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कर्नाटक में भाजपा के हारने की वजह कांग्रेस नहीं, वह खुद है

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अवधेश कुमार

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम पूर्व आकलनों के अनुरूप ही माने जाएंगे। ज्यादातर चुनाव पूर्व सर्वेक्षण एवं चुनाव उपरांत किए गए एग्जिट पोल इसी दिशा में इशारा कर रहे थे। भाजपा को कर्नाटक के आम लोग ही नहीं अपनी पार्टी और समर्थकों के अंदर भी सरकार और संगठन से असंतोष का आभास हो गया था तभी बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटाया गया।

गुजरात, उत्तराखंड और त्रिपुरा में मुख्यमंत्री बदलने के बाद परिणाम भाजपा के पक्ष में आए जबकि कर्नाटक में ऐसा नहीं हुआ। निश्चय ही यह विचार करने का विषय है कि आखिर कर्नाटक में भाजपा सत्ता से बाहर क्यों हो गई? कर्नाटक में कांग्रेस का नेतृत्व वही है जो 2018 में था। तब सिद्धारमैया मुख्यमंत्री थे और डीके शिवकुमार मंत्रिमंडल में होने के साथ प्रदेश के प्रभावी नेता थे।

शिवकुमार इस समय प्रदेश के अध्यक्ष हैं। मलिकार्जुन खड़गे तब कांग्रेस अध्यक्ष भले नहीं थे, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष के विश्वासपात्र होते हुए प्रदेश की दृष्टि से प्रभावी नेता थे। इस तरह कांग्रेस के नेतृत्व में ऐसा परिवर्तन नहीं आया जिसकी ओर आकर्षित होकर वही जनता उसे सत्ता में वापस लाए जिसने 2018 में हरा दिया था। मतों और सीटों के आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस की विजय असाधारण है। लगभग 43 प्रतिशत मत एवं 224 में से 135 सीट सामान्य विजय नहीं मानी जा सकती। तो ऐसा हुआ क्यों?

एक सामान्य विश्लेषण यह है कि जनता दल– सेक्यूलर का मत 2018 के मुकाबले 5 प्रतिशत कम हुआ और कांग्रेस का मत लगभग उतना ही बढ़ गया। इसका अर्थ हुआ कि भाजपा विरोधी मतों का कांग्रेस के पक्ष में ध्रुवीकरण हुआ। यानी मुस्लिम और ईसाई मत जद- से की ओर उस तरह नहीं गया जैसे पिछले चुनाव में गया था। हालांकि भाजपा के मतों में केवल .35 प्रतिशत मामूली कमी आई। यानी उसका मत लगभग समान रहा। यह उसके लिए संतोष का कारण नहीं हो सकता। तटीय कर्नाटक को छोड़ दें तो भाजपा को सभी क्षेत्र में पराजय मिली है।

इसका अर्थ यह हुआ कि कांग्रेस ने भाजपा के गढ़ों को भी कमजोर किया है। क्यों?  कांग्रेस संगठन के स्तर पर अचानक इतनी सशक्त नहीं हो गई कि उसको इतनी बड़ी विजय मिल जाए पूरा। कांग्रेस का विश्लेषण देखें तो राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा, भ्रष्टाचार सहित सांप्रदायिकता के विरुद्ध उसका अभियान तथा कांग्रेस की जनकल्याणकारी संबंधी घोषणाओं को अपनी विजय का मुख्य कारण मान रहे हैं। राहुल गांधी ने कहा कि एक ओर क्रॉनी कैपिटलिज्म थी तो दूसरी ओर गरीब। इसके साथ-साथ भाजपा ने नफरत और हमने मोहब्बत से लड़ाई लड़ी और जनता ने बता दिया कि नफरत के साथ वो नहीं है।

कांग्रेस को अपना विश्लेषण करने का अधिकार है। राहुल गांधी की यात्रा 20 विधानसभा क्षेत्रों से गुजरी थी, जिनमें 16 पर कांग्रेस जीती है। कम से कम यह तो नहीं माना जा सकता कि इन 20 विधानसभा क्षेत्रों से ही बाकी के सारे क्षेत्रों के लोग प्रभावित हो गए। यह किसी दृष्टि से गले नहीं उतर सकता। हां, यह मान सकते हैं कि कांग्रेस नेताओं को साथ लाने में उस यात्रा की थोड़ी भूमिका रही। कांग्रेस अपनी विजय के उत्साह में भाजपा के शासनकाल में अर्थव्यवस्था खराब हो गई यह तथ्यात्मक रूप से गलत है।

2018 के मुकाबले 2023 में कर्नाटक अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में शानदार प्रदर्शन करने वाला राज्य है। केंद्र और प्रदेश सरकार की जन कल्याणकारी कार्यक्रम भी जनता तक पहुंचे हैं। चुनाव के दौरान सारे सर्वेक्षणों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता सभी नेताओं से उत्तर थी। बावजूद भाजपा इतनी बुरी पराजय को प्राप्त हुई है तो इसका कारण उसी के अंदर तलाशना उचित होगा।

कोई भी विजय विरोधी के पराजय पर ही खड़ी होती है। अगर चुनाव परिणाम का ठीक से मूल्यांकन करें तो निष्कर्ष यह आएगा कि यह कांग्रेस की विजय से ज्यादा भाजपा की पराजय है। विरोधी के विरुद्ध शक्तिशाली संघर्ष तभी करते हैं जब आप अपने घर में एकजुट हो। अगर घर के अंदर ही संघर्ष हो तो आपकी उर्जा का बड़ा अंश उसे संभालने तथा क्षति पूर्ति में लग जाता है। विरोधी का मुकाबला करने के लिए आपके पास ऊर्जा कम बचती है। भाजपा कर्नाटक में किस सीमा तक अंदरूनी लड़ाई में उलझी हुई थी इसका पता उम्मीदवारों की पहली सूची जारी करने के साथ ही चल गया था। अपने क्षेत्रों के बड़े-बड़े नेता विद्रोह में झंडा उठाकर खड़े हो गए। बावजूद न उस सूची में परिवर्तन हुआ और न उसके अनुरूप आगे उम्मीद वारों के चयन में सतर्कता बरती गई। कर्नाटक की हालत यह थी कि नेता- कार्यकर्ता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह एवं अन्य नेताओं की रैलियों में आते थे, तालियां बजाते थे, नारे लगाते थे लेकिन वापस जाने पर उनमें बड़ी संख्या या तो निष्क्रिय होकर घर बैठ जाती थी या अपने उम्मीदवारों का विरोध कर रही थी।

जगदीश शेट्टार मुख्यमंत्री रहे हैं। उम्मीदवारों की सूची जारी होने के बाद उन्हें पता चला कि उनकी टिकट काट दी गई है। यह एक उदाहरण साबित करता था कि कर्नाटक भाजपा किस दुर्दशा का शिकार है। जगदीश शेट्टार भी लिंगायत हैं। अगर उन्होंने कांग्रेस के पक्ष में प्रचार किया कि मेरे साथ अपमान हुआ है तो कम से कम इनके प्रभाव क्षेत्र में इसका असर होना था। भाजपा के कितने विद्रोही जीते, कितने नहीं जीते इसका आकलन इस आधार पर किया जाना चाहिए कि उन्होंने भाजपा को कितनी सीटों पर पराजित कराया।

इस अंतर्कलह का कारण क्या था? भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को आम जनता के साथ सदस्यों और समर्थकों के बीच सरकार के विरुद्ध बढ़ते असंतोष का आभास हो गया था। इसलिए उन्होंने बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटाया। किंतु हटाने के बावजूद अगले मुख्यमंत्री के चयन से लेकर चुनाव तक उनकी हैसियत शीर्ष नेता की ही बनी रही है। बसवराज बोम्मई उनकी पसंद के मुख्यमंत्री रहे और उम्मीदवारों में उनकी सबसे ज्यादा चली है। इसके पहले गुजरात, उत्तराखंड और त्रिपुरा में मुख्यमंत्री बदले गए, लेकिन उसके बाद मुख्यमंत्रियों के चयन तथा चुनावी रणनीति में उन नेताओं की प्रभावी भूमिका नहीं रही। उसके परिणाम सामने हैं। यानी केंद्रीय नेतृत्व ने वहां अपनी कल्पना के अनुसार नेतृत्व का चयन किया तथा चुनावी रणनीति इनके मार्गदर्शन में बनाया गया। कर्नाटक में इसके उलट येदियुरप्पा का वर्चस्व बना रहा। येदियुरप्पा भाजपा के बड़े नेता थे और पार्टी को शीर्ष पर लाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद उनकी भूमिका मार्गदर्शक की तो हो सकती थी निर्णायक नेता की नहीं।

बसवराज बोम्मई येदियुरप्पा की पसंद के मुख्यमंत्री थे जो नेतृत्व की प्रभाविता कायम नहीं कर सके। उनके साथ भाजपा के परंपरागत कार्यकर्ताओं- नेताओं का सहज संबंध नहीं बन सका। कर्नाटक में शीर्ष पर येदियुरप्पा के साथ कुछ नेताओं के इर्द-गिर्द पार्टी और सरकार की पूरी औथोरिटी सिमट गई थी। दूसरी पार्टी से आए नेताओं को महत्व मिलना भाजपा के लिए ज्यादातर राज्यों में हानिकारक साबित हो रहा है और कर्नाटक ने फिर इसकी पुष्टि की है।

सत्ता का लाभ कुछ बाहर से आए नेता ज्यादा उठाने लगेंगे तो निष्ठावान, ईमानदार समर्थकों नेताओं के अंदर असंतोष पैदा होगा और वह चुनाव में उदासीनता या विरोध में मत देने के रूप में प्रकट होगा। इस तरह भाजपा कर्नाटक में अंदर से विभाजित पार्टी थी जबकि कांग्रेस इस बार एकजुट होकर लड़ रही थी। यही दोनों में अंतर था।
बजरंगबली मुद्दा थे तभी तो डीके शिवकुमार ने पूरे राज्य में मंदिर बनाने और पुराने का जीर्णोद्धार करने की घोषणा की। लेकिन उम्मीदवार तो बजरंगबली यानी हिन्दुत्व का प्रतिनिधि दिखना चाहिए। स्थानीय लोगों की दृष्टि में अगर कोई उनकी विचारधारा के अनुरूप दावेदार था और उसकी जगह दूसरे को उतारा गया तो वे अंतर्मन से उसे जिताने के लिए दिन रात एक नहीं कर सकते। इस तरह भाजपा के लिए इस चुनाव परिणाम में सीख यही है कि वह अपना घर संभालने पर फोकस करे। बाहरी नेताओं को पार्टी में लाने या उन्हें नेतृत्व देने में पूरी सतर्कता बरते अन्यथा उसे आगे भी झटका मिल सकता है। हिमाचल चुनाव भाजपा केवल अपने विद्रोहियों के कारण हारी। कर्नाटक ऐसा दूसरा राज्य साबित हुआ है। इसकी पुनरावृत्ति नहीं हो इसके लिए गहरी समीक्षा और उसके अनुरूप भविष्य का व्यवहार सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। भाजपा ध्यान रखे कि नरेंद्र मोदी जैसे लोकप्रिय और प्रभावी नेता के होते हुए अगर राज्यों में इस तरह पार्टी अंतर्कलह का शिकार हो रही है तो अगर इतना प्रभावी और लोकप्रिय नेतृत्व नहीं हुआ तो क्या दशा होगी।
नोट :  आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का आलेख में व्‍यक्‍त विचारों से सरोकार नहीं है।

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