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'इम्पोर्टेड' चेहरे भाजपा को बदल रहे हैं या खुद को?

हमें फॉलो करें 'इम्पोर्टेड' चेहरे भाजपा को बदल रहे हैं या खुद को?
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श्रवण गर्ग

, शनिवार, 19 जून 2021 (14:21 IST)
ग़ैर-भाजपाई विचारधारा वाले दलों से चुनिंदा नेताओं को भाजपा में शामिल कर विपक्षी सरकारों को गिराने या चुनाव जीतने की कोशिशों पर जताई जाने वाली नाराज़गी और नज़रिए में थोड़ा-सा बदलाव कर लिया जाए तो जो चल रहा है, उसे बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है। भारतीय जनता पार्टी में सरकार के स्थायित्व को लेकर इन दिनों जैसी राजनीतिक हलचल दिखाई पड़ रही है, वैसी पहले कभी नहीं दिखाई दी। अटलजी भी अगर दल-बदल करवाकर पार्टी के सत्ता में बने रहने के मोदी-फ़ॉर्मूले पर काम कर लेते तो 2004 में उनकी सरकार न सिर्फ़ फिर से क़ायम हो जाती, 10 साल और बनी रहती।
 
नैतिक दृष्टि से इसे उचित नहीं माना जा रहा है कि भाजपा में दूसरे दलों से उन तमाम प्रतिभाओं की भर्ती की जा रही है, जो पार्टी की कट्टर हिन्दुत्ववादी छवि, उसकी सांप्रदायिक विभाजन की राजनीति और रणनीति के सार्वजनिक तौर पर निर्मम आलोचक रहे हैं। पिछले कुछ सालों में (2014 के बाद से) मनुवाद-विरोधी बसपा, संप्रदायवाद-विरोधी कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस सहित तमाम दलों के बहुतेरे लोगों के लिए भाजपा के दरवाजे खोल दिए गए और उनके गले में केसरिया दुपट्टे लटका दिए गए।
 
हाल ही में भाजपा में शामिल होने वालों में कांग्रेस के जितिन प्रसाद को गिनाया जा सकता है। सचिन पायलट रास्ते में हो सकते हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य (बसपा), ज्योतिरादित्य सिंधिया (कांग्रेस), शुभेंदु अधिकारी (तृणमूल कांग्रेस) आदि की कहानियां अब पुरानी पड़ गईं हैं। बदलती हुई स्थितियों में राजनीतिक धर्म-परिवर्तन की इन तमाम घटनाओं को भगवा चश्मों से देखना स्थगित कर कोरी आंखों से देखने का अभ्यास शुरू कर दिया 
जाना चाहिए।
 
हो यह रहा है कि बहती हुई लाशों के चित्रों को देख-देखकर शोक मनाते रहने की व्यस्तता में हम दूसरी महत्वपूर्ण घटनाओं को अपनी आंखों की पुतलियों के सामने तैरते रहने के बावजूद नहीं देख पा रहे हैं। साथ ही यह भी कि कुछ ऐसे कामों, जिनमें अपनी जान बचाना भी शामिल हो गया है, में हम इस कदर जोत दिए गए हैं कि हमें होश ही नहीं रहेगा और किसी दिन राष्ट्र के नाम एक भावुक संबोधन मात्र से नागरिकों की ज़िंदगी की दशा और देश की दिशा बदल दी जाएगी। टीका केवल कोरोना महामारी से बचने का ही लगाया जा रहा है, राजनीतिक पोलियो से बचाव का नहीं।
 
इस समय सत्ता में बैठे तमाम लोगों को एकसाथ दो मोर्चों पर लड़ना पड़ रहा है। यह अभूतपूर्व स्थिति आजादी के बाद पहली बार उपस्थित हुई है। पहला मोर्चा यह है कि देश में प्रजातंत्र के ऑक्सीजन की लगातार होती कमी के कारण हम दुनिया की उस बिरादरी में अछूत माने जा रहे हैं, जहां लोगों को खुले में सांस लेने की सुविधा और अधिकार प्राप्त हैं। इस सवाल पर दुनिया की प्रजातांत्रिक हुकूमतें सरकार के विरोध और स्पष्टीकरण के बावजूद उसे लगातार कठघरों में खड़ा कर रही है। अभिव्यक्ति की आज़ादी से लेकर मानव संसाधनों और स्वास्थ्य आदि के क्षेत्रों में हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से पायदान-दर-पायदान नीचे गिरते जा रहे हैं, उसकी शर्म से विदेशों में बसने वाले अप्रवासी भारतीय नागरिकों के सिर झुकते जा रहे हैं। हो सकता है। प्रधानमंत्री एक लंबे समय तक ह्यूस्टन जैसी किसी रैली में यह नहीं कह पाएं कि 'ऑल इज वेल इन इंडिया।'
 
सत्ताधीशों की परेशानी का दूसरा बड़ा मोर्चा यह है कि हिन्दुत्व के कट्टरवाद की बुनियाद पर नागरिकों के सांप्रदायिक विभाजन को वोटों में बदलने का मानसून अब कमजोर पड़ता जा रहा है। इसे यूं समझा जा सकता है कि हाल के विधानसभा चुनावों तक स्टार प्रचारक के तौर पर माथों पर तोके जा रहे आदित्यनाथ योगी को बंगाल और उत्तरप्रदेश के पंचायत चुनावों में पार्टी को धक्का लगते ही बदलने की चर्चाएं चलने लगीं।
 
महामारी ने जिस तरह से बिना कोई आधार कार्ड मांगे सभी धर्मों और संप्रदायों के प्राणियों को नदियों की लहरों पर उछलती-डूबती लाशों की गठरियों या राख के ढेरों में बदल दिया है, उसकी सबसे बड़ी चोट हिन्दुत्व के चुनावी एजेंडे पर पड़ी है। महामारी के साथ लोहा लेने में जर्जर जर्जर साबित हुई व्यवस्था ने संकुचित राष्ट्रवाद के नारों से लोगों के जीवन, रोज़गार और घरों को बचा पाने की निरर्थकता को कमोबेश बेनक़ाब कर दिया है।
 
मौतों के वास्तविक आंकड़ों में हुई हेराफेरी और पारस्परिक विश्वास में किए गए ग़बन ने सत्ता के शीर्ष पुरुषों के 
प्रति यक़ीन को खंडित कर उनकी लोकप्रियता के अहंकार को 38 प्रतिशत तक सीमित कर दिया है। जनता की समझ में अब आने लगा है कि उनकी समस्याओं के राष्ट्रवादी कोरोनिली इलाज का रास्ता 'ब्लू व्हेल चैलेंज' का खेल है जिसमें व्यक्ति संकट की घड़ी में अपने सत्ता-पुरुषों की तलाश करता हुआ अंत में आत्महंता बन जाता है। 
 
विभिन्न दलों की सर्वगुण संपन्न प्रतिभाओं के भाजपा में प्रवेश को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है कि पार्टी अपने अश्वमेध यज्ञ का अधूरी विजय-यात्रा में ही समापन होते देख भयभीत हो रही है। भाजपा अब अपनी आगे की यात्रा सिर्फ़ पुरानी भाजपा के भरोसे नहीं कर सकती! उसे अपनी पुरानी चालों और पुराने चेहरों को बदलना पड़ेगा। चेहरे चाहे किसी योगी के हों या साक्षी महाराज, गिरिराज सिंह, साध्वी प्राची, प्रज्ञा ठाकुर या उमा भारती के हों। इसका एक अर्थ यह भी है कि राजनीति में सत्ता का बचे रहना ज़रूरी है, व्यक्तियों का महत्व उनकी 
तात्कालिक ज़रूरत के हिसाब से निर्धारित किया जा सकता है।
 
प्रधानमंत्री को दुनिया की महाशक्तियों का नेतृत्व करना है और उसके लिए अब नए फ़्रंटलाइन चेहरों और, चाहे दिखावटी तौर पर ही सही, बदले हुए पार्टी एजेंडे की ज़रूरत है। जो कुछ चल रहा है, उसे इस तरह से भी देख सकते हैं कि बिना प्रजातांत्रिक हुए भी मोदी तो भाजपा को बदल रहे हैं, पर राहुल गांधी कांग्रेस को, मायावती और 
अखिलेश यादव बसपा-सपा को, ममता बनर्जी तृणमूल कांग्रेस को और उद्धव ठाकरे शिवसेना को अपने परिवारों की पकड़ से मुक्त करने की कोई जोखिम नहीं ले रहे हैं। यह काम काफ़ी रिस्क लेने जैसा है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया, शुभेंदु अधिकारी, हिमंत बिस्व सरमा, जितिन प्रसाद, स्वामी प्रसाद मौर्य, रीता बहुगुणा आदि बाहरी व्यक्तियों को पार्टी के तपे-तपाए और वर्षों से दरियां बिछा रहे पार्टी नेताओं को हाशियों पर धकेलते हुए महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियां सौंपने का सोचा जाए।
 
यह देखना अवश्य बाक़ी रह जाएगा कि क्या ये नए लोग चाल और चेहरों के अलावा भाजपा का 'ओरिजिनल' चरित्र भी बदल पाएंगे! वैसे जो लोग कांग्रेस आदि दलों को छोड़कर भाजपा में शामिल हो रहे हैं, वे भी तो कुछ सोच रहे होंगे कि अब किस तरह की तानाशाही में आगे का वक्त बिताना उनकी ढलती हुई उम्र और राजनीतिक ज़रूरत के हिसाब से ज़्यादा फ़ायदे का सौदा रहेगा।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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