लॉकडाउन की दूसरी अवधि समाप्त होने को हैं लेकिन वहीं कोरोना संक्रमितों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही है। इसका अर्थ यही है कि लोगों में कोरोना महामारी को लेकर गंभीरता का अभाव, लापरवाही और शासन एवं प्रशासन तंत्र की मुस्तैदी में कमी है। किन्तु कोरोना की त्रासदी ने जिस तरह से जनजीवन को प्रभावित किया है, उसके बाद जीवन को पटरी पर बनाए रखने के मुद्दे ज्वलंत हो चुके हैं।
जहां सारी व्यवस्थाओं के ठप्प पड़ जाने के कारण गति एकदम से ठहर गई वहीं कोरोना की इस भयावहता में लॉकडाउन के घोषित होने के बाद से "पेट की भूख" ने अपनी विभीषिका को दिखलाया है। इसके साथ ही कई सारे यक्षप्रश्न उठ खड़े हुए हैं। देश के जिस संघीय ढांचे की बात की जाती है, वह अन्दर ही अन्दर खोखला सा प्रतीत होता है क्योंकि राज्यों की सरकारों में बैठे हुए सत्ताधारियों ने अपनी संकीर्णता से सबको परिचित करवाया है। न तो दिल्ली से मजदूरों के पलायन का माजरा किसी से छिपा है और न ही महाराष्ट्र के बान्द्रा में मजदूरों की भीड़ को इकट्ठा करने के पीछे की मंशा किसी से छिपी है। देश में राजनीति कभी भी और किसी भी विपरीत परिस्थिति में नहीं रुक सकती है, क्योंकि राजनीति को भठ्ठी जलाकर अपनी रोटी सेंकनी की पुरानी आदत है।
मीडिया की हेडलाइन से लेकर राजनैतिक पटल तक एक शब्द-"प्रवासी मजदूर" या "प्रवासी" शब्द देश की अखंडता पर सर्वाधिक चोट करने वाला है। साथ यह शब्द ही राजनैतिक मंशा को स्पष्ट कर देता है।
आखिर यह कैसा संघीय शासन है? जहां एक देश के नागरिक को दूसरे राज्य में "प्रवासी" शब्द से नवाजकर उसके साथ भेदभाव को स्पष्टतया डंके की चोट पर दर्शाया जाता है। जैसे वह राज्य उन नागरिकों का देश ही न हो।
असल में राज्य सरकारें अपनी जिम्मेदारी से भागती हुई उनके राज्य में फंसे दूसरे राज्यों के लोगों से पीछा छुड़ाती नजर आई हैं। वे यह भूल गई कि जो लोग यहां रोजगार के लिए हैं वे इसी देश के नागरिक और अपने ही हैं।
अन्यथा ऐसी स्थिति क्यों उत्पन्न की जाती कि लोग मजबूरन अपना अस्थायी ठिकाना छोड़कर अपने घरों की ओर जान की बाजी लगाकर जाते।
हालात ऐसे हैं कि अन्य राज्यों में फंसे हुए लोगों तक सरकारी मदद पहुंच ही नहीं पा रही है। या कि जानबूझकर उनके पास तक मदद नहीं भेजी जा रही है। प्रोफेशनल नौकरी को छोड़कर अगर सामान्य श्रमिकों की ओर ध्यान दिया जाए तो वे ऐसे लोग हैं जो अपना पेट काटकर अपने घरों का गुजारा चलाने वाले हैं। ऐसे में जब उनके पास पैसे ही नहीं हैं तो वे करें तो क्या करें? शायद सरकारों की आत्मा तब नहीं कांपती जब दुधमुंहे बच्चों और सर में पोटली लेकर हजारों किलोमीटर दूर अपने गांवों, शहरों की ओर लोग चल आसमान और जमीन को ओढ़कर चल पड़ते हैं। कई सारे लोगों की इसके कारण मृत्यु भी हो चुकी है, लेकिन इसका दोषी कोई नहीं है।
यह किसकी परिणति है? विभिन्न राज्यों से किसी कदर अपने घर पहुंचे हुए लोग बतलाते हैं कि वे जहां काम कर रहे थे वहां पैसे मिलने तो बहुत पहले ही बन्द हो चुके थे वहीं अब खाद्यान्न सामग्री भी मिलनी बन्द हो गई।
ऐसे में निराश्रित भूख से पीड़ित लोग करें तो क्या करें?
यह स्थिति क्यों उत्पन्न हुई?राज्य सरकारें क्यों विफल हो चुकी हैं? क्या अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने के बाद वे अपनी शाबाशी की पीठ थपथपा पाएंगी? इसके साथ ही जिस लिए लॉकडाउन की घोषणा की गई थी क्या उसी उद्देश्य का कत्ल करना नहीं है? ऐसे में अपने घरों की ओर लौट रहे लोगों के संक्रमित होने का खतरा तो है ही साथ ही वे प्राणों को अपनी हथेली पर रखकर अपने आशियाने के लिए चल पड़े हैं। ऐसे में उनके गांव/शहरों के लिए भी संकट उत्पन्न हो सकता है।
इन दैन्य परिस्थितियों को देखते हुए दुष्यंत कुमार की वह पंक्तियां चरितार्थ हो रही हैं कि -"भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ"। ऐसे में प्रधानमंत्री का आह्वान केवल हवा-हवाई ही साबित हो रहा है। कुछ बड़ी कंपनियों को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर कंपनियां न तो अपने कर्मचारियों को बिना काम के तनख्वाह दे रही हैं। भला कंपनियां या उपक्रम बिना काम के तनख्वाह क्यों देंगी?? लेकिन देश की सरकारों को इस पर ध्यान तो देना चाहिए, चाहे ऐसे उपक्रमों के मालिकों से बातचीत के तरीके से उनके लिए राहत का आश्वासन देकर उन पर आश्रित कर्मचारियों को वेतन देने के लिए प्रयास धरातल पर किया जाना चाहिए। क्योंकि संक्रमितों की संख्या में लगातार हो रही बढ़ोत्तरी, रोजगार के संकट के साथ मानसिक तनाव और लॉकडाउन की अवधि की अनिश्चितता जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया है।
सरकार का फंड केवल कोरोना संक्रमितों के उपचार के लिए किया जा रहा है, जबकि सरकारों को चाहिए कि जिस तत्परता के साथ कोरोना से लड़ाई लड़ी जा रही है, उसी स्तर पर जरूरतमंद लोगों के जीवन-यापन की व्यवस्थाओं के लिए भी कार्य किया जाए।
वहीं कोरोना से लड़ने के लिए जनजागृति के साथ ही सोशल और फिजिकल डिस्टेंसिंग के लिए लॉकडाउन का कठोरता से पालन करना सभी की प्रथम जिम्मेदारी है। इसके साथ ही इस विपदा की घड़ी में अपने-अपने स्तर से सरकार और समाज को हर जरूरतमंद की मदद के लिए आगे आना होगा।
जहां दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्रियों से बात कर अपने राज्य के नागरिकों की सुरक्षा और मदद के लिए प्रयास करने चाहिए थे जिससे उनके निवास पर ही उन्हें पर्याप्त सुविधाएं मुहैय्या कराई जा सकती। लेकिन मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस पर बेवजह सदाशयता दिखाने या कि वोटबैंक की राजनीति के लिए-प्रदेश के अन्य राज्यों में फंसे हुए श्रमिकों को राज्य में वापस लाने के आत्मघाती कदम उठा रहे हैं। ऐसे में सवाल यही उठता है कि आखिर ऐसा क्यों कर रहे है??
इसकी क्या गारंटी दी जा सकती है कि उन श्रमिकों को सुरक्षित वापस लाएंगे? साथ ही उनके होम क्वारेंटाईन और लाने के पूर्व और बाद में उनका चेकअप कराया जाना कितना मुश्किल प्रतीत होता है। ऐसे में जहां कोरोना से एक ओर एहतियात बरती जा रही है वहीं ऐसी आफत मोल लेकर पता नहीं शिवराज सिंह कौन सी उपलब्धि हासिल कर रहे हैं?
देश की विभिन्न कारुणिक स्थितियों एवं उस पर सरकारों की उपेक्षाओं ने राजनीतिक भर्रेशाही, स्वार्थपरता, अवसरवादिता, संकीर्णता, वोटबैंक के लोभ तथा अकर्मण्यता की पोल खोलकर रख दी है।
मत कोसिए सरकारों को क्योंकि सत्ता को तो अक्सर लहू पीने की आदत होती है। इसलिए केवल अपनी लाचारी और बेबसी का रोना रोते रहिए। सत्ता मदान्ध होती है साथ ही भ्रष्टाचार की यह जड़ें उसी की गहराइयों में समाई हुई हैं तथा वोट बैंक के तुष्टीकरण और स्वार्थी सरकारों से इस विपरीत परिस्थिति में भी कैसे आशा की जा सकती थी कि वे सचमुच के "संघीय" शब्द की गरिमा का खयाल रखेंगी?
आखिर दोषारोपण किया तो किया किस पर जाए? या कि इसे देश का दुर्भाग्य मानकर स्वीकार कर लेना ही श्रेयस्कर होगा कि सबकुछ आंखें और कान बन्द कर देखते और सुनते रहिए, कुछ मत बोलिए, शांत रहिए।
कुल मिलाकर कोरोना पर भी राजनीति का रंगमंच तैयार कर सभी खेलने की जुगत में बैठे हुए हैं। यदि समय रहते नहीं सम्हले तो स्थितियां और अधिक वीभत्सकारी हो सकती हैं तथा जिस चीज का दंभ हम आज तक भरते आ रहे हैं कि उस गति से कोरोना नहीं फैला जिस गति से अन्य देशों की स्थिति रही है, तो इस पर सरकारों की गल्तियों के कारण पलीता लगते देर नहीं लगेगी!!
इस लेख में व्यक्त विचार लेखक की निजी अभिव्यक्ति है, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध या लेना-देना नहीं है।