आश्रमोपेक्षा और प्रकृति से विमुखता ने किया मानव जीवन पीड़ित

Webdunia
-अनिल शर्मा
 
सरल शब्दों में कहा जाए कि मानव विकास की अंधी दौड़ ने प्रकृति से खिलवाड़ किया तो इसका बदला भूकंप, सूखा, अतिवृष्टि सहित अनेक घटना-दुर्घटनाओं से मानव को दो-चार होना पड़ा। यही कारण है कि आज का मानव आश्रम की उपेक्षा की वजह से पंगु बन गया है।
 
प्रकृति से खिलवाड़ के संबंध में ख्‍यात फिल्म अभिनेत्री मीनाकुमारी ने कहा था कि 'मां और प्रकृति में यही अंतर है कि मां माफ कर देती है, मगर प्रकृति नहीं। प्रकृति से खिलवाड़ करने की वजह से ही आज मनुष्य का स्वास्थ्य, उम्र, शिक्षा आदि में काफी कमी आ गई है।'
 
कहने को तो स्वास्थ्य के लिए अनेक सरकारी व गैरसरकारी चिकित्सा सुविधाएं हैं, मगर प्राकृतिक रूप से आज से सदियों पहले जो स्वस्थ मनुष्य था, वह आज नहीं है। पहले के दौर में जब इतना विकास नहीं हुआ था, संसाधन नहीं थे, मगर मनुष्य प्रकृति से जुड़ा था, शुद्ध पर्यावरण था और तब की उम्र 100 से भी आगे बढ़ जाती थी। आज 50 वर्ष की आयु आने तक हाथ-पैर थक जाते हैं। जो शिक्षा उस दौर में प्रकृति से तादात्मय बिठाती थी, वहीं आज के दौर की शिक्षा केवल बटन चलाना सिखा रही है।
 
सदियों पहले जब इतने संसाधन नहीं थे, इतना विकास नहीं हुआ था, लेकिन मानव प्रकृति के करीब था और आश्रम का पालन करता था। सदियों पहले के दौर में आश्रम व्यवस्था थी। आश्रम व्यवस्था में मानव की जिंदगी के 4 पड़ाव जुड़े थे। ये 4 पड़ाव या आश्रम मानव जीवन के लिए काफी जरूरी माने जाते थे। इन आश्रमों में पहला आश्रम ब्रह्मचर्य, दूसरा गृहस्थ, तीसरा वानप्रस्थ और अंतिम संन्यास था। 4 वर्ण और 4 आश्रमों का क्रम जब तक अपने सही रूप में चलता रहा, तब तक यह देश व समाज निरंतर उत्थान के मार्ग पर अग्रसर होता रहा। 
 
पर आज तो सब कुछ उल्टा ही दिख रहा है। फलत: हम संसार की जनसंख्या का 5वां भाग होते हुए भी पिछड़े लोगों में गिने जाते हैं। आज के दौर में किसी भी आश्रम का पालन नहीं होने से मानव प्रकृति से विमुख हो गया और प्रकृति को नुकसान पहुंचाने और खिलवाड़ करने का परिणाम ये है कि आज मानव मानसिक और शारीरिक पीड़ाओं से त्रस्त है।
 
हिन्दू धर्म के ब्रह्मचर्य आश्रम में संयम, नियम आदि का प्रावधान होता था। ब्रह्मचर्य आश्रम में शिक्षा, अनुशासन आदि निहित थे। आज के शिक्षणकाल के दौर में ही 15-20 वर्ष की आयु आते-आते चश्मा लग जाता है। 25 वर्ष तक की आयु का ब्रह्मचर्य कहां पलता है? छोटी उम्र से ही निचुड़ना प्रारंभ हो जाता है और बालक कच्ची उम्र में ही खोखले हो जाते हैं। शिक्षा भी 10 किलो के बस्ते के बोझ से लदी हुई है। आधुनिक संसाधन ने सदियों पहले की मेहनत में कमी तो की है, मगर इसका दुरुपयोग भी भरपूर हुआ है। 
 
दूसरा मानव जीवन का सबसे अहम था गृहस्थ आश्रम, जब मानव अपनी जिंदगी के दूसरे पड़ाव में प्रवेश करता था। रोजगार के सीमित साधनों के बावजूद अपना और परिवार का पालन-पोषण एक ही व्यक्ति कर लेता था यानी पहले मुट्ठी में पैसे लेकर थैला भर शकर लाते थे। आज थैले में पैसे जाते हैं और मुट्ठीभर शकर भी मिल जाए तो नसीब है। 
 
आज मानव को अपने ही कारण रात-दिन कमाने के लिए हड्डी तोड़ना पड़ रही है। फिर भी बेरोजगारी का आंकड़ा देश की आबादी का लगभग 79 प्रतिशत है। उस दौर के संतति नियम पालन से संतान भी स्वस्थ होती थी। आज कुपोषण से विश्व आबादी का लगभग 60-65 प्रतिशत हिस्सा ग्रस्त है। गृहस्थ धर्म में उपार्जन की योग्यता बढ़ाकर परिवार तथा समाज का आर्थिक पोषण संपन्न किया जाता था। आज अंधाधुंध संतानोत्पत्ति और कुरीतियों व दुर्व्यसनों में बढ़ते हुए खर्च के कारण लोग अनीति उपार्जन के लिए विवश होते हैं और ऋणी बनते हैं।
 
मानव जीवन का तीसरा और अहम पड़ाव वानप्रस्थ आश्रम कहा जाता है। इस आश्रम में गृहस्थ जीवन का उत्तरदायित्व अपनी अगली संतति को सौंपकर गृहस्थ जीवन में ही लोक मंगल के कामों में लगते थे। समाज को सुयोग्य लोकसेवक अवैतनिक रूप से मिलते थे। वे समूचे समाज को प्रगतिशील बनाने के कार्य में निरंतर लगे रहते थे, फलत: देश-विदेश में ज्ञान, विज्ञान, नीति, धर्म व सदाचार का वातावरण बनाते थे।
 
यही कारण था कि यहां के 33 कोटि नागरिक 33 कोटि देवी-देवताओं के नाम से प्रख्यात हुए और यह भारत भूमि 'स्वर्गादपि गरीयसी' कहलाई। आज का कड़वा सच यह है कि नीतियों के दुरुपयोग ने मानव जीवन नष्ट कर दिया है। चाहे राजनीति हो, चाहे धर्म नीति आदि इत्यादि। उस दौर के एकतांत्रिक शासन प्रणाली में भी लोकतंत्र नहीं तो प्रजातंत्र जरूर नजर आता था जबकि आज हमारे देश में विशुद्ध लोकतंत्र होने के बावजूद भारतीय आबादी का लगभग 15 प्रतिशत हिस्सा ही सुखी है।
 
सबसे अंत में हम बात करते हैं संन्यासी आश्रम की। इससे पहले ये जान लें कि वर्तमान में चाहे कितनी भी आयु हो, तीर्थाटन पर निकल पड़ते हैं। नौजवान, किशोरों के लिए तो ये फैशन परेड-सा है। जिन दिनों इन्हें अपनी शिक्षा, रोजगार, परिवार के पालन-पोषण की जिम्मेदारी का दायित्व निभाना चाहिए (क्योंकि कर्म ही पूजा है, ऐसा गीता कहती है)। उन दिनों तीर्थाटन करने वाले आयु के उत्तरार्ध में जब ईश्वर भक्ति में लीन होते थे, उस आयु में तीर्थाटन किया जाता था। उस दौर में यानी संन्यासी आश्रम की आयु में मानव अपनी समस्त जिम्मेदारियों से मुक्त होकर ईश्वर भक्ति में लीन हो जाता था।
 
आज के आधुनिक कहे जाने वाले युग में इन आश्रमों से मानव के परे चले जाने और प्रकृति की उपेक्षा की वजह से आज ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आश्रमों की ही दुर्गति नहीं हुई है। वानप्रस्थ का तो कहीं नाम निशान ही नहीं दीखता। आज हालात ये है कि पर्यावरण प्रदूषण के बढ़ते हालात ने त्रासदी का दौर ला खड़ा किया है। शुद्ध हवा, शुद्ध खाद्यान्न आदि का कहीं नामोनिशान नहीं-सा रह गया है। जिस गोबर या जैविक खाद से धरती को भरपूर पोषण मिलता था, उसे बम्पर फसल लेने की लालच में रासायनिक तत्वों से भर दिया गया है।
 
मानव विकास की यात्रा में अगर आश्रमों का पालन और पर्यावरण और प्रकृति से संसर्ग रहता तो मानव आज इतनी प्राकृतिक और मानवीय पीड़ाओं के जाल में नहीं आता। 

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