यह सच है कि पेट्रोल और डीजल के मूल्यों में लगातार वृद्धि आम आदमी को परेशान कर रही है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसे समय जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल मूल्य अभी भी पूर्व की अपनी उच्चतम स्तर की तुलना में काफी कम है, भारत में इसका लगातार बढ़ना लोगों को अखर रहा है। यह स्वाभाविक भी है। यह तर्क किसी के गले उतर ही नहीं सकता कि जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में भारी वृद्धि हुई ही नहीं है तो फिर भारत में लोगों को ज्यादा मूल्य क्यों चुकाने पड़ रहे हैं? आखिर वृद्धि होने का कारण क्या है? इसके पीछे अर्थशास्त्र का कौन सा सिद्धांत लागू हो रहा है? जब सरकार ने तेल की कीमत बाजार के हवाले कर दिया यानी बाजार के अनुसार इसकी कीमतें तय होंगी तो फिर यह बाजार के अनुसार है क्यों नहीं? बाजार के अनुसार निर्धारित हों तो फिर पेट्रोल 70 से 82 रुपए एवं डीजल 58 से 60 रुपए प्रति लीटर मिलने का कोई कारण ही नहीं होना चाहिए। साफ है कि सरकार का तर्क जो भी हो यह बाजार दर पर निर्धारित नहीं हो रहा है। ऐसा होता तो उपभोक्ताओं को इसका लाभ अवश्य मिलता।
16 जून 2017 से सरकार ने प्रतिदिन के आधार पर तेलों के मूल्य तय करने का सूत्र आरंभ किया। इसे तेल के क्षेत्र में बहुत बड़ा सुधार बताया गया। किंतु यह सुधार उपभोक्ताओं पर भारी पड़ रहा है। वास्तव में मूल्य हैं कि बढ़ते जा रहे हैं। दिल्ली में पेट्रोल का दाम 70.38 रुपए प्रति लीटर है जो कि पिछले तीन साल का सबसे उंचा स्तर है। डीजल के दाम हैं, 58 रुपए 72 पैसे प्रति लीटर।
पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान कह रहे हैं कि पेट्रोल और डीजल की कीमतों में वृद्धि अंतरराष्ट्रीय बाजार में हुई कीमतों में वृद्धि के कारण है। किंतु क्या यही एकमात्र सच है? इसका उत्तर है, नहीं। पिछले तीन महीने में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में 18 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। लेकिन यह भी इतना कम है कि भारत के लोगों को आसानी से सस्ता तेल दिया जा सकता है। ध्यान रखिए, एक जुलाई 2014 को अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का भाव 112 डॉलर प्रति बैरल था। उस दिन दिल्ली में पेट्रोल 73.60 रपए प्रति लीटर बिक रहा था। 13 सितंबर, 2014 को कच्चा तेल गिरकर 106 डालर प्रति बैरल पर आ गया। उस दिन पेट्रोल 68.51 रपए प्रति लीटर था। अब इस समय अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल का दाम 54 डॉलर प्रति बैरल के आसपास है। ऐसी स्थिति में पेट्रोल एवं डीजल का इतना ज्यादा दाम बढ़कर क्यों हुआ? इसका आधार क्या है? महाराष्ट्र के कई स्थानों में तो पेट्रोल का दाम 81 रूपए प्रति लीटर से भी ज्यादा है। यह स्थिति बिल्कुल अस्वीकार्य है। सच यह है कि पिछले तीन सालों के आधार पर विश्लेषण करें तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल लगभग 50 प्रतिशत सस्ता हुआ है। साफ है कि भारत में उपभोक्तओं को इसका लाभ अपने आप मिलना चाहिए था जो नहीं मिल रहा है।
इसका एक बड़ा कारण स्वयं केन्द्र की नीतियां हैं। वास्तव में नवंबर 2016 से लेकर जनवरी 2017 के बीच सरकार ने नौ बार पेट्रॉल और डीजल पर उत्पाद शुल्क बढ़ाया। पेट्रॉल पर 11 रुपए प्रति लीटर तथा डीजल पर 13.47 रुपए प्रति लीटर की वृद्धि की गई। 2016-17 में इनसे केवल उत्पाद शुल्क आय 2 लाख 42 हजार करोड़ रुपया हो गया। सरकार के आंकड़े ही कहते हैं कि पिछले तीन वर्ष में पेट्रोलियम उत्पादों से राजस्व वसूली में 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वर्ष 2014-15 में कुल राजस्व वसूली 3 लाख 32 हजार 620 करोड़ रुपए था। 2016-17 में यह बढ़कर 5 लाख 24 हजार 304 करोड़ रुपया हो गया। वर्तमान वित्त वर्ष की पहली तिमाही में ही कुल वसूली 1 लाख 24 हजार 508 करोड़ रुपया है। हालांकि धर्मेन्द्र प्रधान का यह कहना सही है कि जो शुल्क लिया जाता है वह राज्यों के विकास पर खर्च होता है। करीब 42 प्रतिशत उत्पाद शुल्क राज्यों को आधारभूत ढांचा और अन्य कल्याणकारी कार्यक्रमों के लिए दिया जाता है। किंतु इस तर्क से आप पेटरॉल और डीजल के दाम बढ़ाए नहीं रख सकते। लोगों को राहत चाहिए।
ऐसा सुधार देश को नहीं चाहिए जिससे लोगों की जेब पर अनावश्यक बोझ बढ़ता रहे। कुछ सच्चाई यहां और भी है। वस्तुतः इस वर्ष 13 जुलाई के बाद से पेट्रोल के दाम में एक बार भी कमी नहीं की गई। क्यों? पेट्रोल के दाम 13 जुलाई 2017 को दिल्ली में 63.91 रुपए थी। इसका मतलब हुआ कि पेट्रोल के दाम दो महीने में सात रुपए के करीब बढ़ गए हैं। ऐसा होने का कोई स्वाभाविक कारण नहीं है। इसी तरह डीजल के मूल्य में 29 अगस्त के बाद से कमी नहीं की गई है। दिल्ली में डीजल की कीमत 58.72 रुपए है। 31 अगस्त 2014 को इसका मूल्य 58.97 रुपए प्रति लीटर था। तो उसके बाद से यह फिर उच्चतम स्तर पर आ गया है। जाहिर है, इस स्थिति को बनाए नहीं रखा जा सकता है।
तो सवाल है कि यह स्थिति दूर कैसे होगी? इसका पहला जवाब तो केन्द्र सरकार ही दे सकती है। किंतु पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने इस संबंध में कुछ भी साफ कहने से इंकार किया है। हालांकि उन्होंने सार्वजनिक तेल कंपनियों के अधिकारियों से बैठकें की, लेकिन लगता है कोई रास्ता नहीं निकल सका। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। मूल्य वृद्धि का सबसे बड़ा कारण तेलों पर लगने वाला शुल्क माना जा रहा है। केन्द्र का उत्पाद शुल्क अलग और राज्यों के वैट अलग। केन्द्र ने अपने शुल्क में फिलहाल कटौती से इंकार किया है। तो सब कुछ राज्यों पर निर्भर है। लेकिन जब केन्द्र अपना शुल्क कम नहीं कर सकता तो वह राज्यों को ऐसा करने के लिए कैसे प्रेरित कर सकता है।
हालांकि राज्य जितना कर तेलों पर वसूलते हैं वो अति है। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र में पेट्रोल पर 47.64 प्रतिशत वैट शुल्क लगाया जाता है। आंध्रप्रदेश में 38.82 प्रतिशत, मध्यप्रदेश में 38.79 प्रतिशत, पंजाब में 36.07 प्रतिशत, केरल में 36 प्रतिशत, उत्तराखंड में 32.51 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 32.45 प्रतिशत, गुजरात में 28.96 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 28.88 प्रतिशत, दिल्ली में 27 प्रतिशत, हरियाणा में 26.25 प्रतिशत, बिहार में 26 प्रतिशत वैट शुल्क लागू है। ऐेसे ही दूसरे राज्यों के भी हालात हैं। राज्य शुल्कों में कमी की बजाय इसमें बढ़ोत्तरी ही कर रहे हैं।
दाम घटाने का एक रास्ता यही है कि केन्द्र भी उत्पाद शुल्क में कमी लाएं तथा राज्य भी अपने वैट शुल्कों में कमी करें। जब तक ऐसा नहीं होता आम धारणा यही है कि इनकी कीमतें घटना संभव नहीं। राज्यों ने तेलों को जीएसटी में लाने का विरोध किया। क्यों? क्योंकि वे पेट्रोल एवं डीजल से होने वाली कमाई छोड़ना नहीं चाहते। वे अपने अनुसार शुल्क में वृद्धि करते रहते हैं। जीएसटी में आने से उनके मूल्य देश भर में एक समान हो जाते। उससे कीमत में कमी आ जाती। किंतु राज्यों में जब इसमें सहमति नहीं है तो फिर क्या हो सकता है? तो क्या लोगों की जेब पर बढ़ते तेल मूल्यों का बोझ ऐसे ही पड़ता रहेगा? निस्संदेह, यह ऐसा प्रश्न है जिसका जवाब केन्द्र एवं राज्यों को तलाशना ही होगा। और उत्तर यही हो सकता है कि तेल मूल्य कम करने का रास्ता निकाला जाए। अब तेल कंपनियों का घाटा भी खत्म हो चुका है। इसलिए अब यह तर्क भी काम नहीं करता कि तेल कंपनियों को घाटा पूरा करना है। आज वो मुनाफा कमा रहे हैं। इसके बावजूद यदि सरकारें रास्ता नहीं निकालतीं तो फिर इसका विरोध करना ही होगा। कुल मिलाकर तेल मूल्यों में ऐसी वद्धि आज की स्थिति में बिल्कुल अतार्किक है और इसको स्वीकार करने का कोई अर्थ नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों को अब कुछ बोझ उठाने को तैयार रहना होगा। यह तभी होगा जब केन्द्र सरकार उन पर दबाव बढ़ाए। तेल कंपनियों की मनमानी खत्म होनी चाहिए।