कोई किताब कैसे पागल होती है?

अनिरुद्ध जोशी
जब बुरे लोग सत्ता में आए तो पहले भयवश लोग उनका समर्थन करते थे, लेकिन बाद में लोगों को उनकी बातों में सचाई नजर आने लगी। आज तक लोग इसी तरह बुराइयों का समर्थन करते रहे हैं, क्योंकि लोग शक्ति के समर्थक होते हैं, सचाई के नहीं। दुनिया की कुछ विचारधाराएं हिंसा के बल पर ही अस्तित्व में आईं और आज उन विचारधाराओं को लोग अच्छा मानते हैं। सच यदि शक्तिशाली नहीं है तो उसके होने का क्या महत्व?
 
 
व्यक्ति, समाज, संगठन या देश उस ओर झुकते जाते हैं जिधर शक्ति होती है फिर वह चाहे बुरी ही क्यों न हो। यह देखा गया है कि लोग बुराइयों के अधीन रहकर यह सोचते हैं कि हम जिस भी विचारधारा का पालन कर रहे हैं, वह सच की राह पर चलने-चलाने वाली विचारधारा है। वह साम्यवादी, समानतावादी है, वह धर्मनिरपेक्ष है और वह शांति का समर्थन करती है। यह भी हो सकता है कि कुछ धार्मिक समूह कहें कि यही धर्म का सच्चा मार्ग है।
 
 
कई तरह के मसीहा हुए हैं। शायद आज के संदर्भ में यह शब्द सही नहीं है। कहना चाहिए कि कुछ ऐसे लोग या उनका समूह है, जो किसी भी तरह से अपना अस्तित्व कायम रखना या अपनी विचारधारा अनुसार मानव समाज बनाने की सोच रखता है। यह बहुत हास्यास्पद है कि पुराने कानून, व्यवस्था या सामाजिक संरचना को गलत साबित करते हुए नई व्यवस्था लागू करना, भले ही वह न्यायसंगत न हो। वह मानवता या महिलाओं के खिलाफ ही क्यों न हो?
 
 
अमेरिकी लेखक अप्टन सिंक्लेयर ने कहीं लिखा है- 'आदमी को आत्मा के अमरत्व में विश्वास करने के लिए लगा दो और उसका सब कुछ लूट लो। वह हंसते हुए इसमें तुम्हारी मदद भी करेगा।'
 
 
एक जमाना था, जब लोग किसी व्यक्ति के पीछे पागल हो जाते थे। फिर लोग अपने-अपने विश्वासों की किताब को लेकर पागल होने लगे। फिर सिद्धांतों और नियमों को लेकर और अब हालात यह है कि मनुष्य पागल है या नहीं? यह तो पता नहीं चलता, लेकिन कोई किताब जरूर पागल हो चली है।
 
 
माइकल जैक्सन अपने गाने और स्टेज की आधुनिक तकनॉलॉजी के माध्यम से भावनाओं का ऐसा गुबार पैदा करता है कि आपके भीतर जितने भी दमित भाव हैं, वे सब बाहर निकलकर आते हैं। उसका प्रस्तुतीकरण और काकस का खेल निराला था। उसी तरह कई ऐसे साधु-संत या प्रोफेट हुए हैं जिनके काकस से आप बच नहीं सकते।
 
 
हम यह सुनते आए हैं कि सभी धर्म एक ही बात कहते हैं या कि सभी धर्मों की उत्पत्ति एक ही से हुई है, लेकिन यह मानता कोई नहीं है, क्योंकि सभी अपने-अपने धर्मों के काकस से बंधे हुए हैं। सभी धर्मों की एकता या सर्वधर्म समभाव की भावना महज किताबों में है या कि नेताओं और धर्मगुरुओं के भाषणों में सिर्फ कहने के लिए ही है, मानने के लिए नहीं।
 
 
हमने पढ़े हैं सारे धर्मग्रंथ इसलिए हम कह सकते हैं कि धर्मग्रंथों में क्या है? सिर्फ भाषा और समझ का फर्क है। कितने मुसलमान और ईसाई हैं जिन्होंने वेद, उपनिषद, गुरुग्रंथ, धम्मपद और गीता को पढ़ा होगा? कितने हिन्दू और बौद्ध हैं जिन्होंने तनख, बाइबिल, हदीस और कुरआन को पढ़ा होगा? सामान्य जानकारी हासिल करके उस पर बहस करने वाले या अहम् रखने वाले लाखों लोग हैं। कहते भी हैं कि 'थोथा चना बाजे घना।'
 
 
जब संगठित धर्म नहीं थे तब सभ्यताएं होती थीं, कबीले होते थे और प्रत्येक सभ्यता या कबीलों के अपने-अपने अलग-अलग विश्वास और परंपराएं होती थीं। ये विश्वास और परंपराएं कई तरीके से निर्मित होती थीं। मुख्यत: पहली तो प्रकृति के खौफ से और दूसरी सामाजिक ताने-बाने और तीसरी अनुभव से। इसके अलावा चौथी निर्मित होती थी बुद्धि की खुराफात से।
 
 
प्रकृति के खौफ से लोग एकजुट होते और यह खौफ ही तरह-तरह के अनुष्ठान निर्मित करता था। जब हम सामाजिक ताने-बाने की बात करते हैं तो इसमें भूमि, स्त्री और पूंजी का महत्वपूर्ण किरदार होता था। इस किरदार में बुद्धि और बल का इस्तेमाल किया जाता था। बुद्धिमान, दार्शनिक या कि समाज सुधारक टाइप के लोग सामाजिक संतुलन बनाए रखने के लिए नए-नए फंडे या सिद्धांत निर्मित करते थे। इनमें से कई खुराफाती दिमाग के होते थे, जो एक परंपरा या सिद्धांत को नष्ट करने के लिए नई परंपरा और सिद्धांत को गढ़कर उसके साथ ईश्वर या प्रकृति का खौफ जोड़ देते थे जिससे कि वह परंपरा या सिद्धांत आसानी से समाज का अंग बन जाए।
 
 
प्राचीन समय में पूरे विश्व में विभिन्नता और विचित्रता के साथ ही वातावरण का सुहानापन और सौंधापन होता था। प्रत्येक मनुष्य की स्मृति में आज भी वह प्राचीन माहौल सुरक्षित है। गीता में कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन तेरे और मेरे कई जन्म हो चुके हैं, बस फर्क यह है कि मुझे उन सारे जन्मों की स्मृति लौट आई है, लेकिन तुझे नहीं। तुझे सिर्फ आभास है।
 
 
किताबी या संगठित धर्म का आविष्कार हुए तो मुश्किल से 10 या 12 हजार वर्ष हुए होंगे। अब जब किताबी धर्म का आविष्कार हुआ तो फिर किताब के आविष्कारकों ने उसमें अपने क्षेत्र की पुरानी परंपरा और व्यवस्था को अपने तरीके से क्लासीफाई करते हुए उसमें नए नियम बनाए और फिर उन नियमों को लोग मानें, इसके लिए नए तरीके के ईश्वर, प्रकृति या समाज के अन्य भय भी निर्मित किए।
 
 
कोई सा भी पश्चिमी धर्मग्रंथ पढ़ते वक्त भी ऐसा महसूस होता है कि हमें भरमाया, डराया और भटकाया जा रहा है। यह भी जोड़ लें कि हमारी बुद्धि को दूसरे धर्म के लोगों के खिलाफ तैयार भी किया जाता है... और भी बहुत कुछ।
 

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