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राष्ट्रवाद की दुखती रग पर राहुल गांधी का हाथ : भाग 2

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सुशोभित सक्तावत

, सोमवार, 21 अगस्त 2017 (12:11 IST)
जब राहुल गांधी कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देश का संविधान बदलना चाहता है, तो वे केंद्र सरकार की एक ऐसी दुखती रग पर हाथ रख देते हैं, जिसके मूल में भारतीय राष्ट्रवाद और हिंदू राष्ट्रवाद का द्वैत है।
 
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही "भारतीय संविधान" को अपनी मूल प्रेरणा मानें और समय समय पर गांधी, पटेल और आंबेडकर के प्रति आदरांजलि अर्पित करें, किंतु "नागपुर पीठ" की जिस विचारधारा से वे आते हैं, वह संविधान द्वारा निर्धारित भारत के "धर्मनिरपेक्ष गणतांत्रिक स्वरूप" के प्रति सहज नहीं है। यह एक जानी-मानी बात है। यह और बात है कि "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ" यह खुलकर कहने से परहेज़ करता है, क्योंकि संविधान के विरोध को "राष्ट्रद्रोह" की संज्ञा उसी संविधान में वर्णित प्रावधानों के आधार पर दी जा सकती है! 
 
इस्लाम का भारत की नियति पर कोई नैतिक अधिकार नहीं था, इसके बावजूद 1947 में भारत को तोड़कर "पाकिस्तान" के रूप में एक "पृथक इस्लामिक राष्ट्र" की स्थापना की गई, तो सांस्कृतिक सातत्य के इतने लंबे इतिहास के बावजूद एक "हिंदू राष्ट्र" की स्थापना क्यों नहीं की जा सकती, यह "हिंदू राष्ट्रवाद" की चिंताओं के मूल में है और "भारतीय राष्ट्रवाद" के आधुनिक प्रवर्तन से यही उसका संघर्ष भी है।
 
"भारतीय राष्ट्रवाद" और "हिंदू राष्ट्रवाद" ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और वैचारिक स्तर पर दो भिन्न धाराएं हैं! "भारतीयता" किस तरह से "हिंदुत्व" का पर्याय है, इसके पक्ष में जितने भी तर्क दिए जाएंगे, उससे यह दुविधा और बलवती ही होगी!
 
अगर "राष्ट्र" को 1940 के दशक में "औपनिवेशिकता" के अंत के बाद निर्मित परिस्थितियों में दुनिया भर में "राष्ट्र राज्यों" के उदय की परिघटना से जोड़कर नहीं देखें, तब भी तथ्य तो यही है कि 
 
भारत के संपूर्ण इतिहास से "राष्ट्र भावना" ऐसे नदारद है जैसे अमावस से प्रकाश! "राष्ट्र" यों तो पूरी दुनिया के लिए ही एक नया विचार है, भारत के लिए तो यह अस्वाभाविक भी है! 1857 से पहले भारत में "राष्ट्र भावना" के उभार का कोई एक उदाहरण ढूंढ़े से नहीं मिलता। भारतीय राष्ट्रवाद "औपनिवेशिकता" की संतान है। और हिंदू राष्ट्रवाद राजनीति में "इस्लामिक नैरेटिव" की प्रतिक्रिया।
 
"राष्ट्रीय आंदोलन" को "स्वतंत्रता संग्राम" का समानार्थी कहा जाता है। किंतु पश्चिम में शिक्षित राष्ट्रवादी नेता उसका नेतृत्व कर रहे थे। "सांस्कृतिक राष्ट्रवाद" की तो सबसे पहले क्षति हुई थी उस आंदोलन में! 
 
उससे भी पहले "सांस्कृतिक पुनर्जागरण" हिंदू धर्म की रूढ़ियों पर प्रहार कर रहा था। आज अगर राजा राममोहन रॉय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, देवेंद्रनाथ ठाकुर होते तो उन्हें "प्रच्छन्न कम्युनिस्ट" कहा जा रहा होता!
 
भगतसिंह का नाम जप करने वालों को आज यह याद नहीं रहता कि वो "कम्युनिस्ट" थे और नास्तिकता की तर्कणा रचते थे। नेहरू "कॉस्मोपोलिटन" थे। समूचा स्वतंत्रता संग्राम ही सोशलिस्ट भावना से ग्रस्त था, जिसके प्रति तत्कालीन हिंदू राष्ट्रवाद की अरुचि थी। जिस गांधी की हिंदू राष्ट्रवादी सबसे ज़्यादा आलोचना करते हैं, यह विडंबना ही है कि राष्ट्रीय आंदोलन में सबसे धर्मभीरू तो गांधी ही थे। 
 
भारत का "राष्ट्रीय आंदोलन" भारत के "सांस्कृतिक राष्ट्रवाद" का विपर्यय था। दोनों परस्पर संघर्षरत थे! आज दोनों को मिलाकर "हिंदू राष्ट्रवाद" की पंचमेल खिचड़ी पका दी जा रही है। 
 
जब राहुल गांधी कहते हैं कि संघ ने तिरंगे को तब तक सलामी नहीं दी, जब तक कि सत्ता नहीं मिल गई, तो वह झूठ बात नहीं है। संघ का अपना एक ध्वज है, अपना एक गान है, अपना एक गणवेश है, अपना एक विधान है। उसकी राजधानी दिल्ली में नहीं नागपुर है। उसी नागपुर से निकलकर आने वाले नरेंद्र मोदी जब दिल्ली की गादी पर आसीन होते हैं, तो यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि भारतीय राष्ट्रवाद और हिंदू राष्ट्रवाद में से किसका चयन वे करेंगे। 
 
प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही नरेंद्र मोदी जिस तरह से सावरकर और गोलवलकर के बजाय गांधी और आंबेडकर का नाम जप रहे हैं, उससे तो यही संकेत मिलता है कि हाल-फिलहाल तो हिंदू राष्ट्र के निर्माण की संघ की परियोजना को उन्होंने स्थगित कर रखा है।
 
भाजपा के चिंतन में धर्म या राष्ट्र : केंद्र में सत्तारूढ़ राजनीतिक विचारधारा के चिंतन के मूल में धर्म है या राष्ट्र है, यह एक ऐसा यक्षप्रश्न है, जो उसे विचलित कर सकता है। यह अकारण नहीं है कि देश के संविधान के प्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जिसके कि मानसपुत्र प्रधानमंत्री स्वयं हैं, के असहज होने की बात कहकर राहुल गांधी ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है और इस पर होने वाला विमर्श संघ के लिए बहुत सुखदायी नहीं रहने वाला है।
 
हिंदू राष्ट्रवाद और भारतीय राष्ट्रवाद के बीच जिस द्वैत की बात निरंतर की जाती रही है, उसके मूल में धर्म और राजनीति का ही द्वैत है। हिंदू राष्ट्रवादी ऊपरी तौर पर तो धर्म और राजनीति के बीच वैसी किसी दुविधा को नहीं देखते हैं और उल्टे राजनीति की भी व्याख्या "राजधर्म" की तरह करते हैं, किंतु ऐसी लफ़्फ़ाज़ी से वस्तुस्थिति बदल नहीं जाती।
 
भारतीय संविधान धर्म और राजनीति का स्पष्ट विभाजन करता है और उसका अभीष्ट है कि ये दोनों एक-दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप ना करें। विभाजन तो विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्यक्षेत्रों का भी स्पष्टत: किया गया है। मज़े की बात है कि भारतीय चेतना तो विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को भी ब्रह्मा, विष्णु, महेश की तरह देखती है!
 
प्रश्न तो यही है कि भारतीय चेतना के मूल में ही निहित इस बुद्ध‍ि-शैथिल्य का क्या करें! और दूसरे, धर्म और राजनीति का जो अलगाव स्वयं भारतीय संविधान ने किया है, और उसके प्रति हिंदू राष्ट्रवाद की जो आपत्त‍ियां हैं, उनका उन्मुक्त और अकुंठ स्वीकार करने में कौन सी दुविधा है?
 
मसलन, प्रधानमंत्री से यह पूछा जा सकता है कि भारतीय संविधान में न्यस्त पंथनिरपेक्षता की प्रतिज्ञा का उन्मूलन कर वे कब एक हिंदू राष्ट्र बनाने जा रहे हैं और अगर ऐसा नहीं है तो क्या यह मान लिया जाए कि आज वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति अधिक उत्तरदायी होने के बजाय भारतीय संघ के प्रति अधिक जवाबदेही का अनुभव करते हैं।
 
महात्मा गांधी इस बात को स्वीकार करने के लिए अंतिम समय तक तैयार नहीं थे कि धर्म और राजनीति पृथक हैं। उनका आग्रह था कि राजनीति धर्म की नैतिक बाध्यताओं से संचालित हो। गांधी के भीतर तो "वर्ण व्यवस्था" के प्रति भी एक सदाशयता दिखती है, इससे नेहरू से लेकर लोहिया तक सभी नाराज़ रहा करते थे। 
 
इतिहासकार बिपिन चंद्र ने लक्ष्य किया है कि गांधी के चरित्र में निहित "धर्मभीरूता" के कारण ही मार्क्सवादियों के लिए गांधी को स्वीकार करना हमेशा कठिन रहा और उन्होंने गांधी के महत्व को तभी जाकर स्वीकार किया, जब जीवन के अंतिम चरण में गांधी ने भी यह मान लिया था कि धर्म और राजनीति पृथक हैं।
 
वास्तव में हिंदू राष्ट्रवादियों की अनेक वैचारिक रूढ़ियों का मूल गांधी की वैचारिक रूढ़ियों में है, फिर इसको मानने में उन्हें चाहे जितना कष्ट हो। हिंदू राष्ट्रवाद का मूल संघर्ष तो नेहरू से है।
 
उन्हीं नेहरू के वंशज राहुल गांधी ने जब भारतीय राष्ट्र और हिंदू राष्ट्र या दूसरे शब्दों में कहें तो राजनीति और धर्म के बीच की दुविधा को बहस के दायरे में ला दिया है तो यह तय है कि इतिहास के पुरातत्व से कुछ असहज कर देने वाले अस्थिपंजर भी अब बरामद किए जा सकते हैं।

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