Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

पं. उपाध्‍याय के दर्शन और अटलजी के धर्म की राह चले भाजपा, नहीं तो...

हमें फॉलो करें पं. उपाध्‍याय के दर्शन और अटलजी के धर्म की राह चले भाजपा, नहीं तो...
webdunia

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने अपने लोकलुभावन वायदों, मुफ्तखोरी की नई परंपरा के माध्यम से जनमत को अपने पक्ष में करने में कामयाबी हासिल की। अब केजरीवाल तीसरी बार दिल्ली के मुख्यमंत्री बनेंगे।

लेकिन भाजपा जिस तरह से साल 2018 से विधानसभा चुनावों में हार का सामना करते हुए राज्यों से सिमटती चली जा रही है, वह भाजपा के लिए चिंताजनक है।

झारंखड विधानसभा चुनाव में भाजपा के पदच्युत होने के बाद दिल्ली चुनाव में भाजपा ने अपनी सारी ताकत झोंक दी थी किन्तु इसके बावजूद भी यहाँ उसे 8 सीट से संतोष करना पड़ रहा है।

हालांकि इस चुनाव में कांग्रेस पिछली बार की तरह ही जीरो पर नॉक आउट हो गई या यह कहा जाए कि भाजपा के रथ को रोकने के लिए कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को वॉक ओवर दे दिया है।

भाजपा ने दिल्ली में अपने सारे अस्त्र-शस्त्र आजमाए, लेकिन सकारात्मक राजनीति एवं मुख्यमंत्री पद के लिए किसी भी सशक्त चेहरे के बिना उसके सारे प्रयोग असफल रह गए।

वर्ष 2018 के विधानसभा चुनावों में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान की त्रयी में भी भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था।

2014 के लोकसभा चुनाव के बाद पुनश्च 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा सशक्त तौर पर उभरी और अपने दम पर सरकार बनाने में भले सफल हुई हो किन्तु विधानसभा के चुनाव भाजपा के नेतृत्व को आईना दिखलाने के लिए पर्याप्त हैं।

महाराष्ट्र में वैचारिक तौर पर पूर्णतः भिन्न एक-दूसरे को पानी पी-पीकर कोसने वाली सांप-नेवले की जोड़ी ने शिवसेना की जिद पूरी करते हुए कांग्रेस-एनसीपी ने उध्दव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा की कुछ भी कर लेने की बात को नकार कर सत्ता से बेदखल कर दिया।

हालांकि हरियाणा के चुनाव में दुष्यंत चौटाला के साथ मिलकर भाजपा की खट्टर सरकार की पुनश्च वापसी होने के बाद ‘कर्नाटक के नाटक’ का अंत करते हुए विधानसभा उपचुनाव में येदियुरप्पा की ताजपोशी कर भाजपा को थोड़ी राहत की सांस भले ही लेने दी।

किन्तु झारखंड के चुनाव परिणामों ने एक नया झटका दिया था जिससे राजनीति के नक्शे में जिस गति से 2014 के बाद एनडीए/भाजपा का विजय रथ बढ़ता ही गया था, वहीं 2019 आते-आते राज्यों से भाजपा का ग्राफ घटता ही चला गया और 2020 के इस चुनाव में दिल्ली की सत्ता में काबिज न हो पाना भाजपा के लिए किसी गहरे सदमें से कम नहीं है।

झारखंड एवं दिल्ली के यह चुनाव परिणाम भाजपा को आत्ममंथन की राह दिखाने वाले हैं, क्योंकि अगर भाजपा लगातार अपने अहम और स्थानीय मुद्दों की नब्ज पकड़ पाने में जल्द ही कोई नई रणनीति नहीं अपनाती तो बिहार एवं बंगाल का व्यूह भेदने में भाजपा को कड़ी मशक्कत करनी पड़ सकती है।

इन राज्यों में हुई पराजय के कारण भले ही भिन्न-भिन्न हों किन्तु सत्ता से बेदखल होने के उपरांत आंकड़ों के ग्राफ में तो गिरावट आएगी ही।

इसके साथ ही राज्यसभा में एनडीए की सीटों में कमी आएगी जिससे उसकी केन्द्रीय नीतियों के लागू होने पर आगे की राह और मुश्किल हो सकती है।

जहां तक मप्र और छत्तीसगढ़ की बात है तो यहां 3 पंचवर्षी के शासनकाल में शिवराज सिंह और रमन सिंह सरकार की एन्टीइनकम्बेंसी सहित भाजपाई मंत्रियों, सांसदों, विधायकों सहित स्थानीय निकायों के भाजपाई जनप्रतिनिधियों के गैर जिम्मेदाराना रवैये के साथ ही एट्रोसिटी एक्ट संशोधन के आन्दोलन सहित भ्रष्टाचार एवं अफसरशाही के कई मुद्दों ने भाजपा को विपक्ष की राह दिखलाई थी।

राजस्थान में तो प्रत्येक पंचवर्षी तख्ता पलट की परम्परा ही रही आई है, इसलिए वहां ज्यादा कुछ कहना उतनी बड़ी बात नहीं है जो कि झारखंड के राजनैतिक इतिहास के साथ भी जुड़ी हुई है।

लेकिन फिर भी भाजपा का इन प्रदेशों से सत्ता से हटना अपने आप में कई प्रश्नों को समेटे हुए है।

भाजपा का इन प्रदेशों में मत प्रतिशत भले ही बढ़ा है किन्तु सरकार न बना पाना, आर्थिक सुस्ती, युवाओं को रोजगार की समस्या, किसानों की दयनीय स्थिति भी इनके पीछे मूल कारण है।

महाराष्ट्र में तो भाजपा और शिवसेना की निजी अहमन्यता ने एक-दूसरे को परस्पर विरोधी बना दिया वर्ना आज तस्वीर दूसरी होती।

पिछली बार भले ही शिवसेना समझौता कर गई थी, लेकिन इस बार की सियासी बिसात में शिवसेना ने ‘करो या मरो’ के सिध्दांत को अमलीजामा पहनाकर भले ही बाला साहब ठाकरे के सिध्दांतों को ही तिलांजलि क्यों न दी हो, लेकिन शिवसेना के मुख्यमंत्री की जिद के आगे वर्षों के तने प्रखर हिन्दुत्व के किले को ध्वस्त कर भाजपा को सबक सिखाने से बाज नहीं आई।

अगर भाजपा मुख्यमंत्री पद ढाई-ढाई साल का समझौता कर लेती तो महाराष्ट्र की स्थिति भी कुछ और होती।

2014 में नरेंद्र मोदी के अभ्युदय के बाद से भाजपा शासित राज्यों के मुखियाओं ने स्थानीय मुद्दों पर जहां जनता की नब्ज भांपने में तो नाकामयाब हुए वहीं नरेंद्र मोदी और अमित शाह के जादू पर पूर्णतः आत्मनिर्भर होते गए।

वहीं राज्यों का जनादेश भाजपा शासन के खिलाफ बढ़ा और भाजपा सरकार पदच्युत हो गई।

भाजपा के साथ एक गजब का वाकिया यह भी होता है कि जब भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व अपनी राष्ट्रीय नीतियों से हटकर बातें करता है, तो इससे वोटबैंक में खासी गिरावट देखने को मिलती है।

वहीं राज्यों की भाजपा सरकारों एवं संगठन के द्वारा जब स्थानीय मुद्दों को भुलाया जाता है तब हार का मुंह ही देखना पड़ता है।

राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद समूचा विपक्ष हमेशा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाने पर लेकर भाजपा की राष्ट्रीय नीतियों की विफलता साबित करने का प्रयास करता है।

इसी तारतम्य में विपक्ष राममंदिर, धारा-370 सहित राष्ट्रीय नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को दिल्ली, झारखंड की इस पराजय पर भी जिम्मेदार ठहराने का प्रयत्न करेगा।

भले ही स्थानीय मुद्दों के आधार पर जनमानस भाजपा से नाराजगी दिखलाता है वहीं नरेंद्र मोदी और भाजपा की राष्ट्रीय नीतियों पर पुरजोर तरीके से समर्थन देता है।

विधानसभा चुनावों में हो रही पराजय से भाजपा शासित राज्यों का गिरता हुआ ग्राफ भाजपा को आत्ममंथन कर रणनीतियों के अध्ययन की राह दिखाता है।

ऐसे में भाजपा को चाहिए की श्रध्देय अटल बिहारी वाजपेयी जी के गठबंधन धर्म से सीख लेते हुए पं.दीनदयाल उपाध्याय के दर्शन की ओर रुख करे। अन्यथा भाजपा के मनमाने तेवर की वजह से उसे मुंह की खानी ही पड़ेगी।

साथ ही आवश्यकता इस बात की भी है कि भाजपा के जमीनी, वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को तवज्जो देने का कार्य तो करे ही वहीं अपने अहं को त्यागकर चुनावों में मिली पराजय की धरातलीय समीक्षा कर उन पर प्रभावी तरीके से आत्ममंथन -आत्मचिंतन कर जनहित की दिशा में आगे बढ़े अन्यथा आगे की राह और कठिन हो सकती है।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

दास नवमी 2020 : जानें कौन थे समर्थ गुरु रामदास स्वामी?