'वसंते सानंदे कुसुमित लताभिः
परिवृते स्फुरन्नानापद्मे
सरसि कलहंसानि सुभगे सखीभिः
खेलन्ती मलयपवनान्दोलितजले
स्मरेधस्त्वां
तस्य ज्वर जनित पीड़ा पसरति'
हे देवी, वसंत में खिली लताओं से मंडित, नाना कमलों से, हंसों की मंडली से अलंकृत मलय पवन से आंदोलित सरोवर में सखियों के मध्य क्रीड़ा करती हुई तुम्हारा ध्यान करने से ज्वरजनित पीड़ा दूर होती है।
-आनंद लहरी
'वसंत' इस एक सुकुमार शब्द के साथ ही ध्वनित होता है स्वर्णिम पीत आभा लिए जगमगाता उपवन, मां सरस्वती के आह्वान का अवसर और आम्र मंजरियों की नशीली रतिगंध का मौसम। ऋतुओं का यशस्वी राजा वसंत मानव-मन पर बड़ी कोमल दस्तक देता है। मन की बगिया में केसर, कदंब और कचनार सज उठते हैं, बाहर पलाश, सरसों और अमलतास झूमने लगते हैं।
पछुआ के सर-सर स्पर्श से, खेतों में खर-खर उड़ते दानों और भूसे के स्वर से सहज ही वसंत मुस्कराने लगता है। एक महकता, मदमाता, मस्ती भरा मौसम वसंत कवियों की लेखनी में चपलता से आ बैठता है। यूं तो हर मौसम एक कविता होता है। और वसंत प्रेम कविता।
'जब पलाश वन में दहके
कोमल शीतल अंगारे
निशा टांकती, सेमल के
अंगों पर लाल सितारे
शाम सिन्दूरी याद दिलाती
शाकुन्तल-दुष्यंत की
मन के द्वारे पर हौले से
दस्तक हुई वसंत की।
-भगवत दुबे
वसंत मन में एक सुरुचिपूर्ण सौन्दर्यबोध जगाता है। हवा के बदलते ही मन बदलने लगता है। सहसा राग-बोध उमड़ आता है। देवदारू वृक्ष की श्यामल छाया सघन हो उठती है। अंगूरों की लता रसमयी हो जाती है। अशोक अग्निवर्णी पुष्पों से लद जाता है। पत्तियों के रेशे-रेशे में हरीतिमा गाढ़ी होने लगती है। चारों तरफ नर्म भूरे अंकुर प्रस्फुटित होने लगते हैं और बैंगनी आभा लिए कोमल कोंपलें मुस्करा उठती हैं।
एक अव्यक्त सुवासित गंध मन में एक पूरा सुनहरा मौसम खड़ा कर देती है। यह कोमल केसरिया मौसम अतीत में जिस सज-धज के साथ आता था। वर्तमान में अनचाहे मेहमान-सा आता है, ठिठकता है और खामोशी से चला जाता है। हम न आहट सुन पाते हैं, न जाने की उदास पदचाप। तकनीकी उड़ान से हम सतह के ऊपर आ गए हैं, मौसम का सौंदर्य अनुभूत करने की अब हममें क्षमता नहीं रही। जब तक भाव-रंगों से मन नहीं भीगा हो, वसंत मनचाहा मेहमान कैसे लग सकता है?
राजा-रजवाड़ों के इतिहास में मदनोत्सव, वसंतोत्सव के भव्य आयोजनों का विस्तृत वर्णन मिलता है। यानी वसंत सिर्फ मौसम नहीं बल्कि एक पर्व की तरह मनायाजाता था। आज जब बाहर का वसंत समझने की क्षमता नहीं है तो मन के वसंत को कैसे महसूस किया जा सकता है? कैसे रची जा सकती है ऐसी सुस्निग्ध प्रेम कविता।
'इंद्रधनुषों से घिरी हुई हूं मैं जब से तुमने मुझे
नाम से पुकारा है,
जब से तुम्हारे हाथों को छुआ मैं वसंत हुई
फिर पतंगों सा उड़ा मन
देखकर तुमको।'
-अज्ञात
एक अनूठी आकर्षक ऋतु है वसंत की। न सिर्फ बुद्धि की अधिष्ठात्री, विद्या की देवी सरस्वती का आशीर्वाद लेने की, अपितु स्वयं के मन के मौसम को परख लेने की, रिश्तों को नवसंस्कार-नवप्राण देने की। गीत की, संगीत की, हल्की-हल्की शीत की, नर्म-गर्म प्रीत की। यह ऋतु कहती है- देवी-देवताओं की तरह सज-धज कर, श्रृंगारित होकर रहो। प्रबल आकर्षण में भी पवित्रता का प्रकाश सँजोकर रखो और उत्साह, आनंद एवं उत्फुल्लता का बाहर-भीतर संचार करो।
वसंत पंचमी से एक ऋतु आरंभ होती है, सहजता से शांति से, सौम्यता से प्रेम करने की... एक पूरा मौसम श्रृंगार रस में भीगने का, एक-दूसरे को जानने समझने का।
लेकिन इन दिनों एक सुहाना सजीला मौसम हम पर से होकर गुजर जाता है और हमें नहीं इतनी फुर्सत की ठिठककर उसकी कच्ची-करारी सुगंध को भीतर उतार सकें। क्यों प्रकृति की रूमानी छटा देखकर हमारे मन की कोमल मिट्टी अब सौंधी होकर नहीं महकती? क्यों अनुभूतियों की बयार नटखट पछुआ की तरह हृदय में अब नहीं बहती? क्यों आजकल संवेदनाओं के सौम्य सिंधु में व्यग्रता की उत्ताल तरंगें उठने लगी हैं?
मन ही मन को समझ नहीं पा रहा है, भला मौसम को कैसे समझेंगे? मन के इसी मुरझाए-कलुषाए मौसम को खिला-खिला रूप देने के लिए खिलखिलाता-खनकता वसंत आया है। झरते केसरिया टेसू को अंजुरियों में भरकर स्वागत करें वसंत का? फिर देखिए खुलकर सरसरा उठेगी उमंगों की पछुआ (पश्चिम हवा) और फिर मुस्कुरा उठेगा वसंत !!