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महंगाई की हाहाकारी, चीख रही है जनता सारी

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कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

देश की जनता इस समय असहनीय महंगाई की मार से त्राहिमाम कर रही है। लोग कितना भी कमा रहे हैं, लेकिन उनकी जेबें खाली की खाली ही रह जा रही हैं।

उपभोक्तावादी समाज की अपसंस्कृति के साथ- साथ ही परिवार चलाने के विभिन्न खर्चे इतने महंगे पड़ते जा रहे हैं कि परिवार का सही ढंग से पालन करना भी एक महत्त्वपूर्ण चुनौती बन चुकी है।

चौतरफा महंगाई की मार ने आर्थिक असन्तुलन के साथ बेरोजगारी, प्रच्छन्न बेरोजगारी और अनेकानेक तरीकों से सरकार द्वारा थोपे गए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर से जनता की कमर टूट रही है।

हद तक सरकारी नौकरी वालों को राहत है, क्योंकि सरकार उन्हें भांति- भांति के भत्ते दे रही हैं। लेकिन निजी क्षेत्रों और छोटी तनख्वाह के साथ- साथ दैनिक मजदूरी करने वालों तथा छोटे- मोटे व्यवसाय से आजीविका का निर्वहन करने वालों के ऊपर महंगाई का पहाड़ टूट पड़ा है।

घरेलू उपयोग की समस्त आवश्यक और अनिवार्य वस्तुओं में महंगाई की कोप दृष्टि इतनी भीषण मची है कि आमजन का जीवन यापन एक प्रकार से संकट ग्रस्त हो चुका है। केन्द्र एवं राज्य सरकारें आंकड़ों में तरक्की और अर्थव्यवस्था की ग्रोथ रेट का चुनावी बिगुल बजाने में मशगूल हैं, किन्तु इसके इतर जमीनी स्थिति भयावह है।

इस महंगाई से गरीब का दम ही निकल रहा है, तो वहीं मध्यमवर्गीय परिवारों की स्थिति कसाई घर की मुर्गी की भांति ही हो गई है। बाकी उच्च धनिकों और भ्रष्टाचार के महलों को खड़े करने वाले नेताओं, अधिकारियों, व्यापारिक घरानों से लेकर प्रत्येक धनपिपासुओं को कभी फर्क ही नहीं पड़ता है। जिनकी सत्ताएं हैं, वे टैक्स पर टैक्स लगाकर अपनी सरकारी सुविधाएं, वेतन भत्ते और सभी कार्य सरकारी कोड़े से पूरे कर लेते हैं। अधिकारियों के तो जलवे हिटलरशाही से कम नहीं हैं, अंग्रेजों के जमाने की नौकरशाही का सत्ता के साथ गठबन्धन करने के बाद जनता के दु:ख -दर्द से कोई वास्ता ही नहीं रह गया है।

चुनावी नारों में जनता-जनार्दन कहे जाने वाले आमजनमानस को सत्ताएं कोल्हू का बैल बनाकर पीसने में जुटी हुई हैं। जनता चीख रही है लेकिन अन्धी– बहरी और गूंगी सरकारों को कुछ भी दिखाई- सुनाई नहीं दे रहा है। उनका सिर्फ़ ऐनकेन-प्रकारेण सरकारी सिंहासन पा! लेना ही एक घोषित और अघोषित लक्ष्य रह गया है।

यातायात, परिवहन, वाहन, कृषि सामग्री व संसाधन, निर्माण सामग्री, कपड़े, किराना-राशन, खाद- बीज, फल- सब्जियां, अनाज ,डीजल, पेट्रोल, रसोई गैस सिलेण्डर, पैकेज्ड उत्पाद से लेकर खुली आंखों से दिखने और न दिखने वाली प्रत्येक वस्तुएं आम आदमी की पहुंच से बाहर होती चली जा रही हैं। लेकिन महंगाई के इस भीषण संकट पर विमर्श- चर्चाओं व संसद तथा विधानसभा में मुद्दों की गर्माहट के बजाय गहरी खामोशी का सन्नाटा (मातम) पसरा हुआ है।

हमारे देश का मीडिया चाहे वस प्रिन्ट का हो याकि डिजिटल प्रसारण वाला  सभी को ब्रेकिंग न्यूज, एजेण्डे, टीआरपी गेम तथा अपने- अपने पालों की पक्षधरता लेने से ही फुर्सत नहीं मिल रही है। समझ नहीं आता है कि लोकतन्त्र के चौथे खम्भे को जनता के मुद्दों व उसकी पीड़ाओं से कोई सरोकार रह भी गया है या नहीं? पता नहीं मीडिया, समाचार पत्र महंगाई, बेरोजगारी के संकट पर अपनी ओर से कब संज्ञान लेंगे?

इस दर्द से पक्ष -विपक्ष और राजनैतिक दलों के झण्डे लेकर लहालोट होने वाले सभी समर्थक और विरोधी मरे जाए रहे हैं। मगर जहां जिनके दलों की सत्ताएं हैं,वे उनकी जयकारों में लगे हुए हैं। सरकार के समर्थक इस महंगाई के आपातकाल में भी अपनी सरकार और नेतागणों का कोई न कोई मॉस्टरस्टोक बतलाने पर जुटे हुए है, तो जिन राज्यों में केन्द्र के विपक्षी दलों की सरकारें हैं वहां के सत्ताधारी इसका ठीकरा केन्द्र सरकार पर फोड़ रहे हैं।

लेकिन किसी के मुख से जनता का पक्ष और महँगाई व उससे उपजी मर्मान्तक त्रासदी पर एक शब्द भी नहीं फूट रहे हैं। आश्चर्य होता है कि प्रजातन्त्र में अपने -अपने दलों, नेताओं के प्रति श्रध्दा व भक्ति का भाव, उन्हें सिंहासन आरुढ़ करने वाली जनता से बढ़कर हो गया है।

चाहे केन्द्र व राज्यों में सत्ताधारी दल भाजपा की सरकारें हों या अन्य राज्यों में कांग्रेस व अन्य राजनैतिक दलों की सरकारें हों। इस महंगाई ने इतना तो किया ही है कि सबके बीच गठबन्धन बना दिया है। केन्द्र व राज्यों की सरकारों के मध्य अब इसकी प्रतिस्पर्धा छिड़ी है कि कौन कितनी ज्यादा महंगाई बढ़ाकर आम आदमी का जीना कठिन कर देगा। और सब अपने अपने स्तर से इस नेकी के कार्य में तत्परता से लगे हुए हैं।

सवाल यह है कि न तो संसद के सदनों में सत्र चल रहे हैं,और न ही अधिकांशतः राज्यों के विधानसभा सत्र। जिन राज्यों में सत्र चल भी रहे हैं, वहां महंगाई- बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर चर्चाएं शून्य और नीतियों के विषय में किसी की भूले -भटके भी मंशा नहीं बनती दिख रही है।

केन्द्र में सत्ताधारी भाजपा के कार्यकाल में बनाए जाने वाले कानूनों में विस्तृत चर्चा न हो पाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट भी कई बार चिन्ताएं व्यक्त कर चुका है। ऊपर से लकवाग्रस्त या यूं कहे कि जर्जर विपक्ष के पास न तो इतनी शक्ति है कि वह जनता के जमीनी मुद्दों पर सरकार की जवाबदेही तय करवा सके। और न ही विपक्ष में कोई ऐसा कद्दावर नेता है जिसे जनता की समस्याओं की गहरी समझ हो, और वह बिना किसी लाग-लपेट के कड़वे यथार्थ को प्रस्तुत कर सके।

अधिक हुआ तो विपक्ष सदन का बायकॉट कर देता है, और चिड़ियाघर से अधिक शोरगुल करता हुआ न तो मुद्दों पर चर्चा कर पाता है,न ही सरकार को घेर पाता है। इतना ही नहीं विपक्षी दलों के नेताओं और सांसदों के द्वारा सदन में सरकार विरोध के नाम पर अमर्यादित कृत्यों से संवैधानिक व्यवस्था को आघात जरूर पहुंचता है। लेकिन विपक्ष जनहित के प्रश्न पर सरकार की नाक में दम करने पर पूरी तरह विफल ही सिध्द होता है।

नरेन्द्र मोदी सरकार में दो चीजें व्यापक स्तर पर हुई हैं- एक यह कि सरकार के समर्थक- सरकार के प्रत्येक निर्णय को पत्थर की अमिट लकीर सिध्द करने पर जुटे रहते हैं, तो दूजी यह कि विपक्ष द्वारा सरकार के प्रत्येक निर्णय को जनविरोधी घोषित करने का अभियान। मूलतः इन दो बातों के सन्दर्भ में जनता का पक्ष लुप्त हो जाता है,और सभी चर्चाओं, मुद्दों के केन्द्र में पक्ष-विपक्ष के आरोप- प्रत्यारोप ही शेष रह जाते हैं।

सवाल यह है जब प्रधानमन्त्री लालकिले की प्राचीर से देश के अस्सी करोड़ नागरिकों को गरीबी का राशन बांटने की गर्वोक्ति का उत्साह साझा करते हैं, तब उन्हें स्वयं सोचना चाहिए कि यह गर्व करने का विषय है भी या नहीं? यानी सरकारी रिकॉर्ड में देश की कुल पचास करोड़ आबादी ही गरीबी रेखा से ऊपर है,अब ऐसे में हमारी सरकारों के रवैये से यही जाहिर हो रहा है कि केन्द्र व राज्य सरकारें देश की सारी आबादी को गरीबी रेखा में लाने के लिए तुली हुई हैं।

जब आम आदमी महंगाई, बेरोजगारी की मार से टूट जाएगा तो सरकार की सारी योजनाएं धूल फांकने के अलावा और क्या सिध्द होंगी? केन्द्र सरकार व राज्य सरकारें इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें और प्रभावी नीतियां बनाएं ही नहीं बल्कि कार्यान्वयन के माध्यम से वास्तविक लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना भी करें।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)

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