मल्टीनेशनल कंपनियों ने चमड़ी के रंग को गोरा बनाने के झूठ को अपना बड़ा बाजार बनाया और भारतीयों का शोषण किया। कई नामी गिरामी कंपनियां इसी का फायदा उठाकर जबरदस्त कमाई कर चुकी हैं। बाजार के जानकार भी मानते हैं कि हो सकता है इसीलिए तमाम ब्यूटी प्रोडक्ट्स अपनी ब्रांड मार्केट रणनीति के तहत ही अपने विज्ञापन और टैगलाइन में बदलाव करने के साथ ब्रांड एंबेसडर को बदलें और सिंबॉल या नाम से बाजार में फिर बरसों बरस बेखौफ राज करने के लिए उतरें।
कहते हैं कि किसी भी बड़े बदलाव की चिन्ता या जरूरत तब होती है जब कोई बड़ी मुसीबत सामने दिखती है। अमूमन यह इंसानी फितरत है कि जब सब बिल्कुल ठीक चल रहा है और सौ टका दुरुस्त और फायदेमंद भी तो फिर फालतू बैठे बिठाए क्यों मुसीबत मोल ली जाए? यह काम तो इंसान ही करता है फिर वह चाहे बड़ी कंपनियों के संचालक हों या गृह उद्योग से जुडे लोग। ऐसा ही कुछ 1975 से अब तक यानी 45 सालों से धड़ल्ले से बिक रही और भारतीय बाजार में खासकर गांवों के 70 प्रतिशत इलाकों में अपना बाजार बना चुकी मशहूर फेयरनेस क्रीम फेयरएण्ड लवली भी करने जा रही है।
दरअसल अमेरिकी अफ्रीकी समुदाय के अश्वेत जॉर्ज फ्लायड की मौत के बाद जो कुछ हुआ उससे एक बार फिर दनियाभर में रंगभेद पर बहस छिड़ गई और इसी की झुलस ने गोरेपन और त्वचा को सुंदर करने वाली तमाम क्रीमों को भी लपेटे में ले लिया। हालांकि भारत में ऐसा कुछ नहीं है, लेकिन फेयरनेस क्रीम बाजार जरूर सक्ते में है कि कब आंच यहां भी न पहुंच जाए।
ऐसे में तमाम गोरेपन की क्रीम बनाने वाली कंपनियों को भी लोगों की भावनाएं अब समझ में आईं और आनन-फानन में अपनी योजनाओं में बदलाव कर रही हैं। इस कड़ी में कोलकाता में मौजूद देश की दिग्गज एफएमसीजी कंपनी इमामी लिमिटेड भी अपने गोरेपन की क्रीम फेयर एंड हैंडसम से फेयर शब्द हटाने की सोच रही है। कंपनी को सुध आ गई है कि वह एक जिम्मेदार कॉर्पोरेट है और उपभोक्ताओं की भावनाओं का ध्यान रखती है जिसकी दुहाई दे रही है। चर्चा तो यह भी है कि लॉरियल कंपनी भी अपने ब्रांड से व्हाइट, लाइट और फेयर जैसे शब्दों को डिलीट कर सकती है।
अब यह सवाल समझने वालों के लिए है कि पहले ऐसी सुध क्यों नहीं आई? जॉर्ज फ्लायड की मौत के बाद ही क्यों ध्यान आया? फिर भी न देर आए, दुरुस्त आए।
अब फेयरनेस क्रीम का पहला आइडिया कहां से आया इस बात के कोई पक्के सबूत तो नहीं हैं, लेकिन नस्लवाद या काले गोरे के फर्क का अमेरिका का इतिहास जरूर सबके सामने हैं। अंग्रेजी में लंबे समय तक काले अमेरिकन को अफ्रीकन-अमेरिकन कहा जाता रहा। उससे पहले अफ्रो-अमेरिकन कहते थे और उससे भी पहले केवल ब्लैक कहा जाता था। यकीनन ब्लैक शब्द ही मानवता को शर्मसार करता था। लेकिन यह भी सच है कि उन्नीसवीं सदी की शुरूआत तक काले लोगों को अमेरिका में इंसान नहीं माना जाता था। अमेरिका के इतिहासकार रिचर्ड वाइट ने भी एक जगह लिखा है कि
‘समाज द्वारा काले और गोरों के बीच बनाई सीमाओं को लांघने पर काले लोगों की सरेआम लिंचिंग हो जाती थी। लिंचिग करना सरेआम कत्ल कर देने से भी बदतर होता था। लोग पहले बेइज्जत करते थे, मखौल उड़ाते थे, नसबंदी कर देते थे, जला देते थे और यहां तक कि मिलकर मार देते थे। यह नस्लभेद का खतरनाक दौर था। उस दौर की तस्वीरें रूह कंपा देने वाली हैं। यानी सुप्रीम कोर्ट ने नस्ल के आधार पर अलगाव वाली व्यवस्था को पैदा कर दिया’
हालांकि धीरे-धीरे उत्तरी राज्यों में काले नागरिकों को इंसान का दर्जा मिला, लेकिन दक्षिणी राज्यों में 1862 से 1868 तक चले गृहयुद्ध के बाद मिल पाया। गुलामी से छूटे तबके सबसे बड़े काले नेता फ्रेडरिक डगलस को 12 जुलाई, 1854 में वेस्टर्न रिजर्व कॉलेज में बाकायदा तर्कों के साथ समझाना पड़ा था कि नीग्रो नस्ल के लोग इंसानियत का हिस्सा हैं. गृहयुद्ध के बाद बाकयदा जो कानूनन बराबरी मिली, धीरे-धीरे नए कानून बनाकर वह छीन भी ली गई। बीसवीं सदी में मैल्कम एक्स और ब्लैक पैंथर आंदोलन के आक्रामक और मार्टिन लूथर किंग के शांतिपूर्ण आंदोलनों के बाद काले लोगों को मतदान की योग्यता और दीगर नागरिक अधिकार वापस मिले।
नागरिक अधिकारों की बहाली के लिए जमकर लोग सड़कों पर उतरे और 1965 में काले लोगों को फिर से बराबरी का दर्जा तो जरूर दिया गया जिससे तब से लेकर अब तक बहुत कुछ बदला जरूर है, लेकिन खामियां बेहिसाब हैं।
चलिए फिर लौटते हैं आज से 45 साल पहले जब इंग्लैंड की एक कंपनी यूनीलीवर का भाग हिंदुस्तान यूनीलीवर ने पहली बार भारत में 1975 में इस उपमहाद्वीप की सांवली लड़कियों की त्वचा को गोरा बनाने का रामबाण नुस्खा फेयर एण्ड लवली क्रीम देकर दिया। देखते ही देखते यह क्रीम भारत खासकर गांवों की बालाओं के दिलों में राज करने लग गई और कई-कई पीढ़ियां गुजर गईं, लेकिन किसी का सांवला रंग बदला नहीं। लेकिन उम्मीद की आस में ऐसी क्रीमों की बाढ़ सी आ गई और बाजार बेहिसाब बढ़ता गया।
देखते ही देखते पुरुषों को भी गोरा बनाने के लिए तमाम क्रीम, लोशन बाजार में छा गए। लेकिन हकीकत से वाकिफ बढ़ता झूठा बाजारवाद और जानबूझकर छलावे के बावजूद बढ़ावा देते उपभोक्ताओं का संबंध चोली-दामन जैसा रहा। न क्रीम का असर हुआ न सांवला रंग गया, लेकिन इसका व्यापार जरूर फलता, फूलता गया। अब नाम बदलकर वही धंधा जारी रखने की कवायद हो रही है। जबकि सबको पता है कि लोगों की आंख और त्वचा की रंग का फर्क सिर्फ मेलेनिन की वजह से है।
मेडिकल साइंस का कहता है कि यह मेलेनिन की मात्रा से होता है। अत: इसको लेकर अन्य किसी भी प्रकार की धारणा बनाना ठीक नहीं है, लेकिन उसके बाद भी गोरा और फेयर बनाने वाली क्रीम का बाजार खूब फला और फूला जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है। अक्सर रंग का संबंध नस्ल और जाति से भी जोड़ दिया जाता है तभी तो साफ रंग को लेकर पूर्वाग्रह दिख जाता है। लेकिन एक कड़वा सच यह भी है कि चमड़ी के रंग से जुड़ी टिप्पणियां कई बार जातिसूचक भी बन जाती है।
इस पीड़ा को अभिनेत्री तनिष्ठा चटर्जी की फेसबुक पोस्ट से साफ समझा जा सकता है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि 2016 में एक राष्ट्रीय चैनल के शो में मेरे सेलिबे्रटी स्टेटस का मजाक उड़ाते हुए हंसाने की स्थितियां पैदा की जाने पर मैं शामिल हुई। लेकिन शो में मुझे उस वक्त भयावहता का अहसास हुआ जब मेरी सांवली त्वचा को लेकर मेरा मजाक बनाया गया। मैं यकीन ही नहीं कर पाई कि हंसाने या विरोध के नाम पर ऐसा भी हो सकता है? मुझे लगा कि शोर मचाते हुए रंगभेद को बढ़ावा देने वाले कॉमेडी शो में हूं। उन्होंने शो को बीच में ही छोड़ दिया।
मल्टीनेशनल कंपनियों ने चमड़ी के रंग को गोरा बनाने के झूठ को अपना बड़ा बाजार बनाया और भारतीयों का शोषण किया। कई नामी गिरामी कंपनियां इसी का फायदा उठाकर जबरदस्त कमाई कर चुकी हैं। बाजार के जानकार भी मानते हैं कि हो सकता है इसीलिए तमाम ब्यूटी प्रोडक्ट्स अपनी ब्रांड मार्केट रणनीति के तहत ही अपने विज्ञापन और टैगलाइन में बदलाव करने के साथ ब्रांड एंबेसडर को बदलें और सिंबॉल या नाम से बाजार में फिर बरसों बरस बेखौफ राज करने के लिए उतरें।
भारत में ब्यूटी और पर्सनल केयर बाजार की दर 9 प्रतिशत सीएजीआर यानी कंपाउन्ड एनुअल ग्रोथ अर्थात निवेश के विकास की वार्षिक दर बढ़ने का अनुमान है। 2017 में यह बाजार 14-15 अरब डॉलर था जो कि साल 2022 तक 22-23 अरब डॉलर होने का अनुमान है। शायद यही बड़ा आंकड़ा भी भारत में गोरा बनाने वाली क्रीम कंपनियों को ललचा रहा हो तभी तो दुनिया भर में नस्लभेद विरोधी एकाएक उग्र हुए आन्दोलन के भविष्य को आंकते हुए सचेत होकर अपने भविष्य को भी संवारने की रणनीति के तहत ऐसा कुछ कर रहे हों जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। इधर बाजार जानकारों का भी मानना है कि यह संभव है कि अब ये ब्यूटी प्रोडक्ट्स ब्रांड मार्केट स्ट्रेटजी के तहत अपने विज्ञापन और टैगलाइन में बदलाव के साथ ही ब्रांड अंबेसडर को बदलने पर विचार करें।
गौरतलब है कि भारत में ब्यूटी एवं पर्सनल केयर बाजार के 9 प्रतिशत सीएजीआर की दर से बढ़ने का मतलब 2022 तक बाजार 22-23 अरब डॉलर का हो जाएगा जो कि 2017 के आंकड़ों के हिसाब से 14-15 अरब डॉलर का था।
हो सकता है कि अमेरिका में कोरोना महामारी के बीच भड़के नस्लीय हिंसा से डरी मल्टीनेशनल कंपनियां पहले ही भारत में अपनी पकड़ को मजबूत करने के लिए काली चमड़ी को गोरी बनाने के अनफेयर काम को आगे एक फेयर नाम देकर जारी रखने के लिए नए पैंतरे और तौर तरीकों में जुटी हो। बहरहाल जिस देश में देवी-देवताओं की सांवली सूरत भी बिना किसी भेदभाव के पूरे श्रध्दा से पूजी जाती हो वहां गोरी चमड़ी के खातिर नाम बदलकर कब तक ऐसा व्यापार चलता रहेगा?