निश्चय ही ऐसा दृश्य पहले कभी नहीं देखा गया। पॉप गायिका रिहाना, पोर्न कलाकार मियां खलीफा और पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग के किसान आंदोलन संबंधी ट्वीट के विरुद्ध सरकार के अलावा फिल्मी हस्तियां, अन्य क्षेत्र के नामचीन लोगों सहित मीडिया तथा सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने वालों ने जोरदार प्रतिक्रिया व्यक्त की है।
हालांकि इसमें भी दो पक्ष हैं। एक पक्ष उनका समर्थन कर रहा है तो दूसरे का मानना है कि यह भारत का आंतरिक मामला है। हमें इन दोनों खेमों से बाहर निकल कर इस कर इस पूरे प्रकरण पर विचार करना चाहिए।
किसी भी देश में आंदोलन होता है तो कहीं से भी लोग प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। प्रतिक्रियाएं सही हैं गलत हैं यह हमारे आपके नजरिए पर निर्भर करता है। जिस देश का मामला होता है वह अपने तरीके से उन प्रतिक्रियाओं पर जवाबी प्रतिक्रियाएं देता है। यह विकसित सूचना संचार वाले वर्तमान विश्व की सच्चाई है। कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन जब से शुरू हुआ तब से विदेशों से प्रतिक्रियाएं आ रहीं हैं।
कनाडा के प्रधानमंत्री ने आंदोलन पर सरकार के रवैये की आलोचना कर दी। अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और कई अन्य देशों के कुछ सांसदों ने भी किसान आंदोलन के मुद्दे उठाए। यह बात अलग है कि किसी देश की सरकार ने कृषि कानूनों की आलोचना नहीं की। सरकार की ओर से उन सबका उत्तर दिया गया, आम भारतीयों ने भी अपनी प्रतिक्रियाएं दी। लेकिन वर्तमान स्थिति अलग है। इनकी भाषा और विषय वस्तु अलग हैं। ये तीनों लड़कियां न आर्थिक विशेषज्ञ है ना कृषि विशेषज्ञ। इनको कृषि और खासकर भारतीय परिवेश में कृषि के बारे में कोई जानकारी होगी ऐसा मानना मुश्किल है। इन्होंने तीनों कृषि कानूनों का ठीक प्रकार से अध्ययन किया होगा यह भी संभव नहीं। बावजूद अगर वे कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे आंदोलन को विश्वव्यापी बनाने, उसमें लोगों को शिरकत करने के लिए प्रेरित करने और पूरी कार्ययोजना देने की सीमा तक जा रही हैं तो मानना पड़ेगा कि यह सामान्य घटना नहीं है।
रिहाना ने एक अखबार के लेख को ट्वीट करते हुए लिखा कि हम इसकी चर्चा क्यों नहीं कर रहे हैं। जाहिर है, अखबार का लेख उस तक पहुंचाया गया। इसी तरह ग्रेटा ने ट्वीट में बजाब्ता आंदोलन को लेकर पूरे कार्यक्रम की रूपरेखा थी। ट्रोल होने के बाद उन्होंने उसे डिलीट कर दिया।
ग्रेटा थनबर्ग ने एक गूगल डॉक्युमेंट फाइल शेयर किया था। इसमें किसान आंदोलन के समर्थन में सोशल मीडिया सहित अभियानों का पूरा विवरण था। इस फाइल को शेयर करते हुए ग्रेटा ने टूलकिट शब्द प्रयोग किया। ग्रेटा ने ट्वीट में भाजपा को फासीवादी पार्टी कह दिया। इस तरह की भाषा कोई विदेशी हस्ती प्रयोग करे तो यह संदेह स्वाभाविक रूप से पैदा होगा कि निश्चित रूप से कुछ लोग, या कुछ समूह इसके पीछे हैं। आखिर एक किशोर अवस्था अवस्था की लड़की के अंदर भारत की राजनीति को लेकर के इस ढंग की सोच यूं ही पैदा नहीं हो सकती।
अब जरा उस फाइल की बातों पर गौर करिए। इस फाइल में मुख्यतः पांच मुख्य लिखी गई थीं। धरातल पर हो रहे प्रदर्शन में हिस्सा लेने पहुंचे, किसान आंदोलन के साथ एकजुटता प्रदर्शन करने वाली तस्वीरें ई मेल करें, ये तस्वीरें 25 जनवरी तक भेजें, इसके अलावा डिजिटल स्ट्राइक आस्क इंडिया ह्वाई के साथ फोटो/वीडियो मैसेज 26 जनवरी से पहले या 26 जनवरी तक ट्विटर पर पोस्ट कर दिए जाएं, 4-5 फरवरी को ट्विटर पर तूफान, यानी किसान आंदोलन से जुड़ी चीजों, हैशटैग और तस्वीरों को ट्रेंड कराने के लिए तस्वीरें, वीडियो मैसेज पांच फरवरी तक भेज दिए जाएं और आखिरी दिन 6 फरवरी का होगा।
एक अन्य तरीका बताते हुए लिखा गया था कि अपनी सरकारों या स्थानीय प्रतिनिधि से संपर्क करें। इससे भारतीय सरकार पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनेगा। प्रश्न है कि इस तरह विरोध की पूरी योजना बनाई किन लोगों ने? आस्क इंडिया ह्वाई वेबसाइट एमओ मालीवाल चालाता है जो खालिस्तान समर्थक है। आप उस वेबसाइट पर जाकर भारत विरोधी प्रोपोगैंडा देख सकते हैं।
दिल्ली पुलिस ने किसान आंदोलन के संदर्भ में सोशल मीडिया की मौनिटरिंग करते पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन को पकड़ा था जिसमें सारे शिड्यूल थे। हमें तो इल्म भी नहीं था कि इतने सुनियोजित तरीके से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी तैयारी की गई है। ग्रेटा के ट्वीट के बाद 26 जनवरी की हिंसा को लेकर संदेह ज्यादा गहरा गया है। डिलीट करने के बाद ग्रेटा द्वारा दुबारा ट्वीट करना और फिर से इसी तरह की बात रखना साबित करता है कि आंदोलन को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसी शक्तियां सक्रिय हैं जिनका उद्देश्य वह नहीं है जो वास्तविक किसान संगठन, वास्तविक किसान या किसान संगठनों के नेता चाहते हैं।
ग्रेटा, रिहाना, मियां खलीफा या ऐसे दूसरे लोग आंदोलन पर कोई प्रतिक्रिया दें तो हम उससे सहमत असहमत हो सकते हैं, लेकिन इस तरह बजाब्ता एक अभियान का हिस्सा बनना सामान्य गतिविधि नहीं हो सकता। वैसे भी यह आंदोलन जब से आरंभ हुआ हमने विदेशों में भारत विरोधी शक्तियों द्वारा प्रदर्शन होते देखा है। काल्पनिक खालीस्तान के झंडे लहराए गए। यहां तक कि अमेरिका में महात्मा गांधी की मूर्ति को तोड़ा गया। ब्रिटेन के कुछ सांसदों ने तो बाजाब्ता सरकार को पत्र लिखा कि वह इस पर भारत सरकार से बात करे। इसलिए यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि कुछ ताकतें आंदोलन का लाभ उठाकर अपना एजेंडा पूरा करने की कोशिश कर रही हैं। कह सकते हैं कि अगर कोई भारत सरकार का विरोध करता है तो वह भारत का विरोध नहीं हो सकता। यह मत एक हद तक ही ठीक है।
विदेशों में विरोध अगर सरकार का भी हो तो उसके तौर-तरीके वाजिब होने चाहिए। कृषि कानूनों के विरोध में हो रहे आंदोलन का सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा ने विरोध अवश्य किया है, सरकार ने भी विरोध को अनौचित्यपूर्ण माना है लेकिन यह नहीं कह सकते कि उसने आंदोलन के खिलाफ कोई दमन चक्र चलाया है। गणतंत्र दिवस के अवसर पर ट्रैक्टर परेड के दौरान हुई हिंसा और उत्पात के बाद सरकार के पास बल प्रयोग कर इनको खदेड़ देने का पूरा आधार मौजूद था। बावजूद ऐसा नहीं हुआ तो फिर विदेशों में बैठे लोगों को कैसे लग गया कि यह एक फासीवादी सरकार है जो विपरीत विचारों को कुचलना चाहती है? उनको कहां सूझ गया कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार लोकतांत्रिक तरीके से किए जा रहे आंदोलन का दमन रही है?
साफ है कि यह कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना वाला मामला है। कृषि कानून हमारे देश का आंतरिक मामला है। सरकार से हमारे अनेक मतभेद हो सकते हैं लेकिन विदेशों से अगर निहित स्वार्थी तत्व या भारत के ही वे लोग, जो निहित स्वार्थों के कारण ऐसी छवि बनाने की कोशिश कर रहे हैं कि भारत में एक ऐसी सरकार है जो अपने विचारों के विरोधियों को सहन नहीं करती, एक ही मजहब को प्रश्रय देती है, केवल पूंजीपतियों को प्रोत्साहित करती है, किसानों, गरीबों, मजदूरों की विरोधी है तो इसका जोरदार प्रतिकार करना ही होगा।
ग्रेटा, रिहाना व मियां खलीफा प्रकरण ने बड़े वर्ग के अंदर यह चेतना पैदा कर दी है। उनको एकबारगी नींद से जगा दिया है। उन्हें लग गया है कि निहित स्वार्थी समूह आंदोलन की आड़ में अपना खेल कर रहे हैं। इतनी बड़ी संख्या में लोगों का इनके ट्वीट के खिलाफ सामने आना इसका प्रमाण है। इसे सुखद दौर की शुरुआत मानना होगा। भविष्य में ऐसे तत्वों के खिलाफ और जोरदार प्रतिक्रियाएं होंगी। कुछ लोग तर्क देते हैं कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के समर्थकों द्वारा वहां की संसद पर हमले करने के विरुद्ध जब दुनिया भर में मत व्यक्त किया गया तो उस पर किसी ने आपत्ति नहीं की। मत व्यक्त करना और लोगों को विरोध करने के लिए उकसाना, उसके लिए पहले से तैयार पूरा कार्यक्रम देना, झूठ फैलाना कि मोदी सरकार बिल्कुल किसान विरोधी- जन विरोधी है.... में मौलिक अंतर है।
हमारा संघ, भाजपा, नरेंद्र मोदी, अमित शाह सबसे मतभेद हो सकता है लेकिन हम सब भारतीय हैं। हमारे विरोध की एक सीमा और मर्यादा होगी। निहित स्वार्थी तत्वों के एजेंडे में फंस कर हम ऐसा कुछ ना करें जो कल हमारे देश के लिए अहितकर हो और हमें पछताना पड़े। ग्रेटा, रिहाना, मियां खलीफा और ऐसी दूसरी हस्तियों को बताने की जरूरत है कि हमारी लड़ाई हमारे तक रहने दे। लेकिन जो नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के समय से लेकर वैचारिक विरोध या नफरत में देश के साथ विदेशों में भी इनकी छवि धूमिल करने के लिए समस्त सीमाओं का अतिक्रमण कर रहे हैं वे इससे सहमत नहीं हो सकते।
उनका एक ही लक्ष्य है, मोदी सरकार को बदनाम कर इसके खिलाफ देश और विदेश में वातावरण बनाना जिससे इन्हें कहीं समर्थन न मिले और ये फिर सत्ता में नहीं आएं। एक आम भारतीय के नाते चाहे वह किसी विचारधारा या दल का समर्थक हो या नहीं हो, हर व्यक्ति को ऐसे आचरण का प्रतिकार करना चाहिए।
(इस आलेख में व्यक्त विचार लेखक की निजी राय है, वेबदुनिया से इसका संबंध नहीं है)