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शीतलहर की चुनौती और हमारा पिलपिला व्यवस्था तंत्र

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अनिल जैन

नया साल शुरू हो चुका है और उससे पहले शुरू हो चुकी है हाड़ कंपकंपा देने वाली सर्दी। हर साल जब हिमालय पर्वतमाला पर बर्फ गिरती है, तो पहाड़ी प्रदेशों और मैदानी इलाकों में शीतलहर चलने लगती है। लेकिन अभी जो शीतलहर शुरू हुई है, वह सिर्फ हिमालयी प्रदेशों और गंगा-यमुना के मैदानों तक ही सीमित नहीं है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और रेगिस्तानी राजस्थान के साथ ही महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और सुदूर छत्तीसगढ़ तथा ओडिशा तक ठंड से ठिठुर रहे हैं। सभी जगह न्यूनतम तापमान के पुराने रिकॉर्ड टूट रहे हैं। कई जगह तापमान 0 डिग्री को पार कर गया है। सर्दी के सितम से बेघर और साधनहीन लोगों के मरने की खबरें भी आने लगी हैं।


दिल्ली और एनसीआर यानी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सर्दी इस बार हर रिकॉर्ड तोड़ रही है। गुडगांव में साल के आखिरी दिन न्यूनतम तापमान 0.4 डिग्री रहा, तो राजस्थान के भीलवाड़ा में 0.6 डिग्री। मध्यप्रदेश के महाकोशल और बुंदेलखंड अंचल के जंगलों में कई जगहों पर बर्फ की महीन परत जम गई है। प्रदेश के एकमात्र हिल स्टेशन पचमढ़ी में पारा लुढ़ककर -2.0 डिग्री तक पहुंच गया है। मैदानी इलाकों में खजुराहो और उमरिया जिले में तापमान 1 डिग्री सेल्सियस तक दर्ज किया जा चुका है। उधर सर्दी में भी गर्मी का अहसास कराने वाला महाराष्ट्र का विदर्भ और सुदूर छत्तीसगढ़ भी इस बार आश्चर्यजनक रूप से ठिठुर रहा है।

सर्दी के इस शुरुआती सितम से सामान्य जनजीवन बुरी तरह गड़बड़ा गया है। बेघर लोगों के लोगों के मरने की खबरें भी आ रही हैं, हालांकि बड़े शहरों से निकलने वाले समाचार पत्रों में अब सर्दी से होने वाली मौतों की खबरों को जगह मिलनी लगभग बंद हो गई है। कुछ साल पहले तक ऐसा नहीं था तथा अखबारों में नियमित खबरें छपती थीं और हाई कोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट उन खबरों का संज्ञान लेकर संबंधित राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों से जवाब तलब करती थीं। अभी तक अखबारों में महज 2 लोगों के मरने की खबर ही आ पाई है- एक मध्यप्रदेश से और दूसरी दिल्ली से। लेकिन हकीकत यह है कि उत्तरप्रदेश और बिहार में भी सर्दी की वजह से लोगों की जानें गई हैं।

कोहरे के कारण सड़क, रेल और हवाई यातायात बुरी तरह प्रभावित हुआ है। नदी-नालों और तालाबों के जमने की खबरें भी आ रही हैं। कुछ जगहों पर तो पानी की आपूर्ति की पाइपलाइन तक जम गई है। वैसे सर्दी हमारे नियमित मौसम चक्र का ही हिस्सा है, कड़ाके की सर्दी इसका हल्का-सा विचलन भर है। सर्दी और भीषण सर्दी अंत में हमें कई तरह से फायदा ही पहुंचाती है। सबसे बड़ी बात है कि कड़ाके सर्दी की सर्दी हमें आश्वस्त करती है कि ग्लोबल वॉर्मिंग उतनी सन्निकट नहीं है जितनी कि अक्सर हम मान बैठते हैं।

मौसम की मौजूदा अति हमारे लिए कोई नई बात नहीं है। हर कुछ साल के बाद हमारा इससे सामना होता रहता है- कभी सर्दी में, कभी गर्मी तो कभी बारिश में। मौसम कोई भी हो, जब भी उसकी अति दरवाजे पर दस्तक देती है तो हमारी सारी व्यवस्थाओं की पोल का पिटारा खुलने लगता है। फिलहाल सर्दी की बात की जाए तो हमेशा की तरह इस बार भी सबसे ज्यादा पोल खुली है पूर्वानुमान लगाने वाले मौसम विभाग की। बारिश का मौसम खत्म होते ही हमें बताया गया था कि इस बार सर्दी कम पड़ेगी। जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वॉर्मिंग की चर्चाओं के बीच इस भविष्यवाणी पर किसी को भी हैरानी नहीं हुई।

हालांकि मौसम चक्र में आ रहे बदलाव के चलते सर्दी की शुरुआत कहीं जल्दी तो कहीं देरी से हुई, लेकिन दिसंबर शुरू होते ही सर्दी ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए। फिर मौसम विभाग की ओर से बताया गया कि यह कड़ाके ठंड चंद दिनों की ही मेहमान है, जल्द ही मौजूदा उत्तर-पश्चिमी हवाओं का रुख बदलेगा और तापमान सामान्य के करीब पहुंच जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सर्दी के तेवर और तीखे हुए तो शीतलहर के एक चक्र की घोषणा हो गई।

सिर्फ मौसम विभाग ही नहीं, बाकी सरकारी महकमों का भी यही हाल है। फुटपाथों, रेलवे स्टेशनों और भूमिगत पारपथों पर रात गुजारने वाले बेघर लोगों के लिए रैनबसेरों की व्यवस्था अभी भी कई जगह अधूरी है या बिलकुल ही नहीं है, जबकि सुप्रीम कोर्ट कई बार इस मामले में राज्य सरकारों को फटकार लगाते हुए पुख्ता बंदोबस्त करने के निर्देश दे चुका है। जहां रैनबसेरों की व्यवस्था करना संभव नहीं है, वहां अलाव जलाने के लिए लकड़ी मुहैया कराई जाती है, लेकिन यह भी नहीं हो पा रहा है।

दरअसल शहरी और अर्द्धशहरी इलाकों में मौसम की मार से लोगों के मरने के पीछे सबसे बड़ी वजह है शहरी नियोजन में सरकारी तंत्र की अदूरदर्शिता। जबसे आवासीय कॉलोनियों की बसाहट के मामले में विकास प्राधिकरणों और गृह निर्माण मंडलों के बजाय निजी भवन निर्माताओं और कॉलोनाइजरों का दखल बढ़ा है, तब से रोज कमाकर रोज खाने वालों और बेघर लोगों के लिए आवासीय योजनाएं हाशिए पर खिसकती गई हैं।

करोड़ों लोग आज भी फुटपाथों, रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर या टाट और प्लास्टिक आदि से बनी झोपड़ियों में रात बिताते हैं। बहुत से लोगों के पास तो पहनने को गरम कपड़े या ओढ़ने को रजाई-कंबल तो दूर, तापने को सूखी लकड़ियां तक उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे लोगों को मौसम की मार से बचाने के लिए अदालतें हर साल सरकारों और स्थानीय निकायों को लताड़ती रहती हैं, लेकिन सरकारी तंत्र की 'मोटी चमड़ी' पर ऐसी लताड़ों का कोई असर नहीं होता।

यह शीतहलर हमें बता रही है कि जब मौसम के हल्के से विचलन का सामना करने की हमारी तैयारी नहीं है और हमारी व्यवस्थाएं पंगु बनी हुई हैं, तो जब ग्लोबल वॉर्मिंग जैसी चुनौती हमारे सामने होगी तो उसका मुकाबला हम कैसे करेंगे? (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है)

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