संत विनोबा भावे कहते थे- वर्तमान शिक्षा यानी पढ़ना-लिखना और कुर्सी पर बैठकर हुक्म चलाना। पढ़ना सीखने का मतलब काम छोड़ना। पढ़े-लिखे लोगों को काम करने में शर्म मालूम होती है। यह बिलकुल खतरनाक हालत है कि समाज में देह और बुद्धि अलग-अलग हो। भगवान ने सबको हाथ और बुद्धि दोनों ही दी हैं। इसलिए जो विद्वान हों, वे कर्मनिष्ठ भी हों और जो कर्मनिष्ठ हों, वे विद्वान भी हों। इस तरह से ज्ञान और कर्म, पढ़ाई और परिश्रम दोनों अगर जुड़ जाएंगे तो देश की उन्नति होगी और देश एकरस होगा।
आज हमारी समस्या यह है कि हमारे यहां ज्ञान और कर्म के बीच मेलजोल नहीं रहा। काम करने वालों के पास ज्ञान नहीं पहुंचता और पढ़ने-लिखने वाले जो हैं, वे परिश्रम वाला काम नहीं करते हैं। इसलिए चिंतन को बुनियाद ही नहीं मिलती। ऐसा राहु-केतु का समाज आज है। एक को केवल सिर है, उसको हाथ-पांव नहीं और दूसरे को हाथ-पांव हैं, परंतु सिर नहीं।
ईश्वर की ऐसी योजना होती तो वह सबको सिर और हाथ-पांव दोनों क्यों देता? कुछ लोगों को केवल सिर ही सिर और कुछ लोगों को केवल हाथ-पांव ही दे सकता था। परंतु उसकी योजना है कि सबका बौद्धिक और शारीरिक विकास दोनों हो, जैसे शब्द और अर्थ दोनों भिन्न-भिन्न होते हुए भी एकसाथ ही रहते हैं, वैसे ही ज्ञान और कर्म एकसाथ हो जाने चाहिए। ये दोनों कपड़े के ताने-बाने जैसे हैं, दोनों मिलकर ही जीवन का वस्त्र बनता है। परंतु हमारे यहां तो पढ़ा-लिखा मनुष्य श्रेष्ठ और परिश्रम करने वाला नीच माना जाता है।
गिबन ने लिखा है कि उत्पादक परिश्रम से घृणा करने के कारण रोम की सभ्यता का ह्रास हुआ। संत विनोबा की यह बात सब आत्मसात करेंगे तो सबको समस्या समाधान सहजता से सूझेगा अन्यथा देह, मन, परिवार, समाज और देश यानी हम सबके अंतरमन में संतुलन बनाना मुश्किल होगा।
मानव समाज ने आज तक जो भी हासिल किया है, वह ज्ञान और परिश्रम के मेलजोल से ही हासिल हुआ है। ज्ञान को हासिल करने में जो परिश्रम लगता है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान है, पर बिना ज्ञान के परिश्रम हाड़तोड़ मेहनत है। जब परिश्रम या मेहनत का ज्ञान देह को हो जाता है तो ऐसी देह, ज्ञान व परिश्रम को अपनी सहज दिनचर्या का ही हिस्सा बना लेती है। जब ज्ञान और परिश्रम देह में घुल-मिल जाते हैं तो ज्ञान और परिश्रम का पूरा मेलजोल हुआ- यह अनुभव होता है। इस अनुभूति को ज्ञान से नहीं, परिश्रम से ही जानना-समझना संभव हो पाता है। परिश्रम से मन और शरीर को जो प्राकृतिक आनंद की प्राप्ति होती है, वह कल्पना से नहीं परिश्रम से ही अनुभव कर सकते हैं।
बिना परिश्रम की देह जल्दी हांफने और थकने लगती है। जैसे जल निरंतर प्रवाहित रहता है, तो जल को निरंतर तरोताजा बनाए रखता है। तालाब और पोखरों के जल में प्रवाहहीनता के कारण ताजगी हमेशा नहीं बनी रह पाती। यही बात कुएं के साथ भी है। यदि कुएं से पानी निकाला ही नहीं जाए तो वह अपनी ताजगी खो बैठता है। इसी से नई बातें सीखते-सिखाते लोग आजीवन तरोताजा बने रहते हैं।
कहने को तो हमारा जीवन बहुत बड़ा है, पर हमें यह भी जानना-समझना चाहिए कि जगत का ज्ञान जीवन के मुकाबले हमेशा ही अनवरत व अंतहीन बना रहता है। यदि हम आखिरी सांस तक भी कुछ सीखना चाहे तो सीख सकते हैं, फिर भी अनंत ज्ञान बिना जाने-समझे-पढ़े अनदेखा ही रह जाता है और हमें चिरबिदाई लेनी ही होती है। आजीवन जिज्ञासु बने रहना हमारी जीवनी शक्ति को निरंतर प्रवाहमान रखने का सरलतम उपाय है। इसीलिए ज्ञान और कर्म जीवन में गतिशीलता के पर्याय जैसे ही हैं।
जैसे-जैसे हमारा ज्ञान और कर्म जीवन में विस्तार पाता है, हमारा आत्मविश्वास प्रबल होता है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि मनुष्य-मनुष्य के बीच जो भेद है, वह केवल आत्मविश्वास की उपस्थिति तथा अभाव के कारण ही है। जिसमें आत्मविश्वास नहीं है, वही नास्तिक है। प्राचीन धर्मों के अनुसार जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता, वह नास्तिक है।
नूतन धर्म कहता है, जो आत्मविश्वास नहीं रखता, वही नास्तिक है। इस विश्वास का अर्थ है- सबके प्रति विश्वास, क्योंकि तुम सब एक ही हो। अपने प्रति प्रेम का अर्थ है- सब प्राणियों से प्रेम, समस्त पशु-पक्षियों से प्रेम, सब वस्तुओं से प्रेम, क्योंकि तुम सब एक हो। यही महान विश्वास जगत को अधिक अच्छा बना सकेगा।
जिसे हम विवेक या सदसत् विचार कहते हैं, उसका अपने जीवन के प्रति क्षण एवं प्रत्येक कार्य में उपयोग करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए हमें सत्य की कसौटी जान लेनी चाहिए और वह है पवित्रता तथा एकत्व का ज्ञान। जिससे एकत्व की प्राप्ति हो, वही सत्य है। प्रेम सत्य है, घृणा असत्य है, क्योंकि वह अनेकत्व को जन्म देती है। घृणा ही मनुष्य को मनुष्य से पृथक करती है अतएव वह गलत और मिथ्या है, यह एक विघटक शक्ति है, वह पृथक करती है- नाश करती है।
स्वामी विवेकानंद ने कहा है- प्रेम जोड़ता है, प्रेम एकत्व स्थापित करता है। सभी एक हो जाते हैं- मां संतान के साथ, संपूर्ण जगत पशु-पक्षियों के साथ एकीभूत हो जाता है, क्योंकि प्रेम ही सत् है, प्रेम ही भगवान है और यह सभी कुछ उसी एक प्रेम का ही प्रस्फुटन है। प्रभेद केवल मात्रा के तारतम्य में है, किंतु वास्तव में सभी कुछ उसी एक प्रेम की ही अभिव्यक्ति है।
अतएव हम लोगों को यह देखना चाहिए कि हमारे कर्म अनेकत्व विधायक हैं अथवा एकत्व संपादक। यदि वे अनेकत्व विधायक हैं तो उनका त्याग करना होगा और यदि वे एकत्व संपादक हैं, तो उन्हें सत्कर्म समझना चाहिए। इसी प्रकार विचारों के संबंध में भी सोचना चाहिए। देखना चाहिए कि उनसे विघटन या अनेकत्व उत्पन्न होता है या एकत्व? और वे एक आत्मा को दूसरी आत्मा से मिलाकर एक महान शक्ति उत्पन्न करते हैं या नहीं? यदि करते हैं, तो ऐसे विचारों को अंगीकार करना चाहिए अन्यथा उन्हें अपराध मानकर त्याग देना चाहिए।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)