस प्रक्रिया के बीच हमने ग्रामीण समाज में समरसता लाने और भेदभावों को दूर करने के भी प्रयास किए हैं। इस प्रक्रिया में सक्रिय होने के बाद मैंने ग्रामीण समाज में जातीय आधार पर ऊँच-नीच की भावना या फिर धार्मिक आधार पर भेदभाव जैसी चीजें महसूस कीं। इन भेदभावों के बीच बच्चों का सर्वांगीण विकास तो संभव नहीं है। फिर मैंने गांवों में हवन कराने शुरू किए। हर जाति के लोगों को हवन में एक साथ बिठाया जाता। सब मिलकर आहुतियां डालते। शुरू में थोड़ी-बहुत आनाकानी दिखती थी लेकिन धीरे-धीरे लोगों में आपसी समझ बढ़ने लगी।
इस प्रयोग की दुनियाभर में सराहना हुई है। इस बात की खुशी है कि कई राज्य सरकारों ने भी इसमें रूचि दिखाई है और गाँवों को बच्चों के लिए सुखद बनाया जा रहा है।
बाल मित्र ग्रामों की शुरुआत के पीछे भी एक कहानी है। हमने विराटनगर में बाल आश्रम शुरू किया था। वहां अलग-अलग जगहों से मुक्त कराकर लाए गए ऐसे बच्चों को पुनर्वासित किया जाता है जिनके अभिभावक या तो बहुत प्रयासों के बाद भी मिल नहीं सके या फिर उन्होंने बच्चों को बेहतर जिंदगी देने में असमर्थता जता दी। ऐसे बच्चों के फिर से बाल श्रम में जाने या मानव दुर्व्यापार करने वालों के चंगुल में फंसने का खतरा रहता है। तो ऐसे बच्चों को हम बाल आश्रम में रखकर उनकी पढ़ाई-लिखाई, स्वास्थ्य और कुछ प्रोफेशनल ट्रेनिंग आदि की व्यवस्था करते हैं ताकि वे अपना भविष्य स्वयं गढ़ सकें। हमने पाया कि बाल मजदूरी या ट्रैफिकिंग में फंसने वाले बच्चे गरीब और अशिक्षित परिवारों के ही होते हैं और ग्रामीण पृष्ठभूमि से ही होते हैं।
हमने सोचा कि क्यों न गाँवों को ही सशक्त करने के प्रयास शुरू किए जाएं। गाँवों की आबादी सरकारी योजनाओं से जोड़े और बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रोत्साहित करें तो ट्रैफिकिंग की समस्या पर लगाम लग सकती है। प्रयोग के तौर पर हमने बाल आश्रम के आसपास के गाँवों से ही इसकी शुरुआत की। आज पूरे भारत में 849 बाल मित्र ग्राम हैं और बहुत से नए प्रस्तावित हैं।
अलवर जिले के ऐसे ही एक बाल मित्र ग्राम की ओर जाते समय मैंने पहली बार बंजारों की बस्तियां देखी थीं। रास्ते में अक्सर मुझे लंबी-चौड़ी, मजबूत कद-काठी वाली और रंग-बिरंगे आकर्षक राजस्थानी परिधानों में सजी महिलाएं दिख जाती थीं। मैं उन्हें बड़े कौतूहल से देखती लेकिन इनसे मिलने और बातचीत का कोई संयोग ही नहीं बन पा रहा था। एक दिन मैंने कुछ बच्चों को बकरियां चराते और अपने माता-पिता के साथ सड़क बनाने के काम में जुटे देखा। मैं वहाँ गई और पूछा कि बच्चों से काम क्यों करा रहे हो? उनका जवाब था कि मेहनत की आदत बचपन से लगेगी तभी तो ये बड़े होकर कुछ काम लायक बनेंगे। जब मैंने उनसे कहा कि बच्चों से मेहनत-मजदूरी कराना अपराध है, इसके लिए ठेकेदार जेल जा सकता है तो वहाँ अजीब सी खामोशी छा गई। सब ये जानकर हैरान थे कि अपने बच्चों से मजदूरी कराना अपराध कैसे हो गया और बच्चे काम नहीं करेंगे तो फिर क्या करेंगे?
मैंने कहा कि उन्हें स्कूल भेजो, उनकी उम्र अभी पढ़ने-लिखने, खेलने-कूदने की है। तब मैंने एक खास बात नोटिस की। स्कूल शब्द सुनकर वे अचंभित थे। मैंने सोचा शायद अंग्रेजी का शब्द है इसलिए वे नहीं समझ पा रहे। मैंने विद्यालय, पाठशाला वगैरह भी कहा तो उन्होंने बताया कि ऐसा नहीं है कि वे स्कूल शब्द नहीं समझते। उन्होंने किसी गाँव में स्कूल के पास की सड़क बनाई थी लेकिन उनके पूरे समुदाय से कभी कोई स्कूल ही नहीं गया था। वे यह मानकर चलते थे कि स्कूल या पढ़ाई-लिखाई उनके मतलब की चीज ही नहीं है।
साल 2012 में और जयपुर से 100 किलोमीटर तथा दिल्ली से 200 किलोमीटर दूर कोई व्यक्ति कहे कि उसके पूरे समुदाय में आज तक किसी ने पढ़ाई-लिखाई ही नहीं की है तो ये मेरे लिए स्तब्ध कर देने वाला था। बंजारा समुदाय के साथ नजदीक से मेरा पहली मुलाकात इसी तरह हुई थी। बंजारे एक घूमंतू समुदाय हैं। इनका पूरा जीवन मवेशी चराने और छोटे-मोटे औजार बनाने जैसे कामों में बीतता है। कई बार ये मानव तस्करों (ट्रैफिकर) के शिकार होकर बंधुआ मजदूरी में भी फंस जाते हैं।
संविधान में आरक्षण की व्यवस्था हो जाने भर से तो इनकी दशा नहीं सुधरेगी। इनके पढ़े-लिखे नहीं होने और इनके पास पहचान पत्र, राशन कार्ड या आधार जैसा कोई सरकारी दस्तावेज नहीं होने के कारण ये किसी सरकारी सुविधा का लाभ नहीं उठा पाते। कोरोना के दौरान बहुत से बंजारा परिवारों को सरकार की ओर से दिया जाने वाला मुफ्त राशन या दूसरी मदद नहीं मिल सकी। बाल आश्रम ट्रस्ट ने अपनी तरफ से इनके लिए मदद का इंतजाम किया।
बंजारों में शराब का प्रचलन और बाल विवाह जैसी चीजें एक सामाजिक प्रथा सी है। इन मुद्दों पर बात करने भर से वे अक्सर भड़क जाते हैं। उन्हें जागरूक करना और पढ़ाई-लिखाई के लिए तैयार करना एक मुश्किल काम था। हमने कई स्कूलों में बंजारों के बच्चों के दाखिले की कोशिश की ताकि इस तरह सरकार के किसी रिकॉर्ड में उनका नाम तो जुड़े। ऐसे बहुत से स्कूल थे जो बच्चों के लिए हमारे काम से प्रभावित थे। वे बंजारों के बच्चों को स्कूलों में दाखिला देने को तो तैयार हो गए लेकिन अब समस्या यह थी कि दस-बारह साल के बंजारा बच्चों को ककहरा भी नहीं आता था। इनका नर्सरी में एडमिशन हो नहीं सकता था और अपनी उम्र के हिसाब के क्लास के लिए ये फिट नहीं थे। इसके अलावा गाँव के लोग भी उन्हें स्वीकारने में यह कहकर नाक-भौं सिकोड़ते थे कि ये लोग गंदे रहते हैं और शराब पीकर बहुत सी आपराधिक गतिविधियों में भी शामिल होते हैं।
इस समस्या को हल करने के लिए हमने इनकी बस्तियों में बंजारा स्कूल खोलने शुरू किए। बंजारा स्कूलों के जरिए हम बच्चों को अनौपचारिक शिक्षा देकर इन्हें स्कूलों में दाखिले के लायक बनाया जाता है। उसके बाद इन बच्चों का सरकारी स्कूलों में दाखिला कराते हैं। महिलाओं को समझाया गया कि साफ-सुथरा रहने में कैसे उनका और पूरे परिवार का बड़ा फायदा है। पुरुषों की शराब की लत छुड़ाने के लिए लगातार अभियान चलाए गए। हालांकि यह सब रातों-रात नहीं हुआ लेकिन धीरे-धीरे बंजारे जागरूक होने लगे। स्कूल जाने वाले बच्चों में बदलाव देखकर उन्हें पढ़ाई-लिखाई के फायदे समझ आने लगे। आईएलओ के कॉन्फ्रेंस में दुनियाभर के नेताओं की तालियाँ बटोरने वाली तारा बंजारा, ऐसे ही एक बंजारा स्कूल में दाखिला लेने वाली उन शुरुआती बच्चों में से एक है जिन्हें हमने मजदूरी से निकालकर स्कूलों में भेजा। 17 वर्षीया तारा ने आईएलओ के मंच से आत्मविश्वास से भरकर कहा कि वह पुलिस अधिकारी बनना चाहती है और बनकर रहेगी। तारा और बाल आश्रम के सभी बच्चे मुझे माता कहते हैं। एक माँ के लिए यह गर्व से भर देने वाला क्षण था।
कौन यकीन करेगा कि डरबन में अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी में बात करके दुनियाभर में दोस्त बनाने वाला बड़कू मंराडी खेलने-कूदने की उम्र में अभ्रक की खदानों में काम किया करता था। हमने जब उसे छुड़ाया था तब वह बमुश्किल 10-12 साल का रहा होगा। हालांकि उसके बहुत से दोस्त उतने खुशकिस्मत नहीं रहे और खदानों में दबकर मर गए। आज बड़कू के पिता गर्व से सबको बताते हैं कि वह उनके गाँव और समाज का अकेला लड़का है जो अंग्रेजी में गिटपिट कर लेता है। हमने बड़कू को मजदूरी से निकालकर पढ़ने को प्रोत्साहित किया और आगे उसने जो कुछ भी हासिल किया है वह उसकी अपनी मेहनत और प्रतिभा का परिणाम है।
उसी तरह बाल श्रम मुक्त समाज निर्माण के लिए बुलंद आवाज में अपने तर्कों से डरबन में सबका दिल जीत लेने वाले राजेश जाटव और अमरलाल भी इस बात के प्रमाण हैं कि अगर हम बच्चों को उनका बचपन लौटा दें तो बदले में वे एक जिम्मेदार और समाज के लिए ठोस योगदान करने वाले नागरिक बन सकते हैं। राजेश और अमरलाल भी कभी बाल मजूदर हुआ करते थे। आज राजेश देश के प्रतिष्ठित संस्थान से एमबीए की पढ़ाई कर रहा है जबकि अमरलाल वकील बन चुका है और दिल्ली हाईकोर्ट में वंचितों और ऐसे लोगों के लिए मुकदमे लड़ता है जो वकीलों का खर्च नहीं उठा सकते।
ये बच्चे हमारे उस विश्वास को हर दिन मजबूत करते हैं कि अधिकारों, सुरक्षा और आशा को केवल शिक्षा के माध्यम से ही बहाल किया जा सकता है। इस दुनिया को बच्चे ही खुशहाल बना सकते हैं और उन बच्चों को खुशहाल, शिक्षा बना सकती है। बाल मजदूरी से छुड़ाकर हमने जिन बच्चों को किताबें पकड़ाईं, डरबन में दुनियाभर की प्रमुख हस्तियों को उन बच्चों के सम्मान में खड़े होकर तालियां बजाते देखना मेरे और सत्यार्थी जी के लिए एक भावुक करने वाला पल था। बच्चों के सपनों की हत्या से बड़ी हिंसा कोई दूसरी नहीं है। आइए हम इनके सपनों को पंख दें।