सुकून से जीना असली कंफर्ट है

प्रज्ञा पाठक
अपने दैनिक जीवन में हम प्रायः कंफर्ट अर्थात् सुविधा को प्राथमिकता देते हैं। ठंडी हवा चाहिए, तो कूलर है, एसी है। गर्मी चाहिए, तो हीटर है। पानी गर्म करना हो, तो गीजर है। खाना पकाने के लिए गैस, सब्जी पकाने, दाल बाटी बनाने, केक आदि विविध व्यंजन बनाने के लिए माइक्रोवेव ओवन, आवागमन के लिए विविध वाहन, कपड़े धोने के लिए वाशिंग मशीन आदि आदि। फेहरिस्त लंबी है। 
 
कहने का आशय यह कि मनुष्य जीवन को सुविधापूर्ण ढंग से जीने का आग्रही होता है। पहले घर और बाहर के जिन कामों में अधिक समय लगता था, अब विविध यंत्रों की सहायता से वे शीघ्र ही हो जाते हैं। इस दिशा में नवीन आविष्कार भी चल रहे हैं। अब बर्तन साफ करने की, ईस्त्री के साथ तह किए हुए कपड़े की मशीनें भी निर्मित हो रही हैं। इसी प्रकार कंप्यूटर, मोबाइल और आईपॉड ने जीवन को और ज्यादा सरल बना दिया है। 
 
जरा सोचिए कि हम अपने जीवन को निरंतर सरल, आसान बनाने के लिए सक्रिय हैं, लेकिन जीना लगातार जटिल बनाते जा रहे हैं। मेरा संकेत विविध संबंधों में छोटी-छोटी बातों पर बढ़ती जा रही दूरियों की ओर है। अपने ही किसी प्रियजन ने कुछ अप्रिय कह दिया तो बस गांठ बांध ली। हमारे मन का कुछ ना हुआ तो रूठ गए। किसी से क्षणिक आवेश में आकर विवाद कर लिया और स्थायी शत्रुता पाल ली। कोई छोटी सी बात पर गलतफहमी हो जाए, तो उसे सुलझाने के स्थान पर उसमें उलझते चले जाएं। 
 
ध्यान दें कि ये सब हमारे जीवन में प्रायः होता है। करने वाले भी हम और सहने वाले भी हम ही। मजे की बात यह कि इसका पढ़ाई-लिखाई से कोई सरोकार नहीं होता क्योंकि ये समस्या अनपढ़ों से अधिक पढ़े-लिखों में होती है। ज्ञान से तर्कशक्ति विकसित होती है और कई बार यही तर्कशक्ति समस्या को सुलझाने के बजाय उलझा देती है क्योंकि विवाद के समाधान में बुद्धि से अधिक भावना यानी दिमाग से ज्यादा दिल की भूमिका होती है। 
 
ऐसे में अधिकतर दिमाग की सुनी जाती है और इसीलिए सुई विवाद, वैमनस्य, द्वेष, ईर्ष्या आदि पर ही टिकी रहती है और यह तय बात है कि जब व्यक्ति निरंतर ऐसी नकारात्मकताओं से घिरा रहता है, तो उसका जीना मुश्किल हो जाता है। लगातार मस्तिष्क में वे ही बातें घूमती रहती हैं, जिनकी वजह से उसके भीतर मौजूद सकारात्मकता को हानि पहुंचती है। कुछ बेहतर, कुछ रचनात्मक करने का या तो मन नहीं होता अथवा उस ओर से बुद्धि कुंद हो जाती है। इस मानसिक परेशानी से मन तो दुःखी रहता ही है, लेकिन धीरे-धीरे तन भी अस्वस्थ होने लगता है क्योंकि मानसिक रुग्णता, शारीरिक अस्वस्थता का बहुत बड़ा कारण है।
 
इस तथ्य को ऐसे समझा जा सकता है कि धरती के भीतर जैसा बीज बोएंगे, वैसी ही फसल प्राप्त होगी। यहां मन को धरती समझ लें और विचारों को बीज। इस प्रकार यदि हम मन में प्रदूषित विचारों को स्थान देंगे, तो परिणाम में दुःख, कष्ट, तनाव ही पाएंगे और यदि मन सत्विचारों से संपन्न रहेगा, तो प्रगति की नित नवीन राहें हमारे लिए खुली रहेंगी क्योंकि एक स्वस्थ मन हर प्रकार की ऊर्जा से समृद्ध रहता है। 
 
 
देखिए, जीवन सरल रेखा की तरह अकेले 'सुख' की लीक पर ही नहीं चलता, उसमें दुःख भी अनिवार्य रूप से आता है। ये दुःख परिस्थितिजन्य हो सकता है या फिर व्यक्तिजन्य। रोग, कर्ज, प्रियजन की मृत्यु आदि परिस्थितिजन्य दुःख हैं, जिनका सामना मन में हिम्मत और आत्मविश्वास रखकर किया जा सकता है। यदि मन में साहस है और स्वयं पर भरोसा, तो ऐसे सभी कष्टों का निवारण संभव है।
 
यदि दुःख व्यक्तिजन्य है अर्थात् किसी व्यक्ति विशेष ने दिया है, तो वहां मन को या तो कड़ा बनाना होगा अथवा क्षमाशील। यदि हमारा अपना ही हमें किसी प्रकार का कष्ट दे रहा है, तो उससे निपटने के दो तरीके हैं।

एक, यदि सत्य हमारे पक्ष में है, तो हम अपने मन को मजबूत कर उस व्यक्ति को साफ शब्दों में आईना दिखा दें। इसके दो परिणाम संभावित हैं। या तो वो सुधर जाएगा अथवा विवाद करेगा। विवाद की दशा में उसे अपने जीवन से रुखसत करने की दृढ़ता यदि आप दिखा पाए, तो कुछ दिन के दुःख के बाद शांति से जीवन जी पाएंगे क्योंकि घनी काली रात के बाद ही सवेरे का उजाला दिखता है।
 
दो, हम अपने मन को इतना क्षमाशील बना लें कि संबंधित की भूल को दिल से ना लगाएं और माफ कर आगे बढ़ जाएं। यदि निरंतर उसे स्मरण रखेंगे, तो बहुत कष्ट होगा और ये मानसिक कष्ट शारीरिक तकलीफों को जन्म देगा। 
 
यहां ये उल्लेखनीय है कि क्षमा करना कमजोरी की निशानी नहीं है वरन् मन की मजबूती का सूचक है। जरा सोचिए कि यदि किसी ने सीधे-सीधे हमें ही कष्ट पहुंचाया है और उसके इस दुर्व्यवहार से हमें मानसिक या शारीरिक क्षति पहुंची है, तो स्वाभाविक प्रतिक्रिया तो बदले में उसे चोट पहुंचाना ही होगा, लेकिन हम यदि मन बड़ा रखकर उसे क्षमा कर देते हैं तो यह हमारी मानसिक दृढ़ता को ही दर्शाता है।
 
कुल जमा सार यह कि हमारी रुचि यदि समस्या के समाधान में होगी, तो उक्त दोनों में से एक राह का अनुसरण करना होगा और यदि मन में उसका गम पालकर बैठ गए, तो अंततोगत्वा कष्ट हमें ही होगा। 
 
वस्तुतः जीवन से अधिक जीने को सुगम बनाने की आवश्यकता है। अन्य शब्दों में कहें, तो यह कि जब सुकून से जी पाएंगे, तभी तो जीवन सार्थक होगा। यह तभी संभव है, जब हमारा मन हर प्रकार के क्लेश, दुर्भावना और संताप से मुक्त हो और ऐसा होने के लिए हमें स्वयं के भीतर मौजूद सत् और असत् के बीच सत् को चुनना होगा और असत् को बलपूर्वक बाहर करना होगा। 
 
विवेकपूर्ण सोच, दृढ़ संकल्पशक्ति और निर्मल मन के बल पर इसे साकार किया जा सकता है और तब निश्चित रूप से उस अनमोल अनुभूति को उपलब्ध हुआ जा सकता है, जिसे ईश्वर का वरदान अर्थात् 'जीवन' कहा जाता है।

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