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भयमुक्त इंसान ही आनंद का पात्र

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ललि‍त गर्ग

वर्तमान की जटिल जीवन शैली के कारण आज के जनमानस पर असुरक्षा एवं भय का व्यापक प्रभाव दृष्टिगोचर हो रहा है। उससे मुक्त होने के लिए अपनी वृत्तियों और भावनाओं में सकारात्मक सोच को विकसित करना होगा अन्यथा इस समस्या से छुटकारा नहीं पा सकते। दूसरों का सहयोग और मार्गदर्शन एक सीमा तक उपयोगी हो सकता है, लेकिन चलना स्वयं को ही होगा, बंधनमुक्त बनना होगा। क्योंकि बंधा आदमी कष्टों से बहुत जल्द घबरा जाता है और घबराया मन कभी कोई नई साहसिक कार्य नहीं करना चाहता, वह सदैव असुरक्षित एवं भयभीत रहता है, इसलिए वह जहां होता है वहीं अपने आपको ठीक मान लेता है, ऐसी मनोवृत्ति कभी क्रांति का स्वर बुलंद नहीं कर सकती। सड़ी-गली परंपराओं को स्वस्थता नहीं दे सकती। बनी-बनाई परंपराओं से हटकर नए आदर्शों, सिद्धांतों और जीवंतता की मिसाल नहीं बन सकती। 
 
भय एवं असुरक्षा से पीड़ित व्यक्ति विनाशकारी ही होता है, इस तरह की स्थितियां एवं भावनाएं शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए भी अत्यंत हानिकारक है। विश्व की अगणित चमत्कारी प्रतिभाएं इसके प्रभाव से काल-कवलित हुई हैं, अकाल मृत्यु की शिकार हुई है। आज के मानस-शास्त्रियों और चिकित्सकों ने सुखी और सफल जीवन के लिए बाधक जिन स्थितियों एवं भावनाओं पर सूक्ष्मता से अन्वेषण और विवेचन किया है, उनमें भय की स्थिति प्रमुख है। हमारी नकारात्मक भावनाओं और प्रवृत्तियों से इसका जन्म होता है। इसलिए इसे स्वनिर्मित कारागार की उपमा से उपमित कर सकते हैं। स्वेट मार्डेन ने कहा है कि जो आत्मविश्वास से सुरक्षित है, वह इन चिंताओं, आशंकाओं से मुक्त रहता है, जिनसे दूसरे लोग दबे रहते हैं। 
 
वर्तमान जीवनशैली में हर व्यक्ति किसी न किसी अनहोनी की आशंका से भयभीत रहता है। भय की भी अनेक शक्लें हैं। प्रयास करके एक भय को समाप्त किया जाता है, तो पता लगता है कि अब दूसरी तरह का भय समस्या बन गया है। एक भाई ऐसी स्थिति का शिकार था, पीड़ित था। उसका सारा व्यवहार अस्वाभाविक-सा प्रतीत हो रहा था। उसकी पत्नी एक महात्मा के पास उसे लेकर गई। वह महात्मा ताबीज देता था। उसकी स्थिति को समझकर उसने उसके हाथ पर भी एक ताबीज बांध दिया। कुछ दिनों बाद जब वह भाई पुनः मिला तो महात्मा ने पूछा - अब तो तुझे कोई भय नहीं सताता होगा? नींद अच्छी आती होगी? उसने कहा- महात्माजी! आजकल मुझे ताबीज का भय बना रहता है। ताबीज गुम नहीं हो जाए, मेरे दिमाग में यह भार सदा बना रहता है। रात्रि में सोते-सोते बार-बार इसे संभालता हूं। महात्मा ने उसे अपना संकल्प बल जगाने की प्रेरणा दी। टॉमस फुलर ने भी कहा है जो भविष्य का भय नहीं करता, वही वर्तमान का आनंद उठा सकता है।
 
भय एवं असुरक्षा की भावना एक ऐसी समस्या है जो हर व्यक्ति को अपनी गिरफ्त में लिए हैं। यह ऐसी समस्या है जिसका समाधान विज्ञान के पास भी नहीं है, मेडिकल सांइस भी कुछ नहीं कर पाती है। इसका संबंध हमारे आंतरिक जगत से है। उनका समाधान हमें भीतर खोजना चाहिए तभी हमें सफलता मिल सकती है। भय की स्थिति एक मानसिक समस्या है। इसके लिए केवल आशीर्वाद पर्याप्त नहीं होता। 
 
सुख और शांति की दिशा में अग्रसर होने के लिए जीवन शैली के बदलाव पर ध्यान देना चाहिए। इसके साथ ही आध्यात्मिक साधना भी नियमित रूप से करनी चाहिए। इसके बिना कोई भी आशीर्वाद सफल नहीं हो सकता। आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान में अभय की अनुप्रेक्षा का सुंदर मार्गदर्शन दिया है। भय की ग्रंथि पर विजय पाने के लिए उसका अनुसरण बहुत उपयोगी है। जीवन की लंबी यात्रा में हर व्यक्ति के समक्ष भय एवं असुरक्षा के विविध निमित्त उपस्थित होते रहते हैं।  जिसका मनोबल दुर्बल होता है, वह छोटे निमित्त से भी भयभीत हो जाता है। जिसका मनोबल ऊंचा होता है वह बड़े निमित्त से भी विचलित नहीं होता। विक्टर ह्यूगो ने कहा है कि जिस विचार का सही समय आ जाता है, उसकी ताकत के आगे कोई सेना नहीं ठहर सकती। इसके विपरीत जो भय से घबराता है, भय उसके पीछे दौड़ता है। जो साहस से सामना करता है भय उससे पराजित हो जाता है। जब तक भय नहीं आए तब तक उससे डरना चाहिए, जब वह सम्मुख उपस्थित होता है तो साहस से उसका प्रतिकार करना चाहिए। जो इस सत्य को आत्मसात नहीं करते हैं वे अप्रत्याशित समस्याओं के शिकार हो जाते हैं।
 
भय एवं असुरक्षा ऐसी मानसिक स्थितियां एवं जटिलताएं है कि उनका समाधान जरूरी है, आज इंसान भावी कठिनाइयों की कल्पना जाल में उलझकर आत्महत्या तक कर लेते हैं या अच्छे भले जीवन को नारकीय बना देते हैं। संतों ने कहा है कि हम न मित्रों से डरें, न शत्रुओं से डरें, न परिचितों से डरें और न अपरिचितों से डरें। जो भयभीत होता है उसे अमृत जैसा जीवन भी गरल प्रतीत होता है। सब प्रकार की भौतिक सुविधाएं भी उसके लिए भार बन जाती है। साधनों की अनुकूलता होते हुए भी वह किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता। इसलिए भयमुक्त होना जीवन की पहली आवश्यकता है। कितना सुंदर कहा गया है कि क्या हुआ, यह मत सोचो, किंतु क्या करना है केवल यही सोचो। समय विभाजन, भय के विपरीत चिंतन, उच्च उद्देश्य की उपस्थिति, संतुलित कार्य व्यवस्था, आशावादी दृष्टिकोण, मैं तो इतने से ही बच गया....यह सकारात्मक सोच - दुःख में सुख ढूंढ लेने की कला है। यही ऐसे उपाय हैं जिन्हें जीवन में ढालने से निश्चित रूप से आदमी का जीवन भयमुक्त, सफल और सार्थक बनता है। समझदार के लिए हर नया प्रभात नया संदेश लेकर आता है कि मैं वैसा ही हूं जैसा कल था और वैसा ही रहूंगा जैसे अब और आज हूं। यही सोच यदि हम विकसित करें तो चिंता एवं भय रूपी कैंसर से मुक्ति पा सकते हैं।

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