Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

माओवादियों ने फिर साबित किया वे आतंकवादी ही हैं

हमें फॉलो करें माओवादियों ने फिर साबित किया वे आतंकवादी ही हैं
webdunia

अवधेश कुमार

छत्तीसगढ़ के बीजापुर में माओवादियों ने फिर साबित किया कि आतंकवाद की तरह खून और हिंसा के  अलावा उनका कोई मानवीय उद्देश्य नहीं। पूरा देश शहीद और घायल जवानों के साथ है।

करीब चार घंटे चली मुठभेड़ में 15 माओवादियों के ढेर होने का मतलब उनको भी बड़ी क्षति हुई है। साफ है कि वे भारी संख्या में घायल भी हुए होंगे। किंतु, 22 जवानों का शहीद होना बड़ी क्षति है। 31 से अधिक घायल जवानों का अस्पताल में इलाज भी चल रहा है।  इससे पता चलता है कि माओवादियों ने हमला और मुठभेड़ की सघन तैयारी की थी। जो जानकारी है माओवादियों द्वारा षडयंत्र की पूरी व्यूह रचना से घात लगाकर की गई।

गोलीबारी में घिरने के बाद भी जवानों ने पूरी वीरता से सामना किया, अपने साथियों को लहूलुहान होते देखकर भी हौसला नहीं खोया, माओवादियों का घेरा तोड़ते हुए उनको हताहत किया तथा घायल जवानों और शहीदों के शव को घेरे से बाहर भी निकाल लिया। ऐसे बहादुरों को पूरा देश अभिनंदन कर रहा है।

कई बातें सामने आ रहीं हैं। सुरक्षाबलों को जोनागुड़ा की पहाड़ियों पर भारी संख्या में हथियारबंद माओवादियों के होने की जानकारी मिली थी। छत्तीसगढ़ के माओवाद विरोधी अभियान के पुलिस उप महानिरीक्षक ओपी पाल की मानें तो रात में बीजापुर और सुकमा जिले से केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के कोबरा बटालियन, डीआरजी और एसटीएफ के संयुक्त दल के दो हजार जवानों को औपरेशन के लिए भेजा गया था।

माओवादियों ने इनमें 700 जवानों को तर्रेम इलाके में जोनागुड़ा पहाड़ियों के पास घेरकर तीन ओर से हमला कर दिया। बीजापुर-सुकमा जिले का सीमाई इलाका जोनागुड़ा माओवादियों का मुख्य इलाका है। यहां माओवादियों की एक बटालियन और कई प्लाटून हमेशा तैनात रहता है। इस इलाके की कमान महिला माओवादी सुजाता के हाथों है।

एक जानकारी यह है कि पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी या पीएलजीए का कमांडर हिड़मा आसपास था और कई दिनों से उसकी गतिविधियों को ट्रैक किया जा रहा था। बहरहाल, इस घटना के बाद फिर लगता है मानो हमारे पास गुस्से में छटपटाना और मन मसोसना ही विकल्प है। यह प्रश्न निरंतर बना हुआ है कि आखिर कुछ हजार की संख्या वाले हिंसोन्माद से ग्रस्त ये माओवादी कब तक हिंसा की ज्वाला धधकाते रहेंगे?  ध्यान रखिए माओवादियों ने 17 मार्च को ही शांति वार्ता का प्रस्ताव रखा था। इसके लिए उन्होंने तीन शर्तें रखी थीं-- सशस्त्र बल हटें, माओवादी संगठनों से प्रतिबंध खत्म हों और जेल में बंद उनके नेताओं को बिना शर्त रिहा किया जाए। एक ओर बातचीत का प्रस्ताव और इसके छठे दिन 23 मार्च को नारायणपुर में बारुदी सुरंग विस्फोट में पांच जवान शहीद हो गए। दोपहर में सिलगेर के जंगल में घात लगाए माओवादियों ने हमला कर दिया था। ऐसे खूनी धोखेबाजों और दुस्साहसों की लंबी श्रृंखला है।

साफ है कि इसे अनिश्चितकाल के लिए जारी रहने नहीं दिया जा सकता। पुलिस की ओर से यह जानकारी दी जा रही है कि वर्तमान हमले में 180 तैनात माओवादी लड़ाकों के अलावा कोंटा एरिया कमेटी, पामेड़ एरिया कमेटी, जगरगुंडा एरिया कमेटी और बासागुड़ा एरिया कमेटी के लगभग 250 अन्य भी थे।

यह प्रश्न तो उठता है कि आखिर दो दशकों से ज्यादा की सैन्य - असैन्य कार्रवाइयों के बावजूद उनकी ऐसी शक्तिशाली उपस्थिति क्यों है? निस्संदेह, यह हमारी पूरी सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। यहीं से राजनीतिक इच्छाशक्ति प्रश्नों के घेरे में आती है। पिछले करीब ढाई दशक से केंद्र और माओवाद प्रभावित राज्यों में ऐसी कोई सरकार नहीं रही जिसने इन्हें खतरा न बताया हो।

यूपीए सरकार ने आंतरिक सुरक्षा के लिए माओवादियों को सबसे बड़ा खतरा घोषित किया था। केंद्र के सहयोग से अलग-अलग राज्यों में कई सैन्य अभियानों के साथ जन जागरूकता, सामाजिक-आर्थिक विकास के कार्यक्रम चलाए गए हैं। लेकिन समाज विरोधी, देश विरोधी, हिंसाजीवी माओवादी रक्तबीज की तरह आज भी चुनौती बन कर उपस्थित हैं। हमें यहां दो पहलुओं पर विचार करना होगा। भारत में नेताओं, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, एक्टिविस्टों का एक वर्ग माओवादियों की विचारधारा को लेकर सहानुभूति ही नहीं रखता उनमें से अनेक इनकी कई प्रकार से सहयोग करते हैं। राज्य के विरुद्ध हिंसक संघर्ष के लिए वैचारिक खुराक प्रदान करने वाले ऐसे अनेक चेहरे हमारे आपके बीच हैं। इनमें कुछ जेलों में डाले गए हैं, कुछ जमानत पर बाहर हैं। इनके समानांतर ऐसे भी हैं जिनकी पहचान मुश्किल है।

गोष्ठियों, सेमिनारों, लेखों, वक्तव्यों आदि में जंगलों में निवास करने वालों व समाज की निचली पंक्ति वालों की आर्थिक- सामाजिक दुर्दशा का एकपक्षीय चित्रण करते हुए ऐसे तर्क सामने रखते हैं जिनका निष्कर्ष यह होता है कि बिना हथियार उठाकर संघर्ष किए इनका निदान संभव नहीं है। माओवादियों के पास लड़ाके उपलब्ध हो रहे हैं तो इसका अर्थ है कि इन तर्कों के आधार पर कुछ को प्रभावित करना संभव है। यह समस्या की जड़ और मूल है। तो क्या किया जाए?

अब समय आ गया है जब हमारे आपके जैसे शांति समर्थक आगे आकर सच्चाइयों को सामने रखें। अविकास, अल्पविकास, असमानता, वंचितों, वनवासियों का शोषण आदि समस्याओं से कोई इनकार नहीं कर सकता। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। केंद्र और राज्य ऐसे अनेक कल्याणकारी कार्यक्रम चला रहे हैं जो धरातल तक पहुंचे हैं। उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बनाए जा रहे और बने हुए आवास, स्वच्छता अभियान के तहत निर्मित शौचालय, ज्योति योजनाओं के तहत बिजली की पहुंच, सड़क योजनाओं के तहत दूरस्थ गांवों व क्षेत्रों को जोड़ने वाली सड़कों का लगातार विस्तार, किसानों के खाते में हर वर्ष 6000 भुगतान, वृद्धावस्था व विधवा आदि पेंशन, पशुपालन के लिए सब्सिडी जैसे प्रोत्साहन, आयुष्मान भारत के तहत स्वास्थ्य सेवा, कई प्रकार की इंश्योरेंस व पेंशन योजनाएं को साकार होते कोई भी देख सकता है।

हर व्यक्ति की पहुंच तक सस्ता राशन उपलब्ध है। ये सब कार्यक्रम हवा में नहीं है। इसके अलावा अलग-अलग राज्य सरकारों के कार्यक्रम हैं। लड़कियों की शिक्षा, उनकी शादी आदि के लिए ज्यादातर राज्य सरकारें अब एक निश्चित मानदेय प्रदान करती हैं। बाढ़, दुर्भिक्ष आदि में पहले की तुलना में लोगों तक सुविधाओं की बेहतर पहुंच हैं। सरकारों के अलावा अनेक धार्मिक - सामाजिक संस्थाएं भी इनके बीच काम कर रहीं हैं। कोई नहीं कहता कि स्थिति शत-प्रतिशत बदल गई है। लेकिन बदलाव हुआ है, स्थिति बेहतर होने की संभावनाएं पहले से ज्यादा मजबूत हुई हैं तथा पहाड़ों, जंगलों पर रहने वालों को भी इसका अहसास हो रहा है। इसमें जो भी इनका हित चिंतक होगा वो इनको झूठ तथ्यों व गलत तर्कों से भड़का कर हिंसा की ओर मोड़ेगा, उसके लिए विचारों की खुराक उत्पन्न कराएगा, संसाधनों की व्यवस्था करेगा या फिर जो भी सरकारी, गैर सरकारी कार्यक्रम हैं वे सही तरीके से उन तक पहुंचे, उनके जीवन में सुखद बदलाव आए इसके लिए काम करेगा?

साफ है माओवादियों के थिंक टैंक और जानबूझकर भारत में अशांति और अस्थिरता फैलाने का विचार खुराक देने वाले तथा इन सबके लिए संसाधनों की व्यवस्था में लगे लोगों पर चारों तरफ से चोट करने की जरूरत है। दुर्भाग्य है कि जब पुलिस - प्रशासन, सरकारें इनके खिलाफ कार्रवाई करती हैं तो मानवाधिकारों और ऐसे अन्य कई नामों से प्रतिष्ठित चेहरे, बुद्धिजीवियों, अधिवक्ताओं की फौज पक्ष में खड़ी हो जाती है। ऐसा माहौल बनाया जाता है मानो ये सब तो समाज हितेषी हैं और केवल वैचारिक विरोध के कारण सरकार इनका दमन कर रही है। इसी तरह सैन्य कार्रवाई का भी विरोध होता रहा है। तो आवश्यकता दृढ़ता और ईमानदारी के साथ तीनों मोर्चों पर काम करने की है।

सैन्य अभियान माओवादियों के समूल नाश के लक्ष्य की दृष्टि से सघन किया जाए। इसके समानांतर कल्याण योजनाएं ठीक तरह उन तक पहुंचे उसके लिए काम करने वाले वहां आगे आएं। साथ ही इनकी मूल जड़ यानी विचार व संसाधन सहित अन्य प्रकार से सहयोग करने वालों को भी चिन्हित कर जो जैसा डिजर्व करते हैं उनके खिलाफ वैसी कार्रवाई हो। इन लोगों को समझना चाहिए था कि हिंसा किसी के हित में नहीं। लेकिन जब ये नहीं समझते तो फिर कानून के तहत इनको समझाने की व्यवस्था करनी ही होगी। निश्चित रूप से इस मार्ग की बाधाएं हमारी राजनीति है। किसी भी राजनीतिक दल का इनके पक्ष में खड़ा हो जाने से कार्रवाई मुश्किल हो जाती है। तो यह प्रश्न भी विचारणीय है कि आखिर ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई में राजनीतिक एकता कैसे कायम हो?

(इस आलेख में व्‍यक्‍‍त विचार लेखक के निजी अनुभव और निजी अभिव्‍यक्‍ति है। वेबदुनि‍या का इससे कोई संबंध नहीं है।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

योगा या जुम्बा बॉडी के लिए क्या सही हैं जानिए 3 आसान तरीकों से