फाइल फोटो
यह तथ्य हमें एक बड़े विस्मय से भरता है कि इन दिनों देशभर के इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया में एक ऐसे महाजश्न का माहौल है, जो शायद हमें 1947 में मिलने वाली आजादी की घटना से भी नहीं बन पाया था। कहना न होगा कि भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा समलैंगिक संबंधों को वैधता प्रदान करने से मारे खुशी के वे बांछें खिल गई हैं, जो पिछले 70 वर्षों से खुलने और खिलने की जद्दोजहद में लगी थीं। बहुत मुमकिन है कि भारत में समलैंगिक संबंध बनाने में कानूनी अड़चन के कारण, नर्क समान पीड़ा झेलती मानवता का इस फैसले से तत्काल 'महाकल्याण' हो जाए और वह व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा यौनिक संबंध बनाने के चयन के विकल्प को हासिल करते हुए एक अधिक सभ्य और विकसित संवेदनशील मनुष्य होने का प्रतिमान रचे और यह फैसला नई मानवता का स्मारक बन जाए।
बहरहाल, यहां मैं यह बताना चाहता हूं कि बांछें इस फैसले से लाभान्वित होने वाले समुदाय की नहीं खुलीं और खिली हैं, क्योंकि वह तो सदा से अंधेरे में बंद कमरों की एकांत में खिलती ही रही हैं। वस्तुत: तो बांछें उस विराट उद्योग की खिल गई हैं, जो भारत में घुसने के लिए लगातार पिछले दरवाजे को खोलता, खटखटाता रहा था, लेकिन अब तक उसे कानून एक घुसपैठ मानता था। बहरहाल, अब उस उद्योग का स्वागत द्वार खुल गया है और वह उद्योग है- जिसे अंग्रेजी में पोर्न इंडस्ट्री कहा जाता है। उसका अपना अश्लीलता का अर्थशास्त्र बहुत व्यापक है। आज इंटरनेट की आय का 80% पोर्न फिल्मों और वीडियो से होता है। उस उद्योग का एक महत्वपूर्ण घटक है सेक्स टॉयज इंडस्ट्री। इस उद्योग के प्रमोटर्स और संचालकों की भाषा में भारत 'वर्जिन टेरिटरी' कहलाता है। वे छटपटाते रहे हैं कि भारत में एक 'इंडस्ट्रियल वैजाइना' बनने की विराट संभावना है, लेकिन यहां सेक्स टॉयज प्रतिबंधित हैं। उसका विक्रेता या उपभोक्ता कानून की निगाह में अपराधी घोषित हो जाता है और यही बात इस व्यवसाय के भारत में फलने-फूलने की संभावना का नाश करती रही है।
हमारे समाचार पत्रों के पाठकों ने देखा होगा कि हिन्दी के अखबारों में आमतौर पर और अंग्रेजी के समाचार पत्रों में खासतौर से इस फैसले की खबर के बाद पुरुषों के जोड़ों को हंसते हुए, उनके जोश से गले मिलते हुए फोटो छापे गए। जैसे यह फैसला सबसे महत्वपूर्ण पुरुष समलैंगिकों के लिए ही हो। वे लैस्बियन यानी स्त्री समलैंगिकों के ऐसे गलबहियां और आलिंगनबद्ध होने की तस्वीरें नहीं छाप रहे, जबकि हकीकत यह है कि इस फैसले के लिए लड़ने वाली ताकतें जानती हैं कि उनकी लड़ाई का अभीष्ट तो भारत में स्त्री समलैंगिकता ही है। ऐसा इसलिए क्योंकि सेक्स टॉयज का उपभोक्ता पुरुष तो नाममात्र को है, 90% तो भारत की स्त्री ही उसकी निगाह में हैं। इन उद्योग विशेषज्ञों का आकलन यह है कि यौन शुचिता के मूल्य के चलते भारतीय परिवारों में बेटियां 'सेक्स स्टारविंग' बदहाली में जीती हैं। दूसरा वर्ग है भारत में विधवाओं और चिर-कुंवारियों का। यही उनके उत्पाद के मूल 8 उपभोक्ता होंगे, जिसकी वे समलैंगिक नागरिकों की आबादी में गणना करते हैं।
हालांकि अभी तक यह तथ्य किसी भी सरकारी संस्था के पास नहीं है कि भारत में समलैंगिक आबादी कितनी है? पर उनका जो आंकड़ा बताया जा रहा है, वह उतना ही धोखादेह किस्म का आंकड़ा है, जो एड्स रोग से संक्रमित आबादी का बताया जा रहा था। उस आंकड़े में तब घोर अपमानजनक ढंग से भारतीय निम्न-वित्तीय परिवार की हर युवती को शामिल कर लिया गया था। कहने की जरूरत नहीं कि एड्स रोग संक्रमण के नियंत्रण के बहाने शुरू किया गया 'कंडोम प्रमोशन कार्यक्रम' अप्रकट रूप से भारत में सेक्स को पारदर्शी बनाते हुए मुख्यतः यहां के यौन स्वच्छंदता को लेकर बने सांस्कृतिक-संकोच को ध्वस्त करना था, ताकि यहां के समाज में पोर्न इंडस्ट्री के लिए मैदान खुला और खाली मिल जाए और पूरी चतुराई से उस प्रमोशन कार्यक्रम में सरकार को ही अपने अभीष्ट का उपकरण बनाया गया था। तब भारत सरकार के आधिकारिक चैनल दूरदर्शन पर एक 'टेलीविजनीय पिता' पैदा हो गया था, जो विज्ञापन फिल्म के क्लोज शॉट में अपने पुत्र के सुरक्षित संभोग-आनंद के लिए उसकी पेंट की जेब में कंडोम रखकर पितृ-कर्तव्य निभाता हुआ बरामद होता था। एड्स रोग के प्रचार के अमूर्त भय ने आखिरकार वह सब केवल 10-15 सालों में कर दिया, जो पिछली शताब्दी में नहीं हो सका था। 'नाको' और 'नाज' फाउंडेशन इन लड़ाकों की आर्थिक ताकत है, जो अब भारत पर विजयी हैं।
अब फिर से सेक्स टॉयज उद्योग के बिंदु पर लौटते हुए मैं यह बताना चाहता हूं कि जितनी विदेशी पूंजी के लिए हमारी सरकार ने अपनी संप्रभुता को विश्व व्यापार संगठन और आईएमएफ के हाथों गिरवी रखते हुए अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोले थे, उतनी विदेशी मुद्रा तो चीन की सेक्स टॉयज कंपनी अपने महज एक साल के कारोबार में कमा लेती है।
भारत तो हर वस्तु की बिक्री का विश्व का सबसे बड़ा बाजार है। आज मोबाइल का सबसे बड़ा उपभोक्ता भारत है। निश्चय ही भारत में सेक्स टॉयज का कारोबार, समलैंगिकता के संबंध में दिए गए माननीय न्यायालय के इस फैसले से विराट स्वरूप ले लेगा, क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने यह हिदायत भी दी है कि समलैंगिक की वैधता का प्रचार-प्रसार देश के मीडिया द्वारा किया जाए। बहरहाल, यह फैसला भारत में एक नए आनंद बाज़ार की स्थापना की नींव है। यह ध्यान रखा जाए कि सेक्स टॉयज कोई औषधि थोड़े ही है कि उसका सेवन वही कर सकता है, जो रोगी है। ये सेक्स टॉयज तो धीरे-धीरे उन सबकी भी आवश्यकता बना दिए जाएंगे, जो समलैंगिक नहीं हैं। इस फैसले के साथ ही इन उत्पादों पर बिक्री को भी वैधता मिल गई है। इन्हें विज्ञापन की भी छूट होगी। जब जापानी तेल का विज्ञापन मंदिर की दीवार पर लिखा जा सकता है, तो इसके अधिकतम आबादी के लिए अधिकतम उपलब्धता को प्रमोट करने से रोका नहीं जा सकेगा।
बहरहाल, उच्चतम न्यायालय के लिए जिरह के केंद्र में केवल व्यक्तिगत आजादी का प्रश्न ही रहा होगा, इसके अर्थशास्त्र और इससे जुड़े अन्य प्रश्नों का नहीं, क्योंकि सेक्स टॉयज उद्योग, पोर्न इंडस्ट्री, मादक पदार्थों और हथियारों के अंतर्संबंध बहुत अधिक गहरे हैं। वे परस्पर अंतर-निर्भर हैं। यह गठबंधन समलैंगिक समुदाय से अधिक आभारी तो उच्चतम न्यायालय और भारत सरकार का रहेगा, क्योंकि भारत सरकार ने इस मसले में अपनी लज्जास्पद लापरवाही दिखाई है।