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विश्व बाल श्रम विरोधी दिवस: कैलाश सत्यार्थी के एक लंबे संघर्ष का प्रतिफल

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रोहित श्रीवास्तव

वैश्विक स्तर पर बाल अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में 12 जून एक महत्वपूर्ण और विशेष दिन है। हर साल दुनियाभर में इस दिन को सांकेतिक तौर पर विश्व बाल श्रम विरोधी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसको मनाए जाने का पहला उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि दुनिया का कोई भी अबोध बच्चा बाल श्रम के कुचक्र में न फंसा हो। दूसरा, ऐसे बच्चों को शिक्षा से जोड़ने और आगे बढ़ाने के लिए लोगों में जागरूकता पैदा करना है, ताकि ये बच्चे अपने सपनों और बचपन को आज़ाद हवा में जी भर के जी सकें। 
 
इस ऐतिहासिक दिन के अस्तित्व में आने के पीछे एक ऐसे व्यक्ति का समर्पण और संघर्ष छुपा है जिसने अपना सारा जीवन बच्चों की बेहतरी और कल्याण के प्रति समर्पित कर दिया। बात हो रही है कैलाश सत्यार्थी की। साल 2014 में जब उन्हें बच्चों के संरक्षण और शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट काम करने के लिए नोबेल शांति पुरस्कार मिला तो किसी ने उनसे पूछा कि नोबेल के बाद क्या? जिसके जवाब में सत्यार्थी ने कहा था कि यह पुरस्कार, ‘कॉमा’ है ‘फुल स्टॉप’ नहीं।  उनका यह कथन उनके दृढ़ संकल्पी और आत्मविश्वासी प्रवृत्ति को दर्शाता है। कोरोना काल में भी दुनियाभर के कई मंचों पर सत्यार्थी बच्चों के हितों के लिए आवाज उठाते रहे। एक तरफ सत्यार्थी अपने फेयर शेयर टू एंड चाइल्ड लेबर’ अभियान के माध्यम से बच्चों के लिए दुनियाभर के संसाधनों एवं सामाजिक सुरक्षा की नीतियों में प्रभावी हिस्‍सेदारी सुनिश्चित करने की लगातार मांग कर रहे हैं या तो दूसरी तरफ जस्टिस फॉर एव्री चाइल्ड कैम्पेन के माध्यम से वह यौन शोषण और बलात्कार के पीडि़त बच्‍चों को कानूनी और स्‍वास्‍थ्‍य, पुनर्वास, शिक्षा और कौशल विकास में मदद कर रहे हैं। साल 1980 में बचपन बचाओ आंदोलन को स्थापित करने वाले सत्यार्थी एक बार जब कुछ ठान लेते हैं तो उसको पूरा करके मानते हैं। वह चार दशकों से एक ऐसी बाल अनुकूल दुनिया के निर्माण में लगे हैं जहां हर बच्चा आज़ाद हो और बाल श्रम, दुर्व्यापार और हर प्रकार के शोषण से मुक्त हो। 
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कई वर्षों तक सत्यार्थी ने जब जमीनी स्तर पर बच्चों के लिए लड़ाई लड़ी तो उन्हें एहसास हुआ कि दुनिया में बच्चों के अधिकारों और सामाजिक संरक्षण के प्रति लोगों में जागरूकता का अभाव है। सत्यार्थी ने इसके लिए कुछ करने की सोची और एक विस्तृत कार्ययोजना पर काम करने लग गए। कुछ ही समय बाद, उन्होंने दुनिया में बच्चों की आवाज उठाने का बिगुल बजा दिया था। एक विश्‍वव्‍यापी जन-जागरुकता यात्रा नाम था ‘ग्‍लोबल मार्च अगेंस्‍ट चाइल्‍ड लेबर’। बच्चों के प्रति सत्यार्थी की संवेदनशीलता और करुणा का ही परिणाम था ‘ग्लोबल मार्च’। ऐसा इसलिए कि न सत्यार्थी किसी धनी वर्ग से आते थे, न सत्यार्थी के पास किसी प्रभावशाली व्यक्ति का साथ था। सीमित संशाधनों और असीमित इच्छा-शक्ति ने एक ऐतिहासिक यात्रा का आयोजन कर दिखाया था। 17 जनवरी 1998 को फिलिपींस की राजधानी मनीला से इस ऐतिहासिक ‘ग्लोबल मार्च’ यात्रा का आगाज हुआ। इस मार्च ने 103 देशों से गुजरते हुए 80 हजार किलोमीटर की दूरी तय की थी। लगभग पांच महीने चलने के बाद इस विश्वव्यापी मार्च का समापन 6 जून 1998 को आईएलओ के जेनेवा स्थित मुख्‍यालय पर हुआ। इसमें 100 से अधिक देशों के राष्‍ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों, वैश्विक नेताओं और राजा-रानियों ने भी शिरकत की थी।
 
गौरतलब है कि सत्यार्थी ने अपनी दो मांगों के लिए इस मार्च का आयोजन किया था। पहली मांग थी कि बाल मजदूरी के खिलाफ एक अंतरराष्ट्रीय कानून बने और दूसरी थी कि किसी एक दिन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्व बाल श्रम विरोधी दिवस के रूप में मान्यता मिले। 
 
वैश्विक इतिहास में इतनी विशाल और वैचारिक यात्रा का आयोजन पहले नहीं हुआ था। सत्यार्थी की तपस्या और मेहनत रंग लाने की शुरुआत हो गई थी। इसकी गवाही आईएलओ के प्रतिनिधियों की तालियों की करतल ध्‍वनि दे रहीं थी जो उन्होंने सत्यार्थी और उन बच्चों के सम्मान में बजाई थी। जब वे  'चाइल्ड लेबर... डाउन... डाउन',  'बाल मजदूरी बंद करो... बंद करो...'  के गगनभेदी नारों के साथ आईएलओ के मुख्‍यालय (जेनेवा) में प्रवेश कर रहे थे। सत्यार्थी के साथ 600 पूर्व बाल मजदूर भी पहुंचे थे। जब यह मार्च आईएलओ मुख्‍यालय पहुंचा तो वहां वार्षिक अधिवेशन चल रहा था। यह इस सशक्त मार्च का ही प्रभाव था कि आईएलओ के तत्कालीन प्रमुख हेनसन ने उस समय बच्चों का स्वागत किया था। 
 
आईएलओ ने एक कदम आगे बढ़ते हुए अपने सारे प्रोटोकोल्स तोड़ते हुए पहली बार एक गैर सरकारी व्‍यक्ति कैलाश सत्‍यार्थी और दो पूर्व बाल मजदूरों को अपने वार्षिक अधिवेशन को सम्‍बोधित करने के लिए आमंत्रित किया। अधिवेशन में 150 देशों के श्रम मंत्री, विभिन्न सरकारों के वरिष्ठ पदाधिकारी, उद्योग और मजदूर संगठनों के प्रतिनिधि सहित करीब 2000 लोग भाग ले रहे थे। सत्यार्थी ने आईएलओ के अधिवेशन को संबोधित करते हुए अपनी दोनों मांगों को दोहराया। 
 
 
यह ग्‍लोबल मार्च अगेंस्‍ट चाइल्‍ड लेबर का ही असर था कि एक साल बाद ही 17 जून 1999 को आईएलओ बाल श्रम और बाल दासता के खिलाफ सर्वसम्मति से कनवेंशन-182 कानून पारित करने के लिए बाध्य हुआ। आईएलओ कनवेंशन-182 कानून बाल दासता और बंधुआ बाल मजदूरी पर रोक लगाता है। यह बच्चों को बाल मजदूर बनाने, बच्‍चों से भीखमंगी करवाने, पोर्नोग्राफी उद्योग में उन्‍हें शामिल करने पर भी पूरी तरह से प्रतिबंध करता है। इस अंतरराष्ट्रीय संधि पर भारत सहित दुनिया के 187 देश हस्ताक्षर कर चुके हैं। जुलाई, 2020 में दक्षिण प्रशांत महासागर के एक द्वीपसमूह टोंगा ने 187वें सदस्‍य देश के रूप में आईएलओ कन्‍वेंशन-182 को अपनाया है। टोंगा की स्वीकृति के बाद कन्वेंशन-182 आईएलओ के इतिहास में वैश्विक स्‍तर पर सबसे अधिक समर्थन वाला कन्‍वेंशन हो गया है। यही नहीं, आईएलओ ने सत्यार्थी की दूसरी मांग को भी मान लिया। साल 2002 में 12 जून को अंतरराष्ट्रीय बाल श्रम विरोधी दिवस के रूप में मनाने की घोषणा कर दी गई। 
 
विश्व बाल श्रम विरोधी दिवस बाल अधिकारों के कर्मठ योद्धा कैलाश सत्यार्थी के निस्वार्थ भाव से बच्चों की सेवा और समर्पण के प्रतीक के रूप में देखा जाना चाहिए। जो कर्तव्यनिष्ठा और करुणा के साथ इस दुनिया को बच्चों के लिए एक ‘बेहतर दुनिया’ बनाने में लगे हैं। सत्यार्थी अब तक लाखों बच्चों की ज़िंदगियों में खुशियों का प्रकाश से रोशन कर चुके हैं जो कहीं न कहीं बाल श्रम, बाल दुर्व्यापार और बाल यौन शोषण के अंधेरी गलियों में घुट-घुट कर गुमनामी में जी रहे थे। सत्यार्थी का संगठन बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) लाखों बच्चों को बाल श्रम से मुक्त करा चुका है। बीबीए की सहयोगी संस्था कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फ़ाउंडेशन (केएससीएफ़) नीति निर्माण और बाल अधिकारों से जुड़े अध्ययनों में सरकारों की मदद करता है। सत्यार्थी और उनकी पत्नी सुमेधा कैलाश द्वारा स्थापित देश का पहला दीर्घकालीन पुनर्वास केंद्र बाल आश्रम (ट्रस्ट) ऐसे शिक्षित और सजग बच्चों की फौज तैयार कर रहा है जो आगे चल कर राष्ट्र निर्माण में अहम भूमिका निभाएंगे। इसमें कोई पूर्व बाल मजदूर कोई वकील है, कोई फिजियोथेर्पिस्ट है, कोई इंजीनियर है तो कोई समाज की मुख्य धारा में रहकर समाज को बदलने में लगा है।  
 
बाल दासता की लड़ाई आसान नहीं है। कैलाश सत्यार्थी वर्षों से इस सामाजिक बुराई को भारत ही नहीं दुनिया से जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन यह लंबी और कठिन लड़ाई है। इसे अगर मिटाना है तो हम सभी को अपने अंदर एक ‘कैलाश सत्यार्थी’ पैदा करना होगा। हमारे बच्चों के सुनहरे भविष्य को सुनिश्चित करना हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी है इसे हमारे सामूहिक प्रयासों से ही इसे परास्त किया जा सकता है।
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