धरती कहे पुकार के मत रौंदे तू मोय, वरना वो दिन आएगा मैं रौंदूंगी तोय

ऋतुपर्ण दवे
जहां बारिश ने फिलाहाल दुनिया भर में जगह-जगह न केवल पुराने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए वहीं बेतहाशा गर्मी ने भी तमाम जगह तबाही मचाकर भविष्य के लिए बुरे संकेत भी दे दिए। बावजूद इसके इंसानी करतूतों में बदलाव नहीं आना ठीक वैसा ही जैसे आ बैल मुझे मार! मौजूदा आंकड़े और पुराने दस्तावेज बताते हैं कि सूखा और बारिश सृष्टि की रचना के साथ ही प्रकृति के अभिन्न हिस्से जरूर रहे हैं और कहीं बारिश की तबाही तो कहीं सूखे की मार का जिक्र इतिहासों के पुराने पन्नों में भी दर्ज है।
लेकिन ऐसा खौफनाक मंजर धरती के इतने बड़े भूभाग पर एक साथ इस कदर दिखा हो याद नहीं आता। सभी को प्रकति के उन इशारों को समझना होगा, चेतना होगा और रू-ब-रू होकर दूरियां बनानी होगी जो मौजूदा हालातों के लिए जिम्मेदार हैं।

बीते बरस प्राकृतिक आपदाओं के कारण दुनियाभर में बेघर हुए लोगों की संख्या 10 बरसों में सबसे ज्यादा रही। जहां साढ़े 5 करोड़ लोग अपने ही देशों में विस्थापित हुए वहीं ढ़ाई करोड़ से ज्यादा दूसरे देशों में शरणागत हुए।

चीन के हेन्नान में एक हजार साल के रिकॉर्ड में पहली बार इतनी बारिश हुई कि बड़ी संख्या में लोग मारे गए, सड़कों पर हफ्तों पानी भरा रहा। यूरोप में दो दिन में ही इतना पानी बरसा जितना दो महीने में बरसता है। नदियों के तट टूट गए। पानी गांवों और शहरों में जा घुस और हजारों घर, दूकान, दफ्तर, अस्पताल सब पानी-पानी हो गए।

जर्मनी और बेल्जियम में सैकड़ों मौतें हो गई। सदियों पुराने बसे और आबाद गांव एक ही रात में बह गए। भारत में भी महाराष्ट्र, उप्र, उत्तराखण्ड, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर, मप्र, बिहार, झारखण्ड प.बंगाल, सहित दक्षिणी राज्यों कुल मिलाकर पूरे देश का काफी बुरा हाल है। हर कहीं बारिश की तबाही की नई और खौफनाक तस्वीरें काफी डराती हैं। 

तबाही की वजह केवल बारिश और बाढ़ ही हो ऐसा नहीं है। अमेरिका के वाशिंगटन और कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया में हीट डोम बनने के चलते हवा एक जगह फंसी रह गई जिससे तापमान 49.6 डिग्री सेल्सियस तक जा पहुंचा। वहीं अमेरिका के ऑरेगन के जंगल में लगी आग ने दो हफ्ते में ही लॉस एंजेलेस जितना इलाका जलाकर राख कर दिया। अंदाजा ही काफी है कि पर्यावरण को कितना जबरदस्त नुकसान हुआ होगा।

बरसों बरस रहे हरे-भरे जंगल का क्षेत्र वीरान रेगिस्तान में तब्दील हो गया। इतनी ही नहीं यहां के सुलगते जंगलों की जलती लकड़ी का धुंआ न्यूयार्क के लोगों की सांसों पर अलग भारी पड़ रहा है। ब्राजील का मध्यवर्ती इलाका शताब्दी का सबसे बुरा सूखा झेल रहा है। जंगलों की आग से जहां चारों ओर खतरा तो बढ़ा ही वहीं अब अमेजन के जंगलों पर भी अस्तित्व समाप्ति का संकट सामने है। इतना तो पता है जो भी कुछ हो रहा है महज जलवायु पर संकट के चलते हो रहे परिवर्तन के कारण ही है।

आखिर जलवायु परिवर्तन है क्या? यह समझना अभी भी कई लोगों के लिए थोड़ा आसान नहीं है। बिना लाग लपेट इसे इस तरह समझा जा सकता है कि दुनिया में औद्योगिक क्रान्ति की शुरुआत 1850 से 1900 के बीच हुई। उस वक्त धरती का जितना तापमान था उसे ही मानक इकाई मानकर स्थिर रखना है ताकि पर्यवारण भी स्थिर रहे। लेकिन ऐसा हो नहीं सका।

जिस तरह से पर्यावरण को ताक में रखकर बेतहाशा प्रदूषण फैलाया गया उससे पृथ्वी का तापमान निरंतर बढ़ रहा है जो जल्द ही 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। बस यही बढ़ता तापमान प्रकृति की सेहत पर बुरी तरह से भारी पड़ रहा है।

बारिश और गर्मी के चलते हो रही प्राकृतिक आपदाओं की वजह भी यही तापमान वृध्दि है। इसे काबू में रखने की कवायद पूरी दुनिया को ईमानदारी से करनी होगी। हालांकि यह वृध्दि सरसरी तौर पर तो मामूली लगती है। लेकिन ऐसा नहीं है। जिस तरह मानव शरीर का सामान्य तापमान लगभग 98.6 डिग्री फैरेनहाइट यानी 37 डिग्री सेल्सियस होता है। जिसके थोड़ा ही बढ़ते तबियत खराब लगने लगती है, शरीर असहज लगने लगता है और 101-102 डिग्री फैरेनहाइट होते-होते शारीरिक क्षमताएं बुरी तरह से असामान्य होने लगती हैं। तमाम व्याधियां व पीड़ाएं घेर लेती हैं। ठीक वैसा ही पृथ्वी के साथ है। इसलिए पूरी दुनिया का ध्यान इसी 1.5 डिग्री सेल्सियस को बढ़ने से पहले ही नियंत्रित कर लेने पर है। 

औद्योगिकीरण व शहरीकरण के चलते ग्रीन हाउस गैसें जैसे कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, हैलोकार्बन आदि ही जलवायु परिवर्तन के कारण हैं। इनसे वायुमंडल का तापमान लगातार बढ़ रहा है।

ग्रीन हाउस गैसों की भूमिका भी खास है जो इंसान की देन है। आंकड़े बताते हैं कि 10 बरसों में दुनिया भर में जीवाश्म ईधन यानी लगभग 65 करोड़ वर्ष पूर्व जीवों के जल कर उच्च दाब और ताप में दबने से बना प्राकृतिक ईंधन जो अब कोयला, पेट्रोल, डीजल, मिट्टी का तेल आदि के रूप में है, भी बड़ा कारण है। इनका उपयोग बिजली घरों, वाहन चलाने, खाना पकाने, रोशनी फैलाने में किया जाता है जो बड़े पैमाने पर वायुमण्डल में रोजाना और हर पल प्रदूषण फैलाता है और धरती का तापमान बढ़ाता है।

जीवाश्म ईधन व दूसरी औद्योगिक प्रक्रियाओं के कारण दुनिया भर में कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में 4,578.35 मिलियन मीट्रिक टन की वृद्धि हुई है। इससे वायुमंडल गर्म हो रहा है और यही ग्लोबल वार्मिंग का कारण है। यही जलस्रोत, ग्लेशियर, जैव विविधता के साथ कृषि उत्पादकता और मानव जीवन प्रभावित कर रहा है। धरती पर तापमान बढ़ने का सिलसिला ऐसा ही रहा तो सन् 2030 से 2052 तक धरती के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाएगी। जो कहीं न कहीं पृथ्वी के पर्यावरण पर अत्याधिक प्रतिकूल होगा।

शोधकर्ताओं के अनुसार वाहनों और उद्योगों से निकलने वाले कॉर्बन डाईऑक्साइड से पादप और फंफूदी के पराग, बीजाणु के उत्पादन को बढ़ावा मिलता है। यही हवा के माध्यम से मानव शरीर में पहुंच कर अस्थमा, राइनाइटिस, सीओपीडी, स्किन कैंसर एवं अन्य एलर्जी जैसे घातक बीमारियों को जन्म देते हैं।

ग्रीन हाउस गैसें कितनी घातक हैं समझा जा सकता है। इसको लेकर दुनिया भर में लगातार बैठकें और विचार विमर्श होता रहता है। बावजूद इसके कुछ खास हासिल नहीं हो सका। अब इस दिशा में आशा की एक किरण जरूर दिख रही है। वह है जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल यानी इंटरगवर्नमेंटल पैनल फॉर क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी)। इसकी स्थापना विश्व मौसम विज्ञान संगठन और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने 1988 में की थी जो जलवायु के बारे में मूल्यांकन कर कुछ सालों के अंतराल पर रिपोर्ट जारी करता है। यह रिपोर्ट बेहद आसान भाषा में होती है ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इसे पढ़ सकें और जागरूक हो सकें। इसका काम कितना महत्वपूर्ण है इसी से समझा जा सकता है कि वर्ष 2007 में संस्था शांति नोबल पुरुस्कार से सम्मानित की गई। इसमें दुनिया भर के चुने हुए वैज्ञानिक काम करते हैं जो विशेषज्ञ वैज्ञानिकों, सरकारों और उद्योग जगत के तमाम दावों व रिपोर्ट्स का बारीक अध्ययन कर जलवायु परिवर्तन की स्थितियों, कारणों पर नए व तथ्यात्मक शोध व प्रमाणित लेखों का विश्लेषण कर अपनी रोपोर्ट जारी करते हैं।

आईपीसीसी के वैज्ञानिक सरकारों को नहीं बताते कि क्या करना है बल्कि नीतिगत विकल्प का आंकलन करते हैं। ये भविष्यवाणी नहीं बल्कि जलवायु परिवर्तन के चलते हो चुकी घटनाओं पर रिपोर्ट से पहले अगला अनुमान जारी करते हैं जिसकी संयुक्त राष्ट्र समीक्षा करता है और मंजूरी देता है। बाद में यह रिपोर्ट जारी होती है जिससे नीति निर्माताओं को भावी योजनाएं बनाने में मदद मिलती है।

कुछ बरसों के अंतराल में जारी होने वाली रिपोर्ट का दुनिया को इंतजार रहता है। पिछली पांचवी रिपोर्ट 2014 में जारी हुई थी जिस पर 2015 के पेरिस समझौते में तय हुआ कि इस शताब्दी के अंत तक ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर बनाए रखना है।

छठवीं रिपोर्ट के ड्राफ्ट की समीक्षा जारी है जो इसी पखवाड़े किसी भी दिन जारी होगी। इसी नवंबर में ग्लासगो में होने वाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP26) में इससे जुड़े फैसलों की घोषणा की जाएगी। जिसके मूल्यांकन से जुड़ी पूरी रिपोर्ट 2022 में जारी होगी।

यही वक्त है जब जलवायु परिवर्तन को लेकर दुनिया के हरेक नागरिक को चेतना होगा, जागरूक होना होगा। यह बहुत ही कठिन है। लेकिन जब तक सारी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग के दिख रहे दुष्परिणामों को लेकर सचेत नहीं होगी, समझेगी नहीं धरती का तापमान यूं ही बढ़ता रहेगा और खामियाजा मौजूदा हालातों से भी बदतर होगा। काश समय रहते लोग इसे समझ पाते और आईपीसीसी की मंशा सार्थक हो पाती। मेरा प्रदूषण-तेरा प्रदूषण को लेकर यूं ही मची खींचतान के बीच धरती का तापमान यानी बुखार बढ़ता रहेगा उसके पसीने की बाढ़ या लू के थपेड़े प्रकृति के जीव-जन्तुओं पर ऐसे भारी पड़ेंगे मानों अगले करोड़ों वर्षों के लिए हम जीवाश्म ईधऩ बन जितना दोहन कर चुके हैं उसकी भरपाई का जरिया न बन जाएं! “धरती कहे पुकार के मत रौंदे तू मोय वरना वो दिन आएगा मैं रौंदूंगी तोय।” काश इसे समझ पाते?

इस आलेख में व्‍यक्‍‍त विचार लेखक के निजी अनुभव और निजी अभिव्‍यक्‍ति है। वेबदुनि‍या का इससे कोई संबंध नहीं है।

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