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दो कदम तुम भी चलो, दो कदम हम भी चलें

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प्रज्ञा पाठक

भारतीय घर-परिवारों में आमतौर पर बुज़ुर्ग दो दशाओं में दिखाई देते हैं। या तो नई पीढ़ी से तालमेल के अभाव में वे उपेक्षित-से रहते हैं अथवा परिवार के सत्ता-सूत्र स्वकेंद्रित रखते हुए तानाशाह की मुद्रा में दिखाई देते हैं। ऐसे परिवार कम हैं, जहां दोनों पीढ़ियों में यथायोग्य सामंजस्य है और दोनों ही परस्पर एक-दूसरे से प्रसन्न है।

 
पहले बात करें उपेक्षित बुज़ुर्गों की। स्वाभाविक रूप से दो पीढ़ियों की सोच, विचार, दृष्टि, परिस्थितियां सब अलग-अलग होती हैं। पुरानी पीढ़ी अर्थात बुज़ुर्गों को अपने अनुभव का अहंकार होता है, तो नई पीढ़ी को अपने ज्ञान का। टकराव तब आरंभ होता है, जब अनुभव स्वयं को अंतिम सत्य मान लेता है और ज्ञान खुद को सर्वोपरि। 

 
ऐसे में नई पीढ़ी बुज़ुर्गों की उपेक्षा करने लगती है। बात-बात में उनका अनादर और उन्हें अनसुना रखा जाने लगता है। तब बुज़ुर्गों की तिलमिलाहट अपने ही बच्चों को कोसने और शाप देने जैसे गर्हित स्वरूप में अभिव्यक्त होती है।
 
कुल मिलाकर घर का वातावरण बेहद तनाव भरा हो जाता है, जिसमें प्रसन्न कोई नहीं रह पाता। खेद की बात यह है कि दोनों स्वयं आईना देखने के बजाय एक-दूसरे को ही दिखाते रहते हैं गोया कि खुद पाक-साफ हों। 
 
होना तो यह चाहिए कि परस्पर एक-दूजे का पक्ष समझ कर अपनी दृष्टि और व्यवहार में कुछ परिवर्तन कर लिए जाएं। इससे दोनों के जीवन में सुख और शांति सध जाएंगे। 
 
बुज़ुर्ग यह मान लें कि नई पीढ़ी के समय की चुनौतियां और आवश्यकताएं उनके समय से अलग हैं। इसलिए अब हर विषय में उनका अनुभव ही उपयोगी हो, यह जरूरी नहीं। इसलिए विभिन्न मुद्दों के हल में अपने अनुभव के साथ संतान के ज्ञान को भी शामिल करें और युवा यह समझ लें कि बुज़ुर्गों के रूप में उनके साथ अनुभव का ऐसा खजाना है, जिसके बल पर वे कई जटिल समस्याओं का समाधान पा सकते हैं और उनके रूप में प्रभु-कृपा की एक ऐसी शीतल छांव उन्हें उपलब्ध है, जिसके नीचे रहकर वे दुनिया के हर संकट का सामना करने की शक्ति पा सकते हैं। 
 
दूसरे शब्दों में कहें तो यह कि सम्मान, स्नेह और समझ की संतुलित त्रयी दोनों को दोनों से खुश और संतुष्ट रख सकती है। 
 
अब चर्चा उन बुज़ुर्गों की, जो नए जमाने की हवा से इस कदर भयभीत हैं कि अपनी संतान को अधिकारों का हस्तांतरण कभी करते ही नहीं। वे संपूर्ण परिवार की सत्ता अपने हाथों में रखते हैं और हर बात में उनका निर्णय ही अंतिम होता है। तानाशाही की इस अति के तले उनके बच्चों की न जाने कितनी जायज इच्छाएं, मांगें और सपने दम तोड़ देते हैं। घर में उनकी छवि किसी आतंकवादी से कम नहीं होती। उनके स्वभाव के कारण बच्चे अपने बचपन को भी खुलकर नहीं जी पाते और युवावस्था भी भय और तनाव की भेंट चढ़ जाती है। साथ ही यह तानाशाही उनमें क्रोध और विद्रोह की नकारात्मक भावना को भी जन्म देती है, जिसके परिणाम भविष्य में बहुत खराब होते हैं, जब या तो बच्चे अपने माता-पिता से सदा के लिए अलग हो जाते हैं अथवा उनके साथ घोर दुर्व्यवहार पर आमादा हो जाते हैं। 
 
बेहतर तो यह है कि ऐसे बुज़ुर्ग अपनी सोच को थोड़ा उदार और युग के अनुकूल रखें। 'जमाने की हवा' से अधिक अपने संस्कारों पर विश्वास रखें। अपने बच्चों को कर्तव्यों का पाठ पढ़ाने के साथ धीरे-धीरे अधिकारों का हस्तांतरण भी करते चलें। कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर स्वयं राय दें और शेष पर उनकी राय मानें। कुछ अच्छा उन्हें सिखाएं और कुछ बेहतर उनसे सीखें। 
 
शास्त्रों में वयस्क संतानों से मित्रवत् व्यवहार की बात कही गई है। फिर आप उनसे गुलामों की भांति आचरण करके भला कौन से शुभ परिणाम की आशा कर रहे हैं? 
 
हिंदू धर्म में चार आश्रमों के तहत जिस वानप्रस्थ आश्रम की चर्चा की गई है, उसका भी यही संकेत है कि अब अगली पीढ़ी को सत्ता सौंपकर स्वयं निवृत्त हो जाएं। उन्हें जीवन और उससे जुड़े विविध आयामों पर स्वयं निर्णय लेने दें। संघर्ष करके सीखने दें। आप उनके लिए मार्गदर्शक की भूमिका में रहें न कि तानाशाह की। 
 
अब आपकी वय त्याग की है, भोग की नहीं। इसलिए अधिकार सिर्फ स्नेह का रखें, शेष संतति को सौंप दें। निःसंदेह अपने जीवन-यापन के पर्याप्त साधन आप अपने पास रखें, लेकिन सोच और व्यवहार से त्याग शील हो जाएं ताकि अगली पीढ़ी आपके अस्तित्व को अपने लिए वरदान माने न कि बोझ।
 
यूं भी संतान में संस्कार यदि सतोन्मुखी होकर बोए गए हैं, तो फसल भी निश्चित रूप से अच्छी ही आएगी। आपकी अधिकारवेष्ठित संतान आपके जीवन में सुख व शांति की बहार आजीवन लाएगी। तब दोनों पीढ़ियां परस्पर एक-दूसरे के लिए एक अनूठा गौरव महसूस करेंगी और 'घर' का अहसास किसी सुरलोक से कम नहीं होगा।

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