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भागवत के वक्तव्य पर विवाद जो कहा नहीं

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अवधेश कुमार

, शुक्रवार, 24 जनवरी 2025 (15:10 IST)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत द्वारा इंदौर के एक कार्यक्रम में स्वतंत्रता दिवस और अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा पर दिए गए वक्तव्य से देश में राजनीति, गैर राजनीतिक एक्टिविज्म चारों ओर बवंडर मचा हुआ है। विरोधी आरोप लगा रहे हैं कि संघ 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता दिवस मानता ही नहीं और भागवत ने 22 जनवरी, 2024 यानी पौष शुक्ल द्वादशी से स्वतंत्रता दिवस मानने और मनाने की अपील की है। कोई 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता दिवस न माने तो उसका विरोध स्वाभाविक होगा। 
 
राहुल गांधी की भारत राज्य के विरुद्ध लड़ाई की बात चिंताजनक : 

उसके बाद राहुल गांधी का बयान सबसे ज्यादा चर्चा और बहस में है कि मोहन भागवत ने जो कहा वह संघ का विचार है और हम उसी के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने अपने केंद्रीय कार्यालय के उद्घाटन के अवसर पर यहां तक कह दिया कि यह मत मानिए कि हमारा संघर्ष संघ और भाजपा जैसे किसी राजनीतिक संगठन से है, हमें पूरे इंडियन स्टेट यानी भारतीय राज्य से संघर्ष करना है। संपूर्ण भारतीय राज्य के विरुद्ध संघर्ष भी लोकसभा में विपक्ष के नेता के द्वारा, जिसने संविधान के तहत शपथ लिया हो सामान्य तौर पर न स्वीकार हो सकता है न गले उतर सकता है।
 
राहुल गांधी के वक्तव्य पर आगे विचार करेंगे, पहले यह देखें कि डॉ. भागवत और संघ, भाजपा सहित पूरे विचार परिवार के विरुद्ध चल रहे अभियान का सच क्या है? भागवत के इंदौर के भाषण के वीडियो उपलब्ध हैं और कोई भी सुन सकता है। वे बोल रहे हैं- ‘भारत स्वतंत्र हुआ 15 अगस्त को। राजनीतिक स्वतंत्रता आपको मिल गई। हमारा भाग्य निर्धारण करना हमारे हाथ में है। हमने एक संविधान भी बनाया, एक विशिष्ट दृष्टि, जो भारत के अपने स्व से निकलती है, उसमें से वह संविधान दिग्दर्शित हुआ, लेकिन उसके जो भाव हैं, उसके अनुसार चला नहीं और इसलिए, हो गए हैं स्वप्न सब साकार कैसे मान लें, टल गया सर से व्यथा का भार कैसे मान लें।’ 
 
साफ है जो भाषण सुनेगा और निष्पक्षता से विचार करेगा वह वर्तमान विरोधों विवादों से सहमत नहीं हो सकता। हमारे देश की बौद्धिक, एक्टिजिज्म और राजनीति की दुनिया ने लंबे समय से दुष्प्रचार कर रखा है कि संघ स्वतंत्रता दिवस को मानता ही नहीं, तिरंगा झंडा को स्वीकार नहीं करता और संविधान को खारिज करता है। इसलिए किसी भी वक्तव्य को उसके सच और संदर्भ से काटकर दो-चार शब्दों के आधार पर आलोचना और हमला स्वभाव बन गया है। 
 
जरा बताइए, इन पंक्तियों में कहां है कि हमें 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता मिली ही नहीं? दूसरे, इसमें भारतीय संविधान को खारिज करने का एक शब्द है क्या? वो कह रहे हैं कि भारतीय संविधान एक विशिष्ट दृष्टि स्व से निकला। क्या यह सच नहीं है कि हमने स्वयं संविधान की भावनाओं के अनुरूप न देश के लोगों के अंदर भारत के संस्कार को लेकर जागृति पैदा की न उसके अनुसार व्यवस्थाओं की रचना की?
 
महात्मा गांधी ने 15 अगस्त, 1947 को कोई वक्तव्य जारी नहीं किया। उन्होंने अपने साथियों से कहा कि क्या ऐसे ही स्वराज के लिए हमने संघर्ष किया था? उन्होंने स्पष्ट लिखा कि हमें अंग्रेजों से राजनीतिक स्वतंत्रता मिल गई किंतु सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक स्वतंत्रता के लिए पहले से ज्यादा लंबे संघर्ष और परिश्रम की आवश्यकता है। हम आप गांधी जी को स्वतंत्रता दिवस विरोधी घोषित कर देंगे? उन्होंने न जाने कितनी बार बोला और लिखा कि हम अंग्रेजों से केवल राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष नहीं कर रहे हैं। 
 
भारत ही एकमात्र देश है जो दुनिया को दिशा दे सकता है। भारत का ध्येय अन्य देशों से भिन्न है। धर्म वह क्षेत्र है जिसमें भारत दुनिया में सबसे बड़ा हो सकता है। यह सच है कि भारत को समझने वाले ज्यादातर मनीषियों ने ऐसे भारत की कल्पना की जो अपने धर्म, अध्यात्म, संस्कृति और सभ्यता के आधार पर ऐसा महान और आदर्श देश बनेगा जिससे विश्व सीखेगा कि सद्भाव, संयम, त्याग और साहचर्य के आधार पर कैसे कोई राष्ट्र महान बन सकता है। भारत इसी चरित्र को लेकर  खड़ा होगा और संपूर्ण विश्व उसका अनुसरण करेगा। विश्व गुरु कहने के पीछे भाव भी यही है। किंतु जब आप हम क्या हैं और क्या होना है यही नहीं समझेंगे तो राष्ट्र का निश्चित लक्ष्य ओझल हो जाता है।
 
इस संदर्भ में मोहन भागवत की अगली पंक्ति भी देखनी चाहिए। 'ऐसी परीस्थिति समाज की, क्योंकि जो आवश्यक स्वतंत्रता में स्व का अधिष्ठान होता है, वह लिखित रूप में संविधान से पाया है, लेकिन हमने अपने मन को उसकी पक्की नींव पर आरूढ़ नहीं किया है। हमारा स्व क्या है? राम, कृष्ण, शिव, यह क्या केवल देवी-देवता हैं, या केवल विशिष्ट उनकी पूजा करने वालों के हैं? ऐसा नहीं है। राम उत्तर से दक्षिण भारत को जोड़ते हैं।’ 
 
उन्होंने कहीं नहीं कहा कि पौष शुक्ल द्वादशी को स्वतंत्रता दिवस मनाना है। इसे प्रतिष्ठा द्वादशी के नाम से संपूर्ण देश से मनाने की अपील की। जिन्हें भारतीय पंचांग व तिथियों की गणना, कैलेंडर तथा एकादशी के महत्व का ज्ञान नहीं उनके लिए समझना कठिन होगा। हमारे यहां वैकुंठ एकादशी, बैकुंठ द्वादशी आदि यूं ही स्थापित नहीं हुए। यह भारत का स्व है। भागवत ने कहा कि हमें स्वतंत्रता थी लेकिन वह प्रतिष्ठित नहीं हुई थी। रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के साथ वह प्रतिष्ठित हुई इसलिए उसे प्रतिष्ठा द्वादशी के रूप में मनाया जाना चाहिए। 
 
थोड़ा दुष्प्रचारों से अलग होकर सोचिए कि आखिर आक्रमणकारियों ने हमारे धर्म स्थलों हमले और उनको ध्वस्त क्यों किया? इसीलिए कि हमारा स्व मर जाए, उन स्थलों, प्रतिस्थापित प्रतिमाओं या निराकार स्वरूपों को लेकर हमारे अंदर का आस्था विश्वास नष्ट हो, उनके प्रति हम अपमानित महसूस करें? आक्रमण, ध्वंस, जबरन निर्माण और दासत्व के समानांतर प्रतिकार व मुक्ति के संघर्ष सतत् चलते रहे। उन सबके लिए संघर्ष करने वाले बलिदानियों को हम क्या मानते हैं? 
 
गुरु गोविंद सिंह, छत्रपति शिवाजी, लाचित बोड़फुकन आदि हमारे लिए स्वतंत्रता के महान सेनानी थे या नहीं? वस्तुत: स्वतंत्रता के लिए लंबा संघर्ष हुआ जिनका मूल लक्ष्य स्व की प्रतिस्थापना थी। इस संदर्भ में अयोध्या के श्रीराम जन्मभूमि मंदिर मुक्ति का आंदोलन किसी के विरोध के लिए नहीं, स्व जागृत करने और पाने के लिए था। राजनीतिक नेतृत्व इस रूप में से लेता तो आंदोलन इतना लंबा चलता ही नहीं। ध्यान रखिए, भागवत उस कार्यक्रम में बोल रहे थे जहां श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास के महासचिव चंपत राय को राष्ट्रीय देवी अहिल्या पुरस्कार प्रदान किया गया। उन्होंने कहा कि यह दिन अयोध्या में राम मंदिर के पुनर्निर्माण और भारतीय संस्कृति की पुनर्स्थापना का प्रतीक बन गया है। जिनके लिए अयोध्या आंदोलन ही गलत हो वे इस भाव को नहीं समझ सकते।
 
तब भी मान लीजिए कि किसी का डॉ. भागवत या संघ की सोच से मतभेद होगा। किंतु जो उन्होंने कहा बहस उस पर होगी या जो कहा नहीं उस पर? क्या इस तरह का झूठ फैलाना और लोगों के अंदर गुस्सा, उत्तेजना, हिंसा का भाव पैदा करना संविधान की प्रतिष्ठा है? क्या भारतीय स्वतंत्रता के पीछे ऐसे ही राजनीतिक चरित्र और संस्कार की भावना थी? राहुल गांधी विपक्ष के नेता हैं और उन्हें पद और गरिमा का भान होना चाहिए। वस्तुत: डॉक्टर भागवत का भाषण नहीं होता, तब भी किसी बहाने उन्हें यह बोलना था। वे परंपरागत माओवादी, नक्सलवादी या आरंभिक कम्युनिस्टों की तरह की भाषा लगातार बोल रहे हैं। 
 
ये लोगों को भड़काकर विद्रोह के लिए यही बोलते थे कि धार्मिक कट्टरपंथियों, फासिस्ट शक्तियों का विस्तार हो रहा है, सत्ता पर इनका कब्जा है, पूंजीपति उद्योगपति सारे शोषण के आधार पर सत्ता का लाभ लेते हुए धन इकट्ठा कर रहे हैं तो राज्य व्यवस्था को उखाड़ फेंकना है। यही बात राहुल गांधी जी बोल रहे हैं। 2019 लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद धीरे-धीरे उनका इस रूप में रूपांतरण हुआ है और भारत व विश्व के अल्ट्रा वामपंथी अल्ट्रा सोशलिस्ट आदि उनके रणनीतिकार हैं और उनकी भाषा उसी अनुरूप है। 
 
चूंकि लोकसभा चुनाव से मुस्लिम मतों का रुझान कांग्रेस की ओर दिखा है और इसे बनाए रखने पर पूरा फोकस है। लगता है जितना संघ का विरोध करेंगे, आक्रामक होंगे हमारे पक्ष में वोटो का ध्रुवीकरण होगा। वास्तव में डॉ. भागवत ने तो एक संतुलित विचार दिया जबकि राहुल गांधी की बात हिंसा और उत्तेजना पैदा करने वाली है। कांग्रेस के परंपरागत नेताओं को भी विचार करना चाहिए कि क्या इस सोच से उनका जन समर्थन बढ़ेगा? क्या यह उन मूल्यों के के विरुद्ध आघात नहीं होगा जिनके लिए स्वतंत्रता संघर्ष हुआ? क्या यह अंततः भारतीय मानस के हित में होगा?

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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