हाल ही में एक समाचार पढ़ा-'छतरपुर तहसील के बछरौनिया गांव की महिलाओं के लिए वहां के पुरुषों ने यह फरमान जारी किया है कि वे गांव में कहीं भी जाएं,तो बिना चप्पलों के जाएंगी। नतीजतन,वहां कड़ी धूप में भी महिलाएं नंगे पैर आने-जाने के लिए विवश हैं। यदि उन्हें गांव से बाहर जाना हो,तो चप्पल थैले में रखकर ले जाती हैं।'
इस समाचार ने हमारे समक्ष फिर वही कड़वा सच उजागर किया,जिसे दीर्घकाल से हमारे देश की आधी आबादी भोग रही है। महिलाएं वास्तव में आज भी दोयम दर्जे का व्यवहार झेल रही हैं।
खेद का विषय तो यह है कि शिक्षित और अशिक्षित दोनों ही वर्गों की महिलाओं के साथ यह व्यवहार होता है। बस,कारण और तरीके अलग-अलग हो जाते हैं।
अशिक्षित महिलाएं पतिगृह के सभी सदस्यों का समुचित ख्याल रखने के बावज़ूद निर्णय की स्वतंत्रता से विहीन होती हैं। उन्हें लगभग दासवत ही रखा जाता है। रोटी,कपड़े, बर्तन,बच्चे और सभी की सेवा में उनकी ज़िन्दगी खप जाती है। लेकिन इन सभी से सम्बंधित निर्णयों में उनकी भागीदारी प्रायः शून्य होती है।
यदि,वे कभी बोलने का प्रयास करें भी,तो उनकी अशिक्षा के साथ उनके 'औरत' होने का तर्क देकर उन्हें चुप करा दिया जाता है मानों औरत का अर्थ ही बुद्धिहीनता हो। शिक्षा से शून्य वे बेचारी इसे अपना भाग्य मानकर चुप रह जाती हैं और कई बार तो स्वयं के सारे अवदान को परे रख खुद को अज्ञानी और पुरुषों को परम ज्ञानी मान लेती हैं।
क्रोध आता है ऐसी हीन सोच पर। पुरुषों को अपनी मां दुनिया की सबसे समझदार महिला नज़र आती है, लेकिन पत्नी में वे दुनिया भर की मूर्खता खोज लेते हैं। अभी मेरे ये विचार पढ़कर सभी समझदार(?) पुरुष उठकर खड़े हो जाएंगे और उनकी दृष्टि और स्मृति में पत्नी की जितनी भी गलतियां होंगी,सब की सब अपनी बात को सही साबित करने के लिए प्रस्तुत कर देंगे।
लेकिन भाइयों,ज़रा ये तो सोचिये कि वह पसंद भी आपकी है और बाहर की व्यवस्था भले आपने संभाली हुई हो,लेकिन घर के मोर्चे पर तो वही डटी हुई है ना! यदि वह बुद्धिहीन है तो घर का संचालन किस बुद्धि से कर रही है?
क्यों आपके माता-पिता भोजन से लेकर अपनी दवाओं के ख्याल और समुचित सेवा तक के लिए उसका मुंह देखते हैं? क्यों बच्चों की हर समस्या में वह रामबाण औषधि का काम करती है? क्यों अतिथि उसके सत्कार-भाव से प्रसन्न होकर आपके समक्ष उसकी तारीफों के पुल बांधते हैं? और क्यों आप स्वयं उसके स्नेह,सहयोग और सामंजस्य के बिना एक कदम नहीं चल पाते?
बहरहाल, अब आएं शिक्षित महिलाओं पर।
इनके जीवन में दोहरा तनाव होता है। स्वाभाविक रूप से शिक्षा के आलोक से इनकी बुद्धि प्रखर हो जाती है। घर को ये और अधिक समझदारी से सम्भालती हैं। लेकिन पढ़ी-लिखी होने के कारण घर से सम्बंधित निर्णयों में अपनी सुलझी हुई राय समय-समय पर व्यक्त करती हैं।
बस,यहीं से टकराव आरम्भ हो जाता है। पति ने बचपन से अपने पिता को घर के 'मुखिया' की तानाशाही में देखा होता है। उसी दकियानूसी परम्परा को आगे बढ़ाना वो अपना परम कर्तव्य समझता है और स्वयं शिक्षित होकर भी अपनी शिक्षा का मज़ाक बनाकर रख देता है।
अपनी शिक्षित पत्नी के साथ मिलकर काम करने के स्थान पर वो अपनी समस्त ऊर्जा उसे दबाने और प्रताड़ित करने में लगा देता है। पत्नी के ज्ञान और समझ का सकारात्मक उपयोग अपने घर की बेहतरी के लिए ना करते हुए निरंतर उसे हतोत्साहित कर उसका उपहास करता है।
इस सबके दो ही संभावित परिणाम होते हैं।
पहला,पत्नी अपने भारतीय संस्कारों के वशीभूत हो अपनी दुनिया को घुटन भरे मौन में समेट लेती है। अपने ज्ञान और समझ को बच्चों को पढ़ाने तक सीमित कर उनके रचनात्मक उपयोग पर ताला लगा देती है।
दूसरा,वह अपने इस घर का,जिसने उसे कभी 'अपना' होने का अहसास दिया ही नहीं,त्याग कर अपनी उस राह पर चल देती है, जहां उसके ज्ञान का आदर हो और जहां उसकी समझ उपहास या व्यंग्य के तीरों से आहत ना हो।
तरस आता है इन तथाकथित पढ़े-लिखे सज्जनों पर,जो विभिन्न परीक्षाएं उत्तीर्ण कर डिग्रीधारी तो हो जाते हैं,लेकिन उस शिक्षा को अपने आचरण में नहीं उतार पाते।आपने जो पढ़ा,उसे गुन भी लीजिए।
जो सीखा, उसे प्रयुक्त भी कीजिए।
बाहरी दुनिया में अपने जिस ज्ञान का प्रदर्शन आप गर्व के साथ करते हैं,उसे कार्यरूप में परिणित भी कीजिए। इसके लिए घर से बेहतर दूसरी कोई जगह नहीं।
धरती से लेकर आकाश तक अपनी योग्यता और क्षमता को अनेकानेक मोर्चों पर साबित कर चुकीं ये स्वयंसिद्धाएं आपके जीवन को बेहतर से बेहतरीन बनाती हैं, उसमें अपने स्नेह और सूझ-बूझ से विविध रंग भरती हैं और उसे पूर्णता प्रदान करती हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि उनके जीवन को संवारने के लिए आप भी ऐसी ही भूमिका निभाते हैं। लेकिन समस्या यही है कि आप इसे 'देने' के अहंकार से निभाते हैं और वे अपनी सहज आत्मीयता से।
उचित होगा कि अपनी संकीर्ण सोच को बदल लें। जो सम्मान अपनी मां को देते हैं, वही पत्नी को भी दें। अपनी शिक्षा को सार्थक बनाएं और ज्ञान को सही मायने दें।
और अंत में,समाज,पुलिस और प्रशासन से यह निवेदन कि बछरौनिया गांव की महिलाओं को इस तानाशाही से मुक्ति दिलाएं। उन्हें मनुष्यों जैसा जीवन जी सकने में सहायता करें। साथ ही वहां के पुरुषों को उचित दिशाबोध दें। उन्हें सही-गलत में फर्क समझाएं और यदि वे ना समझें तो ऐसा सबक सिखाएं कि फिर कभी ऐसा अमानवीय आचरण करने में उनकी रूह तक कांप जाये।कई बार प्रतिकूल को अनुकूल करने के लिए अंगुली टेढ़ी भी करनी पड़ती है।
काश, भारतीय पुरुष न्यूनतम मानवता को तो जीयें,शेष पूर्ति हमारा नारी वर्ग अपनी अशेष हार्दिकता से कर लेगा।