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कैसी रहेगी इस बरस बारिश ?

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राजकुमार कुम्भज

देशभर के अनेकों इलाकों में अप्रैल का महीना गर्मी का रिकॉर्डतोड़ प्रकोप लेकर आया। पिछले सात वर्षों में अप्रैल माह के दौरान इतना अधिक तेज तापमान कभी नहीं रहा। एक तरफ पशु-पक्षियों तक के प्राण झुलसाने वाली गर्मी देखी गई, तो दूसरी तरफ लू से मरने वाले भी दिखाई दिए। बढ़ते तापमान की तीव्रता का ग्राफ कहीं-कहीं तो पचास डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया, जो कि सामान्य तापमान की तुलना में जानलेवा ही रहा। समूचा अप्रैल लू के प्रकोप का शि‍कार बना रहा, पता नहीं इस बरस बारिश कैसी रहेगी ?
 
समूचे उत्तर भारत का रिकॉर्ड यही रहा कि पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, राजस्थान, जम्मू, हिमाचल प्रदेश और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के कई हिस्से लू की चपेट में आ गए और इसी दौरान दक्षिणी गुजरात, मध्य-महाराष्ट्र, विदर्भ, मध्यप्रदेश, उत्तरी तेलंगाना तथा दक्षिणी आंध्रप्रदेश भी लू-ग्रस्तता से पीड़ित होते रहे। इस बीच एक कमजोर पश्चिमी विक्षोभ जम्मू-कश्मीर की तरफ आता दिखाई तो दिया, किंतु उसके अधिक असरकारी होने के आसार बेहद कम ही साबित हुए। दरअसल बारिश नहीं होने के कारण अधिकतम तापमान में निरंतर वृद्धि हो रही है, जिसकी वजह से गर्मी अपना प्रकोप दिखा रही है। संभावना यही है कि मई का महीना भी इसी तरह निष्ठुर बना रहेगा, जब तक भारी बारिश नहीं होगी। जाहिर है कि तब तक बढ़ते तापमान में भी गिरावट नहीं होगी। फिर भी इतना तो तय है कि बारिश तो होगी, लेकिन कितनी होगी, यह रहस्य बना रहेगा।
 
सबसे दुःखद खबर यह है कि जयपुर की मानसागर झील और नैनीताल की नैनी झील सहित देष की कई प्रसिद्ध झीलें अप्रैल माह में ही सूखने के कगार पर पहुंच गई। देश के कई तालाब और बांध सूखे की चपेट में आ गए। कुंओं का पानी या तो सूख गया है या सतह छू रहा है। पीने के पानी का संकट गहराता जा रहा है। पानी की स्थिति बेहद विकट हो गई है। यह खतरा प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन, वनक्षेत्रों की कटाई और विकास की नई-नई तकनीकों के कारण पैदा हुआ है। हमारे जीवन की तथाकथित आधुनिक-शैली भी इस खतरे को बढ़ा रही है। इस सबसे विश्व का सकल उत्पाद (जी.डी.पी.) भी प्रभावित हो रहा है। 
 
184 देशों पर जलवायु-परिवर्तन के आर्थिक असर का आकलन करने वाली विकासशील देशों की एक अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु-परिवर्तन के कारण विष्व की जी.डी.पी. में प्रतिवर्ष बारह सौ खरब डॉलर की कमी हो रही है। अगर हालात यही रहे तो जी.डी.पी. की गिरावट का आंकड़ा सदी के अंत तक दस फीसदी को पार कर जाएगा, जो कि अभी 1.6 फीसदी (यानी बारह सौ खरब डॉलर) है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक धरती के तापमान में अगर एक डिग्री सेल्सियस भी बढ़ोतरी दर्ज होती है, तो कृषि उत्पादन में दस फीसदी तक की गिरावट आती है। अगर यहां बांग्लादेश का उदाहरण लिया जाए, तो वर्ष 2030 तक उसके कुल खाद्यान्न उत्पादन में तकरीबन चालीस लाख टन की कमी हो सकती है। धरती का बढ़ता तापमान सदी के अंत तक प्रलय-दृश्य को साकार कर सकता है। कहीं अल्प-वर्षा, तो कहीं अति-वर्षा दिखाई दे सकती है।
 
अन्यथा नहीं है कि इसी सदी में यह दुनिया एक बेहद ही खतरनाक, पर्यावरण-परिवर्तन का सामना करने जा रही है और इस परिवर्तन का सबसे ज्यादा प्रभाव एशि‍याई देशों को भुगतना पड़ेगा। अगले दो सौ वर्षों में जलवायु-परिवर्तन के कारण, भारत को सर्वाधिक प्रभावित करने वाली, मानसून प्रणाली बहुत कमजोर पड़ जाएगी। इस दौरान भारत सहित तमाम दुनिया का तापमान छः डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। यहां तक कि मानसून में बारिश कम होने के कारण भी स्थितियां ज्यादा भयावह हो सकती हैं। भारत में लंबी अवधि का मानसून, जून से सितंबर के दौरान ही सक्रिय रहता है। इस बार लंबी अवधि के मानसून में, औसत 96 फीसदी बारिश का अनुमान व्यक्त किया गया है। यह एक पूर्वानुमान है, जिसमें पांच फीसदी की कमी-वृद्धि हो सकती है।
 
वर्ष 2017 के मानसून बाबद स्काईमेट ने अपने अनुमान में कहा है कि इस बार मानसून कमजोर रहेगा, जबकि एक दिन के अंतराल से आए भारतीय मौसम विभाग ने देशभर में सामान्य बारिश की भविष्यवाणी की है। इस बरस के मानसून को लेकर आए इन दो पूर्वानुमानों ने देश के वित्तीय हलकों में विपरीत प्रतिक्रियाओं को जन्म देने का काम किया है। मौसम अनुसंधान पर काम करने वाली निजी संस्था स्काईमेट ने अपनी आशंका का आधार प्रशांत महासागर की परिघटना अलनीनो को बताया है, जबकि भारतीय मौसम विभाग ने अपनी भविष्यवाणी के लिए हिन्द महासागर की परिघटना इंडियन ओशन डाइपोल को अपने विश्वास का आधार माना है।
 
विश्वास रखा जा सकता है कि प्रशांत महासागर की परिघटना अलनीनो और हिन्द महासागर की परिघटना इंडियन ओशन डाइपोल, दोनों ही परिघटनाएं अभी पूर्णतः विकसित नहीं हुई हैं। इसलिए इस बरस के मानसून को लक्ष्य की गई दोनों ही भविष्यवाणियों को फिलहाल अनुमान ही कहा जाना उचित होगा। मौसम संबंधित लघु अवधि के पूर्वानुमान वैसे देखा जाए तो पहले से अब काफी बेहतर होते जा रहे हैं, लेकिन संपूर्ण मानसून की संपूर्णता में की जाने वाली भविष्यवाणी अभी भी उतनी सटीक नहीं हुई है, जितनी कि होनी चाहिए।
 
पिछले बारह बरस के दौरान की गई मौसम आधारित भविष्यवाणियों पर नजर दौड़ाने से यह बात बिल्कुल साफ हो जाती है कि वे अधिकांशतः अनुमान आधारित ही रही हैं, क्योंकि वे, बारह में से सिर्फ पांच बार ही सही साबित हो पाईं अर्थात मौसम विज्ञान का आकलन मात्र चालीस फीसदी ही सटीक बैठा है। याद रखा जा सकता है कि मौसम संबंधित दीर्घावधि की भविष्यवाणी कमोबेश अप्रैल के तीसरे सप्ताह में जारी कर दी जाती है, जबकि मानसून इस भविष्यवाणी के ठीक एक माह बाद हिन्द महासागर में सक्रिय होने लगता है।
 
स्काईमेट ने प्रशांत महासागर की जिस परिघटना अलनीनो को अपनी आषंका का आधार बनाया है, उसे भारतीय मौसम विभाग ने अस्वीकार कर दिया है। भारत सरकार के मौसम विभाग का कहना है कि मानसून को प्रभावित करने वाले अलनीनो की संभावना बेहद क्षीण है। पहले जरूर यह पूर्वानुमान जताया गया था कि जुलाई अंत तक प्रशांत महासागर में अलनीनो विकसित हो सकता है, लेकिन नए पूर्वानुमानों के अनुसार अलनीनो बनने की संभावना अब महज तीस फीसदी तक सिमट गई है। यहां यह जान लेना जरा भी अन्यथा नहीं होगा कि आखि‍र यह अलनीनो की परिघटना होती क्या है?
 
प्रशांत महासागर में अलनीनो के पैदा होने से समुद्र की सतह गर्म हो जाती है, जिसकी वजह से हवाओं की राह और रफ्तार बदल जाती है। इस कारण मौसम-चक्र भी बुरी तरह से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है। यहां तक कि अलनीनो के कारण पैदा हुए मौसमी बदलाव से ही कई जगहों पर सूखा, तो कई जगहों पर बाढ़ का प्रकोप दिखाई देता है। वर्ष 2016 के दौरान हमारे देष में गर्मी का सर्वोच्च रिकॉर्ड 51 डिग्री सेल्सियस तक दर्ज किया जा चुका है। इतनी भीषण गर्मी की वजह से फसलों का जो नुकसान हुआ, उसका नतीजा तेरह राज्यों में किसानों की आत्महत्या में दिखाई दिया। उधर ग्लोबल वार्मिंग के कुप्रभाव से प्रभावित होकर कनाडा की तीन सौ बरस पुरानी प्रसिद्ध स्लिग्स नदी पिछले बरस मई के मात्र चार दिन में ही सूख गई। 
 
वैज्ञानिकों का कहना है कि उत्तरी गोलार्द्ध में जो अतिआक्रामक प्रदूषण हो रहा है, उससे दक्षिणी गोलार्द्ध प्रभावित हुए बिना कैसे रह सकता है ? थर्मल पॉवर प्लांट्स से निकलने वाली कार्बन डाई-ऑक्साइड और सल्फर डाई-ऑक्साइड दुनिया के कई-कई देशों सहित भारत में भी तबाही मचा रही है। इंपीरियल कॉलेज, लंदन के एक शोध में बताया गया है कि यूरोप में वायु-प्रदूषण-विस्तार के चलते यूरोप से करीब छः हजार किलोमीटर दूर स्थित भारत, वर्ष 2000 में कितने विकराल सूखे से प्रभावित हुआ था ? स्मरण रखा जा सकता है कि तब हमारे देश में एक करोड़ तीस लाख से भी कहीं ज़्यादा लोग सूखे की भयानकता के शि‍कार हुए थे।
 
भारतीय मौसम विभाग का मौसम संदर्भित पूर्वानुमान भले ही प्रसन्नतादायक कहा जा सकता है, लेकिन स्काईमेट का, सर्वेक्षण आधारित अनुमान, हमें वाकई चिंतित करने के लिए पर्याप्त है, क्योंकि देश में होने वाली सत्तर फीसदी बारिश इन्हीं चार महीनों (जून से सितंबर) के दौरान होती है। कमजोर मानसून की आशंका से चिंता इसलिए भी होती है कि हमने सूखे और कम बारिश के संकट से अभी भी कोई सबक नहीं लिया है। वाकई यह देखना बेहद दिलचस्प रहेगा कि तमाम शंकाओं और संभावनाओं के बावजूद, इस बरस बारिश कैसी रहेगी ?   

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