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मेरा ब्लॉग : प्रेरणा भी है विकलांगता...

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मनोज श्रीवास्तव

तैमूर को कौन 'दिव्यांग' बोलना चाहेगा? इतिहास का ज्ञान नहीं होना या तोड़ा-मरोड़ा इतिहास का ज्ञान होना भी विकलांग ज्ञान की श्रेणी में आता है, लेकिन उन्हें भी इतिहास के 'दिव्यांग' नहीं कह सकते। 


 
'दिव्यांग' के मायने दिव्य अंग से हैं यानी ऐसे अंग जो दिव्य हों! खासकर 'दिव्यांग' के अर्थ देवी-देवताओं से जुड़े हैं, जो वरदानस्वरूप माने गए हैं। मनुष्यों में 'दिव्यांग' हो ही नहीं सकते, वो तो एक कल्पनाभर है, जो महज देवताओं से तुलना या साम्यता के लिए गढ़ा गया शब्द है।
 
विकलांगता जन्मना और विपदा से उत्पन्न हो सकती है जिसमें किसी का कोई दोष नहीं होता इसलिए सरकार उन्हें विशेष सुविधा और अवसर देने के लिए प्रतिबद्ध होती है। समाज को भी अपने स्तर पर असहायजनों के लिए जनप्रयास से सहायता करते रहना चाहिए।
 
देखा जाए तो विकलांगजन सामान्य लोगों की तुलना में अधिक जीवट और आत्मविश्वासी होते हैं। आश्चर्यजनक बात यह है कि आत्महत्या या अवसाद के केस में विकलांगता का कारण देखने-सुनने में नहीं आता है। यह बात अपने आप में स्वयंसिद्ध है कि विकलांगजन अपने जीवन से टकराने और उसे विजित करने की अदम्य इच्छाशक्ति से भरे हुए होते हैं। यही दिव्य गुण इन्हें उपहार में मिला है, जो बेशक उन्हें आमजन से ऊपर स्थापित करने के लिए पर्याप्त है।
 
खास बात यह है कि एक सामान्य व्यक्ति हमेशा दुखी या असंतुष्ट मिलता है लेकिन उसकी तुलना में विकलांगजन शायद ही कभी अपनी अक्षमता या ईश्वर-प्रदत्त कमतरी को जाहिर करते हैं जबकि उन्हें हरदम अपने साथ किए गए भेदभाव के प्रति ईश्वर से नाराज बनकर बैठने का पूरा हक है, पर वे ऐसा नहीं करते। इसके उलट हम प्रतिदिन ईश्वर से नाराज और रूठते रहेंगे। 
 
अत: जब भी हम अपने इर्द-गिर्द विकलांगजन को देखें तो सदैव ईश्वर से उनके सुखी-स्वस्थ जीवन के लिए कामना करना चाहिए और खुद के लिए कृतज्ञ अनुभव करना चाहिए।
 
विकलांगजन की जिजीविषा और इच्छाशक्ति हमारे लिए प्रेरणा है। वे हमें आभास कराते हैं कि हमें संसार में क्या खूबियत के साथ भेजा गया है। यह बात स्मरण करने के लिए एक संदेश भी है ताकि हम शांति, प्रेम, भाईचारे से जीवन-यापन करें न कि दूसरों को विजित करने में बुरा मार्ग अपनाएं।
 
ध्यान रहे कि विकलांगजन दिव्य अंगयुक्त होकर नहीं, बल्कि दिव्य इच्छाशक्ति लेकर इस धरा पर आए हैं इसलिए इन्हें देखें, उनसे मिले तो उनकी दिव्य इच्छाशक्ति का एक बार स्मरण जरूर करें। इससे उनके प्रति सम्मान तो बढ़ेगा ही, साथ ही हमें भी अपने जीवन को सरलता से जीने की प्रेरणा भी प्राप्त होगी।
 
कई विकलांग संगठनों ने भी 'दिव्यांग' शब्द को स्वीकारने में अनिच्छा जाहिर की है। उनको लगता है कि इस शब्द से उत्पन्न रचनाशीलता भ्रम पैदा करेगी, न कि समाधान। उनकी शंका को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि हमारा समाज विकलांगता को दिव्य उपहार के रूप में स्वीकार करेगा, ऐसा प्रतीत भी नहीं होता। 
 
समाज के ऊपरी तबके और शासकीय पत्राचार की भाषा तथा मंच-गोष्ठियों में 'दिव्यांग' शब्द चाहे जगह बना ले, पर सामान्य बोलचाल या संबोधन में किसी विकलांग को 'दिव्यांग' बोलना इतना सहज और आसान नहीं हैं। इस तरह का संबोधन फिलवक्त में तंज की तरह अनुभव करा सकता है, जो वक्त-हालात पर गंभीर स्थिति या बहुत हद तक लड़ाई-झगड़े में फंसा सकता है। इसलिए हिन्दी के मूर्धन्य विद्वान और भाषा शास्त्रियों को विचार-मंथन कर 'दिव्यांग' की जगह अन्य उपयुक्त शब्द खोजना चाहिए।
 
मेरे ख्याल में 'दिव्यांग' की जगह 'सहचर' शब्द ज्यादा उपयुक्त लगता है, क्योंकि इससे साथ रहने और साथ देने का भाव उत्पन्न होता है। ऐसे संबोधन भी ढूंढे जा सकते हैं जिनमें साथी, सहचर भाव के अलावा दृढ़ता, इच्छा, पुरुषार्थ, संकल्प इत्यादि खूबियां जुड़ी हों या और भी शब्द हो सकते हैं जिनसे इच्छाशक्ति, अदम्य उत्साह का संदेश-भाव जुड़ा हो!
 
याद रहे कि संबोधन महज एक औपचारिकता नहीं होती बल्कि हमारी संवेदनशीलता की परिचायक होती है जिसके माध्यम से अंतरमन संवेदित होकर सार्थक दिशा में उद्वेलित होता है। 

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