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स्वातन्त्र्य आन्दोलन के प्रेरणापुञ्ज : स्वामी विवेकानंद

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कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

अमेरिका के शिकागो में सन् १८९३ में सम्पन्न हुई 'विश्वधर्म महासभा' ने विवेकानन्द के रुप में जिस सांस्कृतिक सूर्य को समूचे विश्व के समक्ष अवतरित किया। वस्तुतः वह भारत एवं हिन्दुत्व के नवयुग का अवतरण था।
भारत एवं हिन्दुओं को पतित,अज्ञानी,मूर्ख समझने वाले आत्मश्लाघा में डूबे हुए पाश्चात्य जगत का जब विवेकानन्द के ह्रदयोद्गार के माध्यम सनातन हिन्दू धर्म-संस्कृति एवं भारत के अथाह ज्ञानकोष से साक्षात्कार हुआ,तब वे अपनी पूर्वाग्रही कटुताओं के उपरान्त भी भारत एवं हिन्दू जाति के प्रति श्रध्दा के भाव से कृतज्ञ हुए।

१८९३ से सन् १८९७ तक पाश्चात्य जगत में स्वामी जी के व्याख्यानों की अनवरत शृंखला ने युगप्रवर्तक विवेकानन्द के माध्यम से भारतीय संस्कृति की सतत प्रवहमान सलिल धारा से आप्लावित किया।
उनकी वैचारिक मेधाशक्ति तथा वात्सल्य पूर्ण, कारुणिक आत्मीयता ने समूचे भारतवर्ष के पददलितों,पीड़ित, गरीब-निराश्रित, ठुकराए हुए एवं हीन समझे जाने वाले समाज की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझकर उसके निवारण के लिए- 'दरिद्र नारायण' का मन्त्र देकर उनके उध्दार के लिए सेवा-धर्म की प्रेरणा प्रदान की। उन्होंने आत्मगौरव के साथ समस्त समाज के कल्याण एवं उन्हें सशक्त बनाने के लिए आह्वान किया।

स्वामी विवेकानन्द की दूरदृष्टि,उनके व्याख्यानों, उनके दर्शन, स्वावलम्बन, मातृभूमि से अगाध प्रेम,प्रखर जाज्वल्यमान राष्ट्रवाद व 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना ने स्वतन्त्रता के राष्ट्रीय आन्दोलन,क्रान्तिकारियों, समाजसुधारकों,लेखकों, पत्रकारों, वैज्ञानिकों को अमोघ शक्ति और सम्बल प्रदान किया। उनके आध्यात्मिकता के आह्वान, धर्म को संकीर्णताओं से उठाकर प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंच, आदर्शानुरुप आचरण व 'सर्वजन हिताय―सर्वजन सुखाय' की भावना ने सुप्त भारतीय समाज के अन्दर विचार शक्ति एवं चेतना की गर्जना से उद्वेलित कर दिया।

आपसी मतभेदों से मुक्ति और संगठन के आधार पर सशक्तिकरण ने स्वाधीनता के लिए आवश्यक ज्वाला को प्रत्येक व्यक्ति के अंदर धधकाकर हीनता को त्यागने और बलशाली बनकर भारतमाता की मुक्ति और 'स्वाधीनता ही आत्मा का संगीत' है का भाव जनमानस के अन्दर विराजित करने में सफल रहे। और यही स्वतन्त्रता आन्दोलन की अदृश्य-अद्भुत 'एकत्व' की शक्ति के रुप में प्रकट हुआ। राष्ट्रीय आन्दोलन में विवेकानन्द का व्यापक,गहरे और मर्मस्थली में सहजता के साथ बहुविधीय त्वरित और दूरगामी प्रभाव पड़ा है,जिसने भारत के स्वातन्त्र्य की पृष्ठभूमि तो तैयार ही की; साथ ही भविष्य का पथ भी प्रशस्त किया।
स्वतन्त्रता आन्दोलन से जुड़े हुए शीर्ष नेताओं के विचार सार-संक्षेप में यहां प्रस्तुत हैं जिनके माध्यम से राष्ट्रीय आन्दोलन के सम्बन्ध में स्वामीजी की अमिट छाप और उनके विचार-गङ्गा की विविध झांकियां आंखों के सामने तैरने लगती हैं।

लोकमान्य तिलक जिन्होंने विवेकानन्द को आदर्श के रुप में वरेण्य माना और स्वातन्त्र्य समर में संघर्षरत रहे वे लिखते हैं ― "सम्पूर्ण विश्व में हिन्दू धर्म अर्थात् हिन्दुओं का गौरव बढ़ाते हुए धर्म की स्थापना का कार्य स्वामी विवेकानन्द ने अपने हाथों में ले लिया था। बारह शताब्दियों पूर्व के शंकराचार्य ही एक अन्य ऐसे विराट व्यक्तित्व थे,जिन्होंने हमारे विशुद्ध धर्म के विषय में कहा कि "यह धर्म हमारी शक्ति तथा समृद्धि का मूल है,और इसे सम्पूर्ण विश्व में प्रचारित करना हमारा पवित्र कर्त्तव्य है। उन्होंने (विवेकानन्द) ने यह सब केवल कहा ही नहीं,अपितु अपने जीवन में भी कर दिखाया।स्वामी विवेकानन्द भी शंकराचार्य के ही स्तर के व्यक्ति थे।

स्वतन्त्रता के प्रमुख क्रान्तिकारी एवं बाद में सन्यास ग्रहण करने वाले महर्षि श्री अरविन्द, स्वामी विवेकानन्द के सम्बन्ध में कहते हैं― विवेकानन्द के प्रभाव को हम आज भी व्यापक स्तर पर क्रियाशील अनुभव करते हैं। हमें ठीक मालूम नहीं कि किस प्रकार और कहां,किस चीज में उसे पूरा आकार नहीं मिला है; कुछ सिंह -सदृश, महान् अन्त:प्रेरक उन्नायक वस्तु भारत की आत्मा में प्रविष्ट हो गई है।और हम कहते हैं- वह देखो! विवेकानन्द अब भी अपनी माता और उनकी सन्तानों की आत्मा में जीवित हैं।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस जब अपने छात्रजीवन में ऐसे आदर्श की खोज में भटक रहे थे,जिसे वे मन-प्राण से अङ्गीकार कर लें तो उसकी पूर्णता उन्हें विवेकानन्द में मिली। अपने सम्बन्धी के यहां से उन्होंने विवेकानन्द वाङमय उठाया और उसका अध्ययन करने पर उनके जीवन को मां! भारती के लिए सर्वस्वाहुत करने की प्रेरणा विवेकानन्द से ही मिली। उन्होंने स्वामीजी के सामाजिक सशक्तिकरण, ओजस्विता, संगठन,सेवा,धार्मिक शक्ति जैसे अन्यान्य गुणों को आत्मसात किया। उस समय की पत्रिका उद्बोधन (बंगला मासिक) में वे लिखते हैं :―
वर्तमान स्वाधीनता― "आन्दोलन की नींव स्वामीजी की वाणी पर ही आश्रित है। भारतवर्ष को यदि स्वाधीन होना है तो, तो उसमें हिन्दुत्व, या इस्लाम का प्रभुत्व होने से काम न होगा― उसे राष्ट्रीयता के आदर्श से अनुप्राणित कर विभिन्न सम्प्रदायों का सम्मिलित निवास-स्थान बनाना होगा। रामकृष्ण-विवेकानन्द का 'धर्म समन्वय' का सन्देश भारतवासियों को सम्पूर्ण ह्रदय के साथ अपनाना होगा।"

स्वामी विवेकानन्द का उज्ज्वल एवं जाज्वल्यमान व्यक्तित्व एवं कृतित्व इतना महान था कि उससे कोई भी अछूता नहीं था। महात्मा गांधी जब ६ फरवरी १९२१ को बेलूर मठ में श्रध्दाञ्जलि अर्पित करने गए थे। तब उन्होंने प्रबुद्ध भारत में लिखा- मैंने स्वामीजी के ग्रन्थ बड़े ही मनोयोग से पढ़े हैं,और इसके फलस्वरूप देश के प्रति मेरा प्रेम हजारों-गुना बढ़ गया है। युवकों से मेरा अनुरोध है कि जिस स्थान पर स्वामी विवेकानन्द ने निवास और देहत्याग किया,वहां से कुछ प्रेरणा लिए बिना,खाली हाथ मत लौटना।

लाल-बाल-पाल की त्रयी के रुप में प्रसिध्द विपिन चन्द्र पाल 'इण्डियन मिरर' के १५ फरवरी १८९८ के अङ्क की उक्ति से विवेकानन्द सम्बन्धी सार-संक्षेप में उनके विचार दृष्टिगत होते हैं- "सभी धार्मिक साधनाओं का उद्देश्य है― मनुष्य को उसकी मूलभूत दिव्यता की अनुभूति करने में सहायता करना। जब स्वामीजी ने अपने देशवासियों के प्रति मनुष्य बनने का आह्वान किया, तो वस्तुतः उनका यही तात्पर्य था।

इसी तरह डिस्कवरी ऑफ इण्डिया में देश के प्रथम प्रधानमन्त्री पं.जवाहरलाल नेहरू उनके बारे में लिखते हैं कि― वे साधारण अर्थ में कोई राजनीतिज्ञ नहीं थे; फिर भी मेरी राय में वे भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के महान् संस्थापकों में से एक थे। और आगे चलकर जिन लोगों ने उस आन्दोलन में थोड़ा या अधिक सक्रिय भाग लिया, उनमें से अनेकों ने स्वामी विवेकानन्द से प्रेरणा ग्रहण की थी। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से उन्होंने वर्तमान भारत को सशक्त रुप से प्रभावित किया था और मेरा विश्वास है कि हमारी युवा पीढ़ी स्वामी विवेकानन्द के अन्तस से प्रवहमान ज्ञान, प्रेरणा और उत्साह के स्त्रोत से लाभ उठाएगी। इतना ही नहीं उनकी बेटी पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी स्वामीजी के विषय में अपने एक उद्बोधन में रामकृष्ण मिशन एवं स्वामी विवेकानन्द साहित्य के प्रति माता-पिता का अनुराग और अपनी घनिष्ठता को व्यक्त करते हुए कहती हैं― "स्वामीजी ने हमें सिखाया है कि हम सचमुच ही एक महान संस्कृति के उत्तराधिकारी हैं। इसके साथ ही उन्होंने विश्लेषण करके बता दिया है कि हमारे राष्ट्रीय रोग के मूल कारण क्या हैं।

उन्होंने ने ही एक नवीन भारत के पुनर्निर्माण के विषय में भी हमारा मार्गदर्शन किया है। स्वामीजी ने सार्वभौमिक भ्रातृत्व का सन्देश दिया। स्वामीजी ने अपने व्याख्यानों में एक शब्द का बारम्बार प्रयोग किया है और वह है― अभी: अर्थात् निर्भयता।"

वहीं चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का मानना था कि उन्होंने भारत के आत्मगौरव की ओर भारत के नेत्र खोल दिये। उन्होंने राजनीति के लिए अध्यात्म की आधारशिला रखी। हम अन्धे थे, उन्होंने हमें दृष्टि प्रदान की। वे ही भारतीय स्वाधीनता के जनक हैं, हमारे राजनैतिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक स्वाधीनता के पिता हैं।"
इसी प्रकार विनोबा भावे उन पर अगाध श्रध्दा रखते हुए मानते थे कि 'दरिद्र नारायण शब्द' स्वामी जी ने बनाया और उसे लोकप्रिय बनाने का कार्य गांधीजी ने किया। यहां विनोबा स्वामीजी के समदर्शी होने और गांधीजी का उनसे प्रेरित होकर कार्य करने का संकेत स्पष्ट कर रहे हैं।

वहीं जयप्रकाश नारायण स्वामीजी के बारे में लिखते हैं- "उनका जीवन प्रेम और पवित्रता से परिपूर्ण था, इस जगत में उनका उदय तथा अस्त द्रुत और अचानक हुआ था। पर उनतालीस वर्ष के अपने संक्षिप्त जीवन काल में उन्होंने जनमानस में नई चेतना और नई आशा जगाने और दृढ़ प्रतिज्ञ करने की दिशा में इतना कुछ किया है कि हमें अपने महान देश के इतिहास में सम्भवतः शंकराचार्य के अतिरिक्त उनकी बराबरी का दूसरा कोई नहीं दिखता।"
देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के अनुसार 'केवल भारतवासी ही नहीं, पाश्चात्य लोग भी स्वामी विवेकानन्द के उतने ही ऋणी हैं,क्योंकि वे भावी पीढ़ियों को अपने विवेक की थाती सौंप गए।' 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक गुरुजी गोलवलकर कहते हैं- स्वामी विवेकानन्द ने हमें इन सब बातों पर विचार करने के लिए कहा और सीख दी कि समग्र मानव की सेवा ही भगवान की सेवा है,उससे मुंह मोड़ना कोई धर्म की बात नहीं है। "डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि 'भारतवर्ष में अब तक जितने महापुरुष पैदा हुए हैं,उनमे से बुध्द का स्थान सर्वोपरि है। पिछली कुछ शताब्दियों के दौरान जिन महानतम व्यक्ति का जन्म हुआ,वे थे स्वामी विवेकानन्द।

काका कालेलकर कहते हैं- स्वामी विवेकानन्द ने नवभारत का प्रबुद्ध भारत का आरम्भ किया,इसलिए मैं उन्हें सच्चा युगपुरुष कहूंगा। वहीं तमिल के प्रसिद्ध लेखक सुब्रह्मण्यम भारती का मानना था कि स्वामी विवेकानन्द ही वे व्यक्ति हैं,जिनके माध्यम से 'स्वराज' तथा स्वाधीनता के आन्दोलनों की नींव पड़ी थी। वे भारत में देशभक्ति के महान प्रेरणादाता और देशप्रेम-जागरण के क्षेत्र में विराट् मूलशक्ति थे।

स्वतन्त्रता आन्दोलन से जुड़े हुए क्रान्तिकारियों एवं स्वातन्त्र्योत्तर भारत की सत्ता के अधिष्ठान में रहे गणमान्यों के उपर्युक्त उद्धरणों से विवेकानन्द जी की स्वातन्त्र्य समर में वैचारिक भूमिका तथा प्रेरणास्रोत के रुप में उनके अवदान की सार-संक्षेप में झलक दृष्टिगत होती है। वस्तुतः स्वामीजी ने भारत के पुनर्जागरण एवं पुनरोत्थान का जो शंखनाद अपने जीवन के कालखण्ड में किया,उसकी गूंज से स्वातन्त्र्य समर के सभी आन्दोलन तो झंकृत ही हुए,बल्कि स्वातन्त्र्योत्तर भारत में भी उनका आमूलचूल प्रभाव पड़ा।

स्वामीजी के उद्बोधनों, कार्यों के दूरगामी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष परिणाम निकले जिन्होंने स्वतन्त्रता के आन्दोलन को एकसूत्रता में पिरो दिया। स्वामीजी ने भारत को जातिभेद, गरीबी, असमानता, अपमान, पाखण्ड,रुढ़ियों, अस्पृश्यता, धार्मिक पथभ्रष्टता के अन्धकार से निकालने का यत्न किया और विराट हिन्दू समाज-भारतीय समाज ने अपनी खोई हुई, सुप्त शक्ति को पहचाना तथा ऊर्जा से भरकर अपने अभियानों में लग गए। इससे जहां प्रत्यक्षतः क्रान्तिकारियों, आन्दोलनकारियों ने सीख ली और उसके अनुकरण के माध्यम से अपनी रणनीतियों का निस्पादन किया,वहीं अप्रत्यक्ष रुप में स्वामी जी की पुकार ने समूचे जनमानस के ह्रदय में आत्मगौरव का मन्त्र फूंककर उसे संगठित होने एवं राष्ट्र के लिए, धर्म के लिए, समाज के लिए स्वतन्त्रता के गतिमान होने की राह दिखलाई।

स्वामीजी समस्त भारतीयों के सहज ही रुप में आदर्श थे,और उनकी विचारशक्ति से लगभग सभी बिना किसी राग या द्वेष के प्रभावित थे जिसने विचारों के अजस्र स्त्रोत के द्वारा रोम-रोम को पुलकित एवं आन्दोलित कर दिया था। वे सभी के प्रेरणापुञ्ज थे। और यह उनकी अमिट छाप का ही कमाल था,जिसे आन्दोलनकारियों ने अपने विविध कार्यक्रमों की रुपरेखा में शामिल कर स्वतन्त्रता के लिए अपने-अपने स्तर पर महनीय प्रयास किए। तदुपरान्त सन् १९४७ माता की परतन्त्रता रुपी बेड़ियां कटी और मां भारती का स्वतन्त्र आकाश अपनी खोई हुई चेतना को पुनः संजोने और नया आयाम देने के लिए सतत् गतिमान है।

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