[ यह कोई रेक्वेइम, फ़ातिहा या शोकलेख नहीं है! ]
हमारा जीवन अनेक प्रकार के चाहे-अनचाहे "मानवद्रोहों" से मिलकर बनता है, ये और बात है कि शायद हम हमेशा उसके बारे में बात ना करें। ख़ुद से भी नहीं!
कवि चंद्रकांत देवताले अकसर इस भाषा में बात किया करते थे कि वि.ख. ने मुझे ज़लील किया, भ.रा. ने मेरे साथ दग़ा किया, आ.दु. ने मेरी पीठ में छुरा घोंपा, और इनकी तुलना में प्रभात त्रिपाठी ही मेरा सच्चा दोस्त साबित हुआ, चंद्रकांत पाटील ने हमेशा मेरा साथ दिया, और सुदीप बनर्जी ही था, जिसे मैं अपना कह सकता था!
सुदीप कम उम्र में चल बसे थे। और चंद्रकांत देवताले इससे बेहद विचलित थे। तब उन्हें मृत्युओं ने घेर रखा था और हर नई मृत्यु की ख़बर उन्हें बेचैन कर देती थी, जिसमें पत्नीशोक सबसे प्रमुख! उन्हीं निष्कवच दिनों में वे अकसर कहा करते थे कि "सुदीप के बाद एक तुम ही मुझे वैसे मिले हो, सुशोभित!"
इसके बावजूद अचरज नहीं अगर ज़िंदगी के अंतिम सालों में चंद्रकांत देवताले यह कहते हुए पाए जाते हों कि वि.ख., भ.रा., आ.दु., रा.जो. की तरह सुशोभित ने भी मेरे साथ ग़द्दारी की!
हमारा जीवन अनेक चाहे-अनचाहे "मानवद्रोहों" से मिलकर बनता है। और अगर आपको दग़ाबाज़ कहकर पुकारा जाता है तो इसे भी आपको शिरोधार्य करना चाहिए। क्योंकि आप जीवन में हर चीज़ नहीं पा सकते, और जिस चीज़ को आप छोड़ते हैं, वह आपके विरुद्ध चली जाती है!
ख़ोर्ख़े लुई बोर्ख़ेस की एक कहानी में कहा गया है कि जिन चीज़ों को हम याद रखना छोड़ देते हैं, वे धीरे-धीरे कहीं खो जाती हैं और बहुधा तो किन्हीं आवारा घोड़ों की आवाजाही ने ही किसी प्राचीन रंगशाला के अवशेषों को बचाकर रखा था! इसका उल्टा भी सच है! जब आप किसी चीज़ को याद करने लगते हैं तो वो धीरे-धीरे आकार लेने लगती है और वास्तविक चीज़ों से भी ठोस स्वरूप में उभरकर हमारे सामने खड़ी हो जाती है।
हमारा जीवन स्मृति की इन्हीं प्रेतबाधाओं से बना होता है!
मैंने चंद्रकांत देवताले के संस्मरणों को बहुत सुविधाजनक रूप से भुला रक्खा था, क्योंकि वे इतने सारे और इतने भावुक कर देने वाले हैं कि उनकी बाढ़ में मेरे पैर उखड़ सकते हैं। शायद मैं चंद्रकांत देवताले की यादों से जुड़ी एक किताब लिख देना चाहूं। बशर्ते मैं वैसा चाहूं!
मुझे इस बात से घृणा है कि किसी की मृत्यु के अवसर पर हम रूंधे गले से उसे याद करें, जबकि जीते जी हमने उन्हें सालों से फ़ोन भी ना लगाया हो! और मैं आपको बताऊं, अपने और दूसरों के प्रति यह निष्ठुरता मैंने चंद्रकांत देवताले से ही सीखी है, जिन्होंने कहा था : "ऐसे ज़िन्दा रहने से नफ़रत है मुझे / जिसमें हर कोई आए और मुझे अच्छा कहे / मैं अपनी तारीफ़ें सुनता भटकता रहूं / मेरे कोई दुश्मन ना हों और मैं इसे अपने हक़ में / एक अच्छी बात मानूं!" देखिए, देवतालेजी मैं आज भी आपकी तारीफ़ों के पुल नहीं बांध रहा!
आप देख सकते हैं मैंने चंद्रकांत देवताले को ना केवल अपना उस्ताद मानकर अपनी आस्तीन पर कविता का गंडा बंधवाया था, बल्कि उनके उसूलों पर मैं क़ायम भी रहा हूं, उन्हीं की क़ीमत चुकाकर। और भले ही चंद्रकांत देवताले मुझे विश्वासघाती कहें और अपने इर्द-गिर्द मौजूद विनयशीलों और विश्वस्तों और आज्ञाकारियों को मुतमईन होकर निहारें, मन ही मन वे इस बात को स्वीकार करते होंगे कि "सुशोभित ट्रुली हैज़ माय लेगसी, एंड आई हैव क्रिएटेड अ मॉन्सटर!"
क्योंकि अकारण ही वे स्वयं को "ब्रह्मराक्षस" और मुझे "ब्रह्मराक्षस का शिष्य" नहीं कहा करते थे। इधर के सालों में मैंने ख़ुद को ही "ब्रह्मराक्षस" कहना शुरू कर दिया है। चेला अपने उस्ताद की गद्दी पर इसी तरह आसीन हो जाता है!
मैं इस कल्पना से पिछले कई सालों से घृणा करता आ रहा हूं कि मुझे चंद्रकांत देवताले के लिए एक "ऑबिच्यूरी" लिखना पड़ेगी। मैं चंद्रकांत देवताले पर वस्तुनिष्ठ पृथकता से "मेमॉयर" नहीं लिख सकता। ख़ुद चंद्रकांत देवताले की तर्ज पर कि "मां पर नहीं लिख सकता कविता"। मैं चंद्रकांत देवताले के बारे में इस अंदाज़ में बात नहीं कर सकता कि उनसे मेरी पहली मुलाक़ात फलां दिन हुई थी, उन्होंने मुझे फलां किताब भेंट की, उनसे मैंने ढिकां चीज़ सीखी और आज उनके निधन पर मैं शोकाकुल हूं। मेरे जैसे चंद्रकांत देवताले के पटुशिष्य को चाहे और कुछ शोभा दे या ना दे, पाखंड शोभा नहीं दे सकता!
जाने अनजाने कितने ही सालों से मैं इस कल्पना से अरुचि अनुभव करता रहा हूं कि एक दिन आएगा, जब चंद्रकांत देवताले इस दुनिया में नहीं होंगे और चुप रहना मेरे बस में नहीं होगा। लेकिन जैसे सब बोलते हैं, वैसे बोलना उन्होंने मुझे सिखाया नहीं है, इसलिए मैं कुछ और बोलूंगा। काश, वे आज मेरी मदद कर पाते! क्योंकि जाने कितने ही शोकलेख लिखने में मैंने उनकी मदद की है!
2007-09 की मेरी डायरियां चंद्रकांत देवताले के संस्मरणों से भरी हुई हैं, जिन्हें रोज़ लिखकर मैं स्वयं ही उन्हें दिखलाता था। कोई एक दर्जन कविताएं मैंने उन पर लिखी होंगी, और वे कहते थे, मुझ पर इतने लोगों ने लिखा, जैसा तुमने लिखा, वैसा किसी और ने नहीं! फिर दबी ज़ुबान से कहते, यहां गांव-खेड़े में जाहिलों के बीच तुम कहां से उग गए, मुझे हैरत है! फिर कहते, अगर तुम दिल्ली के सेंट स्टीफ़ेंस से पढ़े होते तो तुम्हारी मेधा आज तुम्हारा मुकुट बन गई होती! फिर यह जोड़ देते कि तुम्हारे भीतर बुद्धिमत्ता और मूर्खता का अजब "कॉकटेल" है! वे यह जोड़ना भूल गए कि तुम्हारे भीतर मानवीयता और अमानवीयता का अजब घालमेल है!
अथाह संशयों से भरे किसी जासूस की तरह चंद्रकांत देवताले अपने आसपास हो रही चीज़ों का ग़ौर से मुआयना करते थे, और जब सुशोभित ने स्वयं उनका मुआयना करना शुरू किया, तो उससे उन्हें एक क़िस्म का रोमांच ही हुआ। लेकिन बाद के सालों में जब मैंने दो-एक बार उनकी बातों का प्रतिकार किया तो इससे वे आहत हुए। वे इस बात को भूल गए कि उन्होंने ही सुशोभित को वैसे औद्धत्य की दीक्षा दी थी! या शायद उन्हें इस बात की उम्मीद नहीं रही होगी कि भस्मासुर की तरह सुशोभित इस हुनर की आज़माइश उन पर ही करेगा!
मैं जानता हूं, वे आख़िरी समय तक मेरे फ़ोन का इंतज़ार करते रहे थे। और ऐसा नहीं है कि मैंने कोशिशें नहीं कीं। लेकिन चंद औपचारिक वार्ताओं के बाद उन कोशिशों ने दम तोड़ दिया। मैं चंद्रकांत देवताले से इस तरह से बात नहीं कर सकता था कि "सर, आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार जीतने की बधाई!" मैंने हमेशा चंद्रकांत देवताले से इस तरह बात की है कि "ज़िंदगी के जासूस, ये देखिए, मैं आपके द्वारा सुनाए क़िस्सों को लिख लाया हूं, पूरे सतहत्तर क़िस्से!" तिस पर वे बच्चों की तरह ताली बजाकर कहते, जैसे कि केवल वे ही कर सकते थे, कि "अरे वाह, गुस्ताव यैनुक ने भी इसी तरह से काफ़्का को बिना बताए उसकी बातों को दर्ज कर लिया था"! और तब मैं कहता था कि "आज से मेरा नाम गुस्ताव यैनुक!"
उन्हें मुझे ऐसे ही भेंट में काफ़्का दे दिया था! फिर ब्रेख़्त, फिर लोर्का, फिर नेरूदा, फिर मिवोश! इंदौर में अपनी निजी लाइब्रेरी मुझे दिखाते हुए कहा, देखो मैंने ग्राहम ग्रीन भी पढ़ा है! फिर मुझे दिलीप चित्रे की कविताओं का अनुवाद दिखाया। कभी तुकाराम के अभंग सुनाते, जो उनके मुताबिक़ उन्हें तुका ने सपने में सुनाए थे। कभी बाल्टीमोर के किसी पादरी का आत्मवक्तव्य। कभी वैनगॉग के ख़त। कभी हिंदी साहित्य संसार की दुरभिसंधियां और अफ़वाहें। और सबसे अंत में ताड़ी के गुड़ की बात छिड़ने पर उठते और चौके से गुड़-घी बना लाते! और तब शुरू होता, हल्दी, अजवाइन, काली मिर्च और भुनी हुई लहसुन के गुणों का पारायण!
मुझे ख़ुशी होती अगर आज चंद्रकांत देवताले यह तक़रीर पढ़ रहे होते। लेकिन अफ़सोस कि इस तक़रीर की शर्त ही यह है कि इसे कवि की ग़ैरमौजूदगी में पढ़ा जाए!
इससे ज़्यादा मैं अभी नहीं कह पाऊंगा!
विदा, ब्रह्मराक्षस! मैं तुम्हारा सजल उर शिष्य!
दूसरी दुनिया में मुलाक़ात होगी अगर वैसी कोई दुनिया कहीं हुई तो!
और यदि मुमकिन हुआ तो वहां पर हम अपनी दोपहर की नियमित बातचीतों का सिलसिला जारी रखेंगे, "डबरे पर सूरज का बिम्ब" के ऐन उसी पन्ने से शुरू करके, जहां हमने पिछली बार अपनी बात को ख़त्म किया था!