आज के मीडिया राज में नित नई अजीबों-गरीब घटनाओं के साथ हम जी रहे हैं। वर्तमान में नया मुद्दा महिलाओं का अपराधों में लिप्त होना, जो कि है तो अति प्राचीन पर हर बार नए चोले को धारण कर के हमारे सामने प्रस्तुत किया जाता रहा है। कारण जो भी हों पर जो भी अपराधी होता है या पाया जाता है उसके महिला होने से कुकृत्य की सजा या अपराध के पाप का स्वरूप बदल तो नहीं जाता।
अर्धनारीश्वर देव को आराध्य मानने वाले राष्ट्र में यदि ऐसा अन्याय हो तो निंदनीय है। प्रकट रूप से मनुष्यों पाए जाने वाले नौ रसों की कम-ज्यादा मात्रा दोनों में पाई जाती है। कुछ में कम कुछ में ज्यादा। जब इंसानी गुण-अवगुण किसी जेंडर के मोहताज नहीं तो उनसे प्रेरित हो किये कृत्य और उनके दण्ड/कानून/न्याय सभी के लिए सामान हैं लिंग को लेकर कोई भेद-भाव उचित नहीं।
महिलाओं के पक्ष में या उनके हित में यदि अभी भी समाज और सरकारें बहुत पीछे हैं तो इसका मूल भी आज तक की सरकारों की कार्यप्रणाली में ही खोजा जाना चाहिए। परन्तु महिलाओं के तमाम सरोकारों से सहमत होते हुए भी कुछ पक्ष ऐसे हैं जिन पर चर्चा उतनी ही आवश्यक है जितनी कि महिलाओं के उत्थान के पक्ष में। सबसे पहला प्रश्न यह है कि 'महिला' कौन है? जैविक रूप से गर्भ धारण कर सकने की योग्यता रखने वाला प्राणी यदि महिला है तो फिर उसके 'सामाजिक' सरोकारों पर बहस बेमानी है और यदि समाज में बराबरी के साथ चलने व जेण्डर समता चाहने वाला प्राणी महिला है तो फिर उसकी जैविक बनावट पर बहस बेमानी है।
मनुस्मृति हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। मनुस्मृति में स्त्रियों से संबंधित अनेक नियम बताए हैं। उसके अनुसार, स्त्रियों को आगे बताए गए 6 काम नहीं करना चाहिए। ये 6 काम इस प्रकार है:-
पानं दुर्जनसंसर्गः पत्या च विरहोटनम्। स्वप्नोन्यगेहेवासश्च नारीणां दूषणानि षट्।।
अर्थ: 1) सुरापान (शराब पीना), 2) दुष्ट पुरुष की संगत, 3) पति से अलग रहना, 4) बेकार में इधर-उधर घूमना, 5) असमय एवं देर तक सोते रहना व, 6) दूसरे के घर में रहना।
ये 6 दोष स्त्रियों को दूषित कर देते हैं। काम, क्रोध, मद, मोह, लालच, मत्सर की बढ़त ही स्त्री/पुरुष को पापपूर्ण अपराध करने को प्रेरित करते हैं। ये अवगुण कोई लिंग आधारित नहीं होते। आदिमानव के युग से ही यदि महिलाओं पर अत्याचार होते रहे हैं तो इसका यह भी अर्थ नहीं है कि प्राचीन अत्याचारों का दण्ड आज के समस्त पुरुषों को दे दिया जाय।
दुष्कर्म और अत्याचार करने वाले पुरुषों को 'पुरुष' न तो प्राचीन काल में माना गया है और न आज मानने की जरूरत है। वे तो 'राक्षस' हैं और उनका वध करना आवश्यक है। ठीक इसी प्रकार 'महिला वेष में ताड़िकाओं' का वध करना भी उतना ही जरूरी है। महिला होने की पहली शर्त है कि वे पुरुषों के साथ सहयोग से जीवन को संचालित करने में मददगार हों और पुरुष होने की पहली शर्त है कि वे महिलाओं के साथ जीवन को संचालित करने में मददगार हों। 'एक बड़ा और दूसरा छोटा' की मानसिकता से महिला उत्थान या पुरुष उत्थान के कार्यक्रम तो चलाए जा सकते हैं परन्तु समाज में समरसता नहीं लाई जा सकती।
त्याग, ममता, स्नेह से परिपूर्ण महिलाओं के किरदारों से हटकर, आज हम बात करेंगे हिंदू पुराण की विलेन महिलाओं की। ऐसी महिलाएं जो अपने कृत्य या क्रूरता के लिए जानी जाती हैं। दक्षिण के 'रक्षकुल' में सारी महिलाएं राक्षसी नहीं थी। मंदोदरी और सुलोचना का नाम जिस आदर से उत्तर भारत के आर्यों ने लिया है, उससे स्पष्ट होता है कि महिलाओं का सम्मान कुछ अलग चीज है और उनका समाज कुछ और है। इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि वे किस कुल, देश या स्थान पर हैं। मूल शर्त यही है कि वे 'महिलाएं' हों।
जब हम महाकाव्यों की महिलाओं का जीवन पढ़ते हैं तो रावण की माता कैकसी और पिता विश्रवा का जिक्र करना अक्सर भूल जाते हैं। एक ही माता-पिता की चार संतानें-रावण, कुंभकरण, विभीषण और सूर्पणखा। चारों के स्वभाव में नितान्त भिन्नता। इन पात्रों के चरित्र में इतनी विभिन्नताएं कैसे पैदा हुईं? माल्यवान की पुत्री मंदोदरी, रावण की रानी होने पर भी पूज्य है परन्तु रावण की ही सगी बहन सूर्पणखा नाककटी राक्षसी। इसका कारण?
महिलापन या स्त्रीत्व ही इसका कारण हो सकता है। मंदोदरी ने अपने पुत्र को सही या गलत, हर स्थिति में पिता का भक्त होने के संस्कार दिए पर कैकसी अपने पुत्र रावण को परस्त्री के सम्मान करने का संस्कार नहीं दे सकी। यही कारण है कि एक महान शिवभक्त और विद्वान रावण को 'राक्षस' हो जाने का ही मार्ग मिला और उसका वध करना पड़ा।
यह स्त्रीत्व क्या चीज होती है? वर्तमान समय में महिला के जैविक और सामाजिक सरोकारों का ऐसा घालमेल कर दिया गया है कि 'स्त्रीत्व' की बात करने वाले के पीछे संसारभर की 'औरतें' हाथ धोकर पड़ जाती हैं। दरअसल 'स्त्रीमुक्ति' या 'महिला स्वतंत्रता' के नारे लगाने वाले स्त्री-पुरुष, 'मानव देह में पशु को प्रतिष्ठित' करने का कार्य कर रहे हैं क्योंकि वे दोनों 'स्त्रीमुक्ति' के नाम पर व्यक्तिगत और सामाजिक अवधारणाओं को नकारते हैं। वे परिवार व्यवस्था को नहीं मानते, वे देह को निजी सम्पत्ति मानकर बाजार में बेचना चाहते हैं, वे व्यक्ति को समाज से श्रेष्ठ मानते हैं और एक ऐसा विश्व बनाना चाहते हैं जो पशुओं का होता है। जिसमें यौन संबंधों के लिए भी कोई बंदिश नहीं होती।
बात अगर महिला विलेन की हो तो होलिका का नाम शीर्ष में ही लिया जाता है। जो अपने नन्हे भतीजे को जान मारने में बिलकुल भी नहीं कतराई। 'ताड़िका' शब्द भी इसी प्रवृत्ति का प्रतीक है। भुलाए नहीं भूलता रामायण की ‘मंथरा’ का किस्सा रामायण की कहानी के राम, रावण, सीता, कुंभकरण के अलावा भी एक बेहद दिलचस्प किरदार है। जो कहीं न कहीं इस पूरी रामायण के घटित होने की वजह है। वो किरदार और कोई नहीं बल्कि मंथरा ही है। श्रीकृष्ण को जहर से मारने की कोशिश करने वाली ‘पूतना’ ...और अपना दिल हारने वाली ‘शूर्पणखा’।
इसे व्यक्ति वाचक संज्ञा नहीं समझा जाना चाहिए। यौन सुख के लिए किसी को भी न मानना ही तो ताड़िका और सूर्पणखा होने का प्रमाण है। ऐसे प्राणी न समाज होते हैं और न अन्य किसी व्यवस्था के हिस्से। वर्तमान का स्त्रीमुक्ति इसी का पक्ष ले रहा है और इसीलिए समाज की ऐसी ताड़िकाओं का वध किया जाना नितान्त आवश्यक है। वर्तमान महिलावाद बिना किसी निष्कर्ष को दिए ही नाक-भौं सिकोड़ लेता है या आक्रामक होकर संसार के समस्त पुरुषों को स्त्रियों का शोषक घोषित करके एकतरफा युद्ध छेड़ देता है।
सारा संसार जानता है कि 'माता' का कोई विकल्प नहीं होता और वही शिशु की प्रथम अध्यापक होती है। कोख में पालने से जन्म और जन्म से संस्कारवान बनाने तक इस सृष्टि में एक ही प्राणी है-माता। शिशु के अधिकतम संस्कार या चरित्र का निर्माण शैशव अवस्था तक हो जाता है, इस बात को संसार समस्त मनो वैज्ञानिक मानते हैं।
स्त्रीमुक्ति की धुर पक्षधर औरतें यदि हर वक्त अपने पति से लड़ती रहें, पुरुष की बराबरी की हौंस में उन्हीं की तरह शराब और सिगरेट पीकर घर आएं, यौन सुख के लिए किसी के साथ भी हो लें।
स्त्रीवादियों का मानना है कि यह स्त्री को फिर से घर में बांधने की साजिश है और इससे स्त्रियों के लिए बराबरी के अवसर समाप्त हो जाएंगे। फिर स्त्री सोचे कि ऐसी पथ विहीन स्त्रियों को सम्मान की नजर से देखें, तो यह दिवास्वप्न ही होगा। इसके लिए भविष्य का मिजाज पता नहीं कैसा होगा परन्तु समाज को अपने सदस्यों में से चुन चुन कर रावणों और ताड़िकाओं का वध करना ही पड़ेगा वर्ना देश के हर कोने में मुंबई जैसे बड़े शहरों और छोटे गावों के काले गलियारे होंगे और हर घर में समाज कलंकित करते राक्षसों के साथ तड़काओं और शूर्पनखाओं जैसी कलंकित करती औरतों की भरमार।
सीधी सी बात है हम एक तरफा हैं। कभी भी निष्पक्ष होते ही नहीं। किसी एक पक्ष के पीछे पड़ जाते हैं। सोचिये जरा कितने ही युवा इन चक्करों में बर्बाद हुए, अपनी जान से गए। कितनी ही युवतियां इनका शिकार हुई। अलग-अलग मौकों और तरीकों से केवल और केवल मीडिया की आंहों से आपने हमने देखा, सुना, समझा और जाना है। मतलब आप उसे सच मानें या न मानें पर आपकी खुद की भी बुद्धि है, मस्तिष्क नाम की एक चीज है। उसका इस्तेमाल कीजिये। किसी के रिमोट से चलने वाली मशीन में तब्दील होने से बचिए। क्योंकि ये सृष्टि औरतों और पुरुषों दोनों के गुणों और अवगुणों के मेल से ही संचालित होगी। यदि इनका ताल-मेल बिगड़ा तो प्रकृति तो अपना कोप बरपा ही रही है ये एक और छेड़छाड़ न केवल धरती वरन पूरे ब्रह्माण्ड को बहुत भारी पड़ेगी, जिसकी तो फिर कोई कीमत भी अदा नहीं की जा सकती और न ही क्षमा योग्य होगी। निष्पक्ष भाव ही प्रकृति का मान है, सम्मान है। अपने किराये के मशीनी मस्तिष्क को कृपा करके संभालें।
नोट: इस लेख में व्यक्त विचार लेखक की निजी अभिव्यक्ति है। वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।