पुण्यतिथि (12 सितंबर पर) विशेष
Mahant Avaidyanath: वाकया करीब डेढ़ दशक पहले का होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघ चालक का किसी कार्यक्रम में गोरखपुर आना हुआ था। तब बड़े महाराज गोरक्षपीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ जीवित थे। उस समय संघ या भाजपा का कोई भी बड़ा पदाधिकारी या नेता गोरखपुर आता था तो बड़े महाराज से मिलने का समय निकाल ही लेता था। इसी क्रम में सुदर्शन जी का गोरखनाथ स्थित मठ में आना हुआ।
एक रिपोर्टर के रूप में मैं भी वहां मौजूद था। इत्तफाक से बड़े महाराज के उस कमरे में भी इंट्री भी हो गई जिसमें मुलाकात होनी थी। पेन और डायरी निकालकर एक कोने में सिमट गया। लगभग समान उम्र के दो इतिहास पुरुषों की बात सुनने लगा। बातें स्वास्थ्य को लेकर हुई। सुदर्शन जी शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ्य थे। बड़े महाराज तब कुछ भूलने लगे थे। हर दम की तरह उनकी बात के केंद्र में विशाल हिंदू समाज की एकता और अयोध्या में राम जन्म भूमि पर भव्य राम मंदिर के निर्माण पर केंद्रित रही। इस दौरान उन्होंने कई बार राम मंदिर का जिक्र किया।
यह संस्मरण बताने का यही मकसद है कि राम मंदिर उनके जीवन भर का वह सपना था जो उनके दिलोदिमाग पर अमिट रूप से चस्पा हो गया था। वह चाह रहे थे कि उनके जीते जी वहां भव्य राम मंदिर बन जाए। पर दैव की मर्जी के आगे किसी की नहीं चलती। लेकिन गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि आत्मा अजर अमर होती है। यकीनन बड़े महाराज की आत्मा अयोध्या में अपने सपनों का राम मंदिर बनते देख बेहद खुश होगी। तब तो और भी जब तीन पीढ़ियों के संघर्ष के बाद यह काम उनके ही शिष्य मौजूदा गोरक्षपीठाधीश्वर और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ही देखरेख में हो रहा है।
प्रारंभिक जीवन : उनका जन्म 28 मई 1921 को गढ़वाल (उत्तरांचल) जिले के कांडी गांव में जन्मे रायसिंह बिष्ट विष्ट के इकलौते पुत्र थे कृपाल सिंह बिष्ट (अवैद्यनाथ)। बचपन में माता-पिता, कुछ बड़े हुए तो पाल्य दादी की मौत से अनाथ हुए तो मन विरक्त हो गया। ऋषिकेश में सन्यासियों के सत्संग से हिंदू धर्म, दर्शन, संस्कृत और संस्कृति के प्रति रुचि जगी तो शांति की तलाश में केदारनाथ, ब्रदीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री और कैलाश मानसरोवर की यात्रा की। वापसी में हैजा होने पर साथी उनको मरा समझ आगे बढ़ गए।
ठीक हुए तो मन और विरक्त हो उठा। इसके बाद नाथ पंथ के जानकार योगी निवृत्तिनाथ, अक्षयकुमार बनर्जी और गोरक्षपीठ के सिद्ध महंत रहे गंभीरनाथ के शिष्य योगी शांतिनाथ से भेंट (1940)। निवृत्तनाथ द्वारा ही महंत दिग्विजयनाथ से भेंट। पहली भेंट में शिष्य बनने की अनिच्छा। कराची के एक सेठ की उपेक्षा के बाद शांतीनाथ की सलाह पर गोरक्षपीठ में आकर नाथपंथ में दीक्षित होना। क्या यह सब यूं ही हो गया? शायद नहीं? यह सब इसलिए होता गया क्योंकि उनको हिंदू समाज का नाथ बनना था।
अपने उस गुरु ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ की मदद करनी थी जो पूरी मुखरता एवं दमदारी से उस समय हिंदुत्व की बात कर रहे थे, जब इसे गाली समझा जाता था।
मीनाक्षीपुरम के धर्मांतरण की घटना से आहत होकर राजनीति में आए : ब्रह्मलीन महंत अवैद्यनाथ मूलतः धर्माचार्य थे। वह देश के संत समाज में बेहद सम्माननीय एवं सर्वस्वीकार्य थे। दक्षिण भारत के रामनाथपुरम मीनाक्षीपुरम में हरिजनों के सामूहिक धर्मांतरण की घटना से वह खासे आहत हुए थे। इसका विस्तार उत्तर भारत में न हो इसके लिए वे सक्रिय राजनीति में आए।
चार बार सांसद एवं पांच बार रहे विधायक : उन्होंने चार बार (1969, 1989, 1091 और 1996) गोरखपुर सदर संसदीय सीट से यहां के लोगों का प्रतिनिधित्व किया। अंतिम लोकसभा चुनाव को छोड़ उन्होंने सभी चुनाव हिंदू महासभा के बैनर तले लड़ा। लोकसभा के अलावा उन्होंने पैन बार (1962, 1967, 1969, 1974 और 1977) में मानीराम विधानसभा का भी प्रतिनिधित्व किया था।
1984 में शुरू राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के शीर्षस्थ नेताओं में शुमार श्री रामजन्म भूमि यज्ञ समिति के अध्यक्ष व रामजन्म भूमि न्यास समिति के आजीवन सदस्य रहे। योग व दर्शन के मर्मज्ञ महंतजी के राजनीति में आने का मकसद हिंदू समाज की कुरीतियों को दूर करना और राम मंदिर आंदोलन को गति देना रहा है। बहुसंख्यक समाज को जोड़ने के लिए सहभोजों के क्रम में उन्होंने बनारस में संतों के साथ डोमराजा के घर सहभोज किया।
महंत अवैद्यनाथ ने वाराणसी व हरिद्वार में संस्कृत का अध्ययन किया। महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद से जुड़ी शैक्षणिक संस्थाओं के अध्यक्ष व मासिक पत्रिका योगवाणी के संपादक भी रहे। उन्होंने ताउम्र अयोध्या स्थित जन्मभूमि पर भव्य एवं दिव्य राम मंदिर का सपना देखा। उस सपने को साकार होता देख यकीनन स्वर्ग में वह खुश हो रहे होंगे। यह खुशी यह सोचकर और बढ़ जाती होगी कि जब यह सपना मूर्त रूप ले रहा है तो उनके ही शिष्य के हाथों उत्तर प्रदेश की कमान भी है।
बड़े महाराज का अंतिम 10 वर्ष का जीवन चमत्कार था : विज्ञान के इस युग में संभव है आप यकीन न करें। पर बात मुकम्मल सच है। 9 साल पहले (12 सितंबर 2014 ) गोरक्षपीठ के महंत अवैद्यनाथ का ब्रह्म्लीन होना सामान्य नहीं, बल्कि इच्छा मृत्यु जैसी घटना थी।
चिकित्सकों के मुताबिक उनकी मौत तो 2001 में तभी हो जानी चाहिए थी, जब वे पैंक्रियाज के कैंसर से पीड़ित थे। उम्र और ऑपरेशन के बाद ऐसे मामलों में लोगों के बचने की संभावना सिर्फ 5 फीसद होती है। इसी का हवाला देकर उस समय दिल्ली के एक नामी डॉक्टर ने ऑपरेशन करने से मना कर दिया था। बाद में ऑपरेशन के लिए तैयार हुए तो यह भी कहा कि ऑपरेशन सफल रहा तो भी बची जिंदगी मुश्किल से 3 वर्ष की होगी। पर बड़े महाराजजी उसके बाद 14 वर्ष तक जीवित रहे। ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर अक्सर पीठ के उत्तराधिकारी (अब पीठाधीश्वर और मुख्यमंत्री) योगी आदित्यनाथ से फोन पर बड़े महाराज का हाल-चाल पूछते थे। यह बताने पर की उनका स्वास्थ्य बेहतर है, हैरत भी जताते थे। बकौल योगी यह गुरुदेव के योग का ही चमत्कार था।
उनकी मौत एक सिद्ध संत की इच्छा मौत थी : उनकी इच्छा अपने गुरुदेव ब्रह्मलीन महंत दिग्विजय नाथ के पुण्यतिथि पर मंदिर में ही ब्रह्म्लीन होने की थी। उल्लेखनीय है कि इस अवसर पर गोरक्षनाथ मन्दिर में हर साल ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ की पुण्यतिथि सप्ताह समारोह का आयोजन होता है। 2014 में इसी कार्यक्रम के समापन समारोह के बाद उसी दिन फ्लाइट से योगी आदित्यनाथ शाम को दिल्ली और फिर गुड़गांव स्थित मेदांता में भर्ती अपने गुरुदेव का हाल चाल लेने गए। वहां उनके कान में पुण्यतिथि के कार्यक्रम के समापन के बाबत जानकारी दी। कुछ देर वहां रहे। चिकित्सकों से बात की।
सेहत रोज जैसी ही स्थिर थी। लिहाजा योगीजी अपने दिल्ली स्थित सांसद के रूप में मिले सरकारी आवास पर लौट आए। रात करीब 10 बजे उनके पास मेदांता से फोन आया कि उनके गुरु की सेहत बिगड़ गई है। पहुंचे तो देखा, वेंटीलेटर में जीवन का कोई लक्षण नहीं हैं। चिकित्सकों के कहने के बावजूद वे मानने को तैयार नहीं थे। वहीं महामृत्युंजय का जाप शुरू किया। करीब आधे घंटे बाद वेंटीलेटर पर जीवन के लक्षण लौट आए।
योगी को अहसास हो गया कि गुरुदेव के विदाई का समय आ गया है। उन्होंने धीरे से उनके कान में कहा, कल आपको गोरखपुर ले चलूंगा। यह सुनकर उनकी आंखों के कोर पर आंसू ढलक आए। योगीजी ने उसे साफ किया और लाने की तैयारी में लग गए। दूसरे दिन एयर एंबुलेंस से गोरखपुर लाने के बाद उनके कान में कहा, आप मंदिर में आ चुके हैं। बड़े महाराज के चेहरे पर तसल्ली का भाव आया। इसके करीब घंटे भर के भीतर उनका शरीर शांत हो गया।
नोट- यह संस्मरण उस समय छोटे महाराज (योगी आदित्यनाथ) ने एक कार्यक्रम में सुनाया था।