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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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दंगल में विस्मृत राष्ट्रीय खेल संस्थान

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मनोज श्रीवास्तव

दंगल फि‍ल्म में लड़कियों को ऊपर लाने के प्रयास को बहुत सशक्त और प्रभावी तरीके से पर्दे पर दिखाया गया है। 'मेडल तो मेडल होवे है, छोरो लाए कि छोरी' - यह एक संवाद पूरी फि‍ल्म की थीम बयां करने के लिए काफी है। और इसी जद्दोजहद को हकीकत में उतारने के फलसफे को दंगल नाम दिया है, जो वाजिब है।
 

सही है कि धारा के विरुद्ध चलना और अपनी जिद पूरी करके दिखाना इस आधुनिक कालखंड में भी उतना ही कठिन है जितना की पहले के जमाने में था। चाहे कहने-सुनने को मनमाफिक अफसाने गढ़ लिए जाएं, पर अभी भी बहुत कठिन है डगर पनघट की , खासकर स्त्रियों के मसले में वही आलम हैं जो बीते जमाने के किस्सों में दर्ज है , आज भी समाज , जाति के पहाड़ इतने ऊंचे खड़े हैं कि उन्हें लांघने के लिए पग-पग पर दंगल करने की जरूरत पड़ेगी और इसी कशमकश को दंगल फि‍ल्म में दिखाने का बेजोड़ शाहकार रचा गया है।
 
फि‍ल्म में एक बात चुभती है, वो यह कि क्या नेशनल स्पोर्ट्स एकेडेमी में ऐसे कोच हो सकते हैं? इस तरह का फिल्मांकन नवागत खिलाड़ियों पर नकारात्मक असर डालता है, इसका प्रभाव उन्हें पदक की ओर न ले जाकर अधर में झुलाएगा। फर्ज कीजिए कि कोई कम उम्र का युवा प्रशिक्षण में कोच की सलाह को शंका से देखे, न की खुद की बेहतरी के लिए तो क्या रिजल्ट आने है? गीता फोगट के वास्तविक कोच श्री पी.एस सोंधी ने दंगल बायोपिक में कोच के नकारात्मक फिल्मांकन पर आपत्ति भी जाहिर की है जिसे आमिर खान ने बहुत हल्के-फुल्के ढंग से यह कहकर टाल दिया कि प्रत्येक बायोपिक में कुछ फिक्शन होता है। बात सही है पर बायोपिक में फिक्शन से यदि राष्ट्रीय खेल संस्थान की इमेज प्रभावित होती है तो यह कैसे मनोरंजक हुआ? कोच एक तरह से खेल संस्थान ही होता है, उसके बगैर किसी भी खेल संस्थान का कोई अर्थ नहीं होता।
 
यदि कोई एक व्यक्ति गलत है तो उसके कारण पूरी संस्था धराशायी नहीं की जा-सकती। फिर उनकी गलती के बदले संज्ञान संबंधी भी कोई पक्ष नहीं दिखाया गया जोकि इतनी बड़ी शीर्ष संस्था में कैसे संभव हो सकता है? श्री सोंधी ने अपना विरोध दर्शाया, पर यह सिर्फ उनका मसला नहीं है वे सिर्फ अन्य कोच की तरह एक कोच हैं जो आते-जाते रहते हैं, लेकिन खेल संस्था अपनी अलग ऊंचाई पर चिर स्थाई है और रहेगी। 
 
यह वो जगह हैं जिनमें प्रवेश का सपना देखते युवा अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार बैठे रहते हैं। उनके सपने से जुडी कोमल भावनाएं आहत न हो इस बात का ध्यान रखना हम सभी का दायित्व है ताकि विश्वास की डोर बनी रहे और ऊंचाइयां छूती रहे। खेलों के मक्का कहे जाने वाले राष्ट्रीय खेल प्रशिक्षण संस्थान में इस तरह के कोच कदापि नहीं हो सकते और न ही कभी होना चाहिए...पर अफसोस की इसका कोई विरोध प्रदर्शन देखने सुनने में नही आया, न ही कोई समय पूर्व पटकथा का विरोध फूटा ? इस बात का विरोध तो खेल मंत्रालय को भी रखना था और सेंसर बोर्ड के क्या कहने ? मासूम प्रश्न लाज़मी है कि आखिर हम अपनी युवा पीढ़ी के प्रति इतने उदासीन क्यों हैं, बनिस्बत इतिहास के किरदारों के?

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