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नशा युवा वर्ग का प्रेस्टिज प्वॉइंट

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अनिल शर्मा

नशा शराब में होता तो नाचती बोतल किंतु बोतल नाचे या नहीं, ड्रिंक तो करना है। पर ड्रिंक भी छोटे-मोटों का काम है, वाकई में जन्नत चाहिए तो अफीम, ब्राउन शुगर, विक्स जैसे बड़े नशीले पदार्थ स्वर्ग तो दिखा देते हैं और नर्क भी।
 
जब इनकी आदत लत में तब्दील होने लगती है तो घर-परिवार वाले परेशान हो जाते हैं। किसी तरह इसका नशेड़पन छूट जाए की चिंता सताए रहती है। अस्पताल में बॉटलों पर बॉटलें चढ़ने लगती हैं और एक समय ऐसा आता है, जब शरीर के पिंजरे से आत्मारूपी पंछी स्वतंत्र हो जाता है। इस बीच में नशेड़ी युवा, किशोर या युवती खुद परेशानी झेलते हैं तो ज्यादा परेशानी घर वालों को होती है।

 
फिर भी नशे या मादक पदार्थों में पता नहीं क्या आधुनिकता देखती है युवा पीढ़ी। इनकी नजरों में नशा न करने वाले बैकवर्ड होते होंगे। शहर की क्लब संस्कृति, डिस्कोथेक कल्चर को अपनाती आधुनिक युवा पीढ़ी, जिनके परिवार में लाखों की कमाई है, इसे शौकियाना लेती है तो मिडिल क्लास के लिए नशाखोरी जरूरत बन जाती है।

 
दु:ख का कारण यह है कि आज नारी जगत के लिए अनेक योजनाएं चल रही हैं और कार्य किए जा रहे हैं। अफसोस यह कि यह वर्ग भी नशाखोरी में पीछे नहीं रहा है। शहरों में आकर फ्रेंड सर्कल में चलते जाम या मादक पदार्थ के सेवन से बच पाना असंभव ही होता है। जो मां-बाप अपने बच्चों, विशेषकर लड़कियों को उच्च शिक्षा के लिए शहरों में भेजते हैं, वहां इनका नशीले पदार्थों से जुड़ाव उनके अरमानों को 'मसान' बना देता है।

 
मादक पदार्थों का असर जब युवा पीढ़ी के युवक-युवती या किशोरों में काफी रम जाता है तो इसे पाने के लिए नीच से नीच कर्म करने में भी कोई कोताही नहीं की जाती है। अपनी इज्जत-आबरू तो दूर ये परिवार की इज्जत भी दांव पर लगा देते हैं। घर से पैसे चुराकर नशा करने की आदत से होती ये शुरुआत चोरी-चकारी में शुमार हो जाती है।
 
प्रेस्टिज प्वॉइंट
 
नशा न करना आज के दौर में मॉडर्न युवा पीढ़ी की नजरों में बैकवर्ड समझा जाता है। जो पार्टी-शार्टी या क्लब या ब्याह-शादी, बर्थडे वगैरह में ड्रिंक नहीं लेता वह गंवार या गांवड़ेला होता है। कभी ऐसा भी होता है कि इस तरह के आयोजनों में यदि कोई लड़की या महिला शामिल होकर आउट हो जाए यानी ज्यादा ड्रिंक कर ले तो काफी छिछालेदरी हो जाती है। ऐसे मौके पर नशाखोरी को प्रेस्टिज का प्वॉइंट बनाने वाले खुद अपने साथ कितना बड़ा धोखा करते हैं।

 
युवा पीढ़ी पर नशीले पदार्थों की पकड़ लगातार मजबूत हो रही है। युवतियों में भी ड्रग्स स्टेटस सिंबल बन जाने से इस बुराई की समाप्ति और भी मुश्किल होती जा रही है। स्कूल-कॉलेज भी नशे से अछूते नहीं रहे। अकेले मप्र के स्कूल-कॉलेजों में छोटे से बड़ा नशा करने वाले 15 से 25 वर्ष आयु वर्ग के विद्यार्थियों (लड़के-लड़कियां दोनों) लगभग 40 प्रतिशत संभवत: मानी जाती है।
 
गांव से लेकर शहरों तक नारी वर्ग में नशा
 
ग्रामीण क्षेत्रों की औरतें निम्न या मध्यम जातीय वर्ग की श्रेणी होती है या कहिए कि मजदूर पेशा वर्ग समाज से होती हैं। ऐसी औरतें केवल साधारण शराब के सेवन के अलावा कुछ नहीं लेतीं। इन महिलाओं की संख्या वर्तमान में लगभग 20 प्रतिशत से ज्यादा नहीं समझी जाती है।
 
इधर शहरी वर्ग में मजदूर पेशा वर्ग की नशा करने वाली युवतियों या महिलाओं की संख्या लगभग 25 प्रतिशत है, वहीं हाई सोसायटीज फॉलो करने वाली, क्लबों में घूमने-फिरने वाली फैशनपरस्त युवतियों और महिलाओं की संख्या लगभग 35 प्रतिशत है, जो कि केवल शराब या साधारण नशा करती हैं, जबकि इसके विपरीत अफीम, विक्स, हेरोइन जैसे खतरनाक मादक पदार्थों का सेवन करने वाली युवतियों की संख्या लगभग 35 प्रतिशत है जबकि यही नशा करने वाली महिलाओं की संख्या लगभग 25 प्रतिशत बताई जाती है।

 
साधारण मादक पदार्थों की लत शुरुआत होकर बड़े और महंगे मादक पदार्थों तक जा पहुंचती है। युवा वर्ग जब इसके दल-दल में फंस जाता है तो गैरकानूनी काम शुरू कर देते हैं। कई बार युवतियों के साथ तो काफी गंभीर हादसे हो जाते हैं, जो अकल्पनीय होते हैं। 
 
क्या नशा करने से ही हम मॉडर्न कहला सकते हैं? ये विचारणीय है।

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