भाजपा 6ठी बार गुजरात में सत्तासीन हुई है और यह सामान्य बात नहीं है। वह जीत का जश्न मना रही है। लेकिन कांग्रेस भी नाखुश नहीं है। वह कह रही है कि हमने संतोषजनक प्रदर्शन किया है और यह नैतिक विजय है।
चुनाव परिणाम में 'नैतिक विजय' पहली बार सुना जा रहा है। परिणाम में हार या जीत होती है। नैतिक या अनैतिक जीत-हार नहीं होती। किंतु यह कांग्रेस का विश्लेषण है और इसे उसके समर्थक स्वीकार कर रहे हैं। जिन मतदाताओं ने भाजपा को मत दिया, क्या वे अनैतिक थे और उसकी विजय अनैतिक हो गई? कांग्रेस दोनों प्रदेश हारी है यह एक तथ्य है और इसे अस्वीकार करना मूर्खों के स्वर्ग में रहने जैसा होगा।
हालांकि इससे जुड़े आंकड़ों के जो तथ्य हैं उन्हें तो स्वीकार करना ही होगा। ये आंकड़े भी बहुत कुछ कहते हैं। गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा को 2012 के मुकाबले 16 सीटों का नुकसान हुआ, उसे 99 सीटें मिलीं। इसके विपरीत कांग्रेस की सीटें 61 से बढ़कर 77 हो गईं तथा उसके सहयोगियों ने 3 सीटें पाईं। कांग्रेस इससे प्रसन्न है कि उसने भाजपा को 99 तक सीमित रहने के लिए मजबूर कर दिया और उसकी सीटें और मत प्रतिशत दोनों बढ़े। इसको किस तरह से लिया जाए यह हमारी-आपकी दृष्टि पर निर्भर करता है।
इस चुनाव परिणाम को समझने के लिए चुनाव आयोग द्वारा जारी आंकड़ों का थोड़ा गहराई से विश्लेषण करना होगा। आंकड़े केवल शुष्क अंकगणित नहीं होते, ये बहुत कुछ कहते हैं। उदाहरण के लिए भाजपा को 49.1 प्रतिशत मत मिला, जो पिछली बार की तुलना में 1.25 प्रतिशत अधिक है। इसके समानांतर कांग्रेस को 41.4 प्रतिशत मत मिला, जो पिछली बार से 2 प्रतिशत से थोड़ा ज्यादा है। कांग्रेस इससे भी संतुष्ट है कि लंबे समय से भाजपा और उसके मतों में 9 प्रतिशत से ज्यादा का अंतर रहता था जबकि इस बार 7.7 प्रतिशत तक अंतर को सिमटा दिया। कांग्रेस अपने अनुसार इसका विश्लेषण करने के लिए स्वतंत्र है।
लेकिन यह विचार करने वाली बात है कि आखिर 1.25 प्रतिशत अधिक मत पाकर भी भाजपा की सीटें क्यों घट गईं एवं 2 प्रतिशत अधिक मत पाकर भी कांग्रेस की सीटें क्यों बढ़ गईं? आखिर उनका वोट प्रतिशत बढ़ा तो कुछ सीटें भी बढ़नी चाहिए थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऐसे ही अनेक तथ्य हैं जिनका विश्लेषण किया जाना आवश्यक है।
जिस राज्य में मुख्यत: 2 पार्टियों के बीच चुनावी मुकाबला हो, वहां 2-3 प्रतिशत मतों के अंतर से परिणाम प्रभावित हो जाते हैं किंतु गुजरात में ऐसा नहीं हुआ है। आप यदि सभी सीटों में जीत-हार का अंतर देखें तो इसका कारण समझ में आ जाएगा। दरअसल, भाजपा के विजयी उम्मीदवारों में से 35 की जीत का अंतर 40,000 से मतों से ज्यादा रहा है।
भाजपा के 2 उम्मीदवार तो 1 लाख से भी ज्यादा वोटों के अंतर से जीते हैं। कांग्रेस का सिर्फ 1 उम्मीदवार ही 40,000 से ज्यादा वोटों के अंतर से जीत हासिल कर सका। हां, उसके सहयोगी छोटूभाई बसावा जरूर 48,948 मतों से जीते हैं। 99 विधानसभाओं में भाजपा की जीत का औसत अंतर 29,968 वोट है। 2012 में भाजपा की जीत का अंतर 26,236 वोट था। इसके समानांतर कांग्रेस की जीत का अंतर औसत 13,331 वोट है। यह 2012 में औसत 13,577 वोट के लगभग समान है। इस तरह भाजपा के उम्मीदवारों के पड़े मत के कारण उसके मत प्रतिशत तो बढ़ गए लेकिन उसकी सीटें घट गईं।
इस आंकड़े का दूसरा अर्थ भी स्पष्ट है। वह यह कि कांग्रेस जितना प्रसन्न हो रही है उसे वोट उसके अनुसार नहीं मिले हैं। ऐसा होता तो उसके भी अनेक उम्मीदवार भारी मतों से जीतते, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। इसका मतलब है कि कांग्रेस ने भाजपा के मतों में सेंध लगाने की कोशिश अवश्य की है, पर उसको जबरदस्त टक्कर मिली है यानी भाजपा का अभी भी गुजरात में पर्याप्त जनाधार है। अगर भाजपा के भारी मतों से विजयी 35 उम्मीदवारों से तुलना की जाए तो कांग्रेस को कहीं भी एकपक्षीय जीत नहीं मिली है। यह कांग्रेस के उत्साही समर्थकों को समझना चाहिए।
सच तो यह भी है कि कांग्रेस को सभी क्षेत्रों में सफलता नहीं मिली है। पाटीदार अनामत आंदोलन समिति (पास) से प्रभावित करीब 73 स्थान माने जाते हैं। इनमें 2012 के चुनाव में भाजपा ने 59 सीटें जीतीं थीं। इस बार वह सिर्फ 45 सीटें जीत पाई है। कांग्रेस यहां से केवल 12 सीटें जीत पाई थी। इस बार उसे 28 सीटों पर विजय मिली है। जाहिर है, जो 16 सीटें बढ़ीं, वे यहीं से हैं। केवल सौराष्ट्र और कच्छ की बातें करें तो यहां 54 सीटें हैं, इनमें से भाजपा ने पिछली बार 35 सीटें जीती थीं और इस बार वह केवल 23 सीटें जीत पाई है। इसके विपरीत कांग्रेस को 30 सीटें मिली है जबकि पिछली बार उसे केवल 16 सीटें मिली थीं।
इसका अर्थ बहुत साफ है। यह कांग्रेस का वोट नहीं है। यह हार्दिक पटेल के कारण और पटेलों के आरक्षण की मांग के पक्ष का वोट है। यहां भी कांग्रेस की जीत का अंतर ऐसा नहीं है जिससे यह कहा जाए कि सारे पटेल भाजपा के खिलाफ थे। वास्तव में कांग्रेस कोई मुगालता न पाले। पटेलों में 2 वर्ग थे। जो उम्रदराज हैं वे भाजपा के साथ थे, लेकिन आरक्षण की मांग के कारण युवाओं का बड़ा वर्ग हार्दिक के कारण कांग्रेस के पक्ष में गया। ऐसा हमेशा नहीं हो सकता है।
इस चुनाव का एक आंकड़ा यह कहता है कि भाजपा को शहरी इलाकों में अच्छे मत मिले। 4 शहरों का उदाहरण लीजिए। राजकोट की कुल 8 सीटों में से भाजपा को 6 तथा कांग्रेस को 2 मिलीं। इस तरह अहमदाबाद की 21 में से भाजपा को 15 एवं कांग्रेस को 6, सूरत की 16 में से भाजपा को 15 तथा कांग्रेस को 1 तथा वडोदरा की 10 में से भाजपा को 8 एवं कांग्रेस को 2 सीटें मिलीं। इसका क्या अर्थ है? कुल शहरी 58 सीटों के अनुसार देखें तो जहां शहरी आबादी 50 प्रतिशत से अधिक है तो भाजपा ने 48 जीत हासिल की है।
2012 में भाजपा ने 52 शहरी सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस ने केवल 6 शहरी सीटों पर कब्जा किया था। 124 ग्रामीण सीटों में भाजपा ने 51 (पिछली बार 63) और कांग्रेस ने 70 सीटें जीती हैं। 2012 में कांग्रेस ने 55 सीटें जीती थीं। इसके कई अर्थ हैं। यह माना जा रहा था कि जीएसटी एवं नोटबंदी का सबसे ज्यादा असर शहरी इलाकों में दिखेगा और व्यापारी वर्ग भाजपा के खिलाफ जाएगा। कांग्रेस की सरकार बनाने की उम्मीद इस पर भी टिकी थी। कपड़े पर 5 प्रतिशत जीएसटी लगाने के विरोध में सूरत में कपड़ा कारोबारियों ने हड़ताल की थी। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने उनकी मांगें जीएसटी परिषद में रखने का आश्वासन दिया। इसके बाद हड़ताल समाप्त कर दी गई। सरकार को जीएसटी दर में कटौती करनी पड़ी।
जो भी हो, शहरी क्षेत्रों में भाजपा की बढ़त बनी रहने का मतलब है कि व्यापारी वर्ग में यदि नाराजगी थी भी तो वह उस सीमा तक नहीं थी कि वे भाजपा और नरेन्द्र मोदी के खिलाफ प्रतिशोध की भावना से मतदान करें। यह अत्यंत ही महत्वपूर्ण निष्कर्ष है। जिस जीएसटी और नोटबंदी को आरंभ से अंत तक कांग्रेस ने बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया उसका भाजपा के प्रतिकूल असर हुआ ही नहीं।
ग्रामीण इलाकों में भाजपा के कमजोर होने के भी कई अर्थ हैं। हार्दिक का पटेलों की नई पीढ़ी पर असर इसका एक कारण हो सकता है किंतु इसे इस रूप में भी लेना चाहिए कि किसानों में तथा कृषक मजदूरों के अंदर सरकार की नीतियों से असंतोष है। यानी उन तक कल्याणकारी कार्यक्रमों को जिस सीमा तक पहुंचना चाहिए, किसानों को जितनी राहत और सुविधाएं मिलनी चाहिए उनमें कमी रह गई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित पूरी केंद्र सरकार को इस बारे में विचार करना पड़ेगा कि जिन कारणों से ऐसा हुआ, उसे कैसे दूर किया जाए। आने वाले राज्यों के चुनावों के लिए यह एक सबक होना चाहिए।
ऐसे कई आंकड़े हैं जिनके अर्थ महत्वपूर्ण हैं। एक आंकड़ा नोटा का है। नोटा में 5 लाख 51 हजार 615 यानी कुल मतों का 1.8 प्रतिशत मत पड़ना निश्चय ही दोनों पार्टियों के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। आखिर इतने लोगों ने नोटा का विकल्प क्यों चुना? वे सरकार एवं विपक्ष दोनों से क्यों इतने निराश थे? इस पर भी विचार होना चाहिए। वैसे यह मत यूं ही बिना किसी परिणाम के नहीं गया है।
एक रोचक और खतरनाक तथ्य यह है कि 22 विधानसभा क्षेत्रों में उम्मीदवारों की जीत-हार का निर्णय नोटा ने कर दिया। इन क्षेत्रों में जितने मतों से जीत-हार हुई, उससे ज्यादा मत नोटा को पड़े। यह किसी स्वस्थ लोकतंत्र का प्रमाण नहीं हो सकता है। हमें यह सोचना पड़ेगा कि नोटा अब जीत-हार में भूमिका क्यों निभाने लगा है? यह प्रवृत्ति कैसे रुके, चुनाव प्रणाली एवं राजनीतिक प्रणाली में लोगों की पूर्ण आस्था कैसे स्थापित हो, यह विचारणीय प्रश्न है।
गुजरात में आम आदमी पार्टी ने कुल 29 सीटों पर ही प्रत्याशियों को उतारा था, जहां पार्टी को केवल 29 हजार 517 वोट हासिल हुए, वहीं इन 29 सीटों पर 75 हजार 880 लोगों ने नोटा का विकल्प चुना। इसी तरह मतदान प्रतिशत का पिछली बार के 72.02 प्रतिशत से गिरकर 67.75 प्रतिशत होने का भी कुछ अर्थ है। जो यह बताता है कि एक बड़े वर्ग में मतदान को लेकर कोई उत्साह ही नहीं था। संभव है, इसमें ज्यादातर मतदाता भाजपा के हों, जो उनसे नाराज तो थे लेकिन उनके खिलाफ भी नहीं जाना चाहते थे इसलिए वो मतदान करने नहीं गए। भाजपा अगर इससे सबक नहीं लेती तो दूसरे राज्यों में भी उसके लिए समस्याएं आएंगी।