अमरजीत सिंह सूदन... अफसोस कि आपसे दूसरी मुलाकात न हो सकी!

स्मृति आदित्य
मंगलवार, 6 अक्टूबर 2020 (16:27 IST)
मुझे सर नहीं, पापाजी कहो, हे मातृ शक्ति आपकी लेखनी को नमन करता हूं

यही अंतिम बातचीत थी अमरजीत सिंह सूदन यानी पापाजी से.... एक ऐसी शख्सियत जिसने इंदौर शहर को बताया कि सच्ची मानवता क्या होती है, इंसान होना किसे कहते हैं, दया और मदद के जो उच्चतम मानदंड आप रच कर गए, वह संभव नहीं कि कोई दूसरा रच सके।

जो प्रतिमान शुद्ध स्नेह के आपने गढ़े हैं क्या संभव है कि कोई और उसकी उस स्तर तक बराबरी कर सके। अमरजीत सिंह सूदन के जाने से आंखों से पानी नहीं रुक रहा। क्या एक ही मुलाकात के बाद किसी के लिए ऐसा होना संभव है। मेरा सौभाग्य कि उस दिन आपसे साक्षात्कार का अवसर मिला, आप पर कुछ लिख सकी, लेकिन अफसोस कि आपसे दूसरी मुलाकात न हो सकी।

आज आपके जाने के बाद सोच रही हूं, कहां खोजते हैं हम ईश्वर, हमारे बीच साक्षात रहकर वो चले भी जाते हैं और हम पहचान भी नहीं पाते। मृत्यु जिसके लिए एक अलहदा विषय था। जिनका कोई वारिस नहीं, उनके वारिस थे वो, जिन्हें कोई हाथ भी न लगाए, उसे सहलाते थे वो, जिनकी तरफ कोई देखने से पहले 10 बार सोचे उसे वे करुणा भरी नज़र से दुलार कर सेवा का सजीव उदाहरण स्थापित कर देते थे।

वेबदुनिया के ऑफिस में बस एक मुलाकात और शेष सुबह के खूबसूरत संदेश... बस इतना ही वास्ता रहा उनसे पर मन अगाध श्रद्धा से भर उठता जब भी उनके नेक कार्य सामने आते। उनको इन शब्दों के साथ नमन, अमर हैं आप, अमर थे, अमर रहेंगे। अमरजीत जैसे व्यक्तित्व जाने के लिए नहीं होते, वे सदा बस जाते हैं दिल में और देते हैं प्रेरणा कई-कई अमर के खड़े हो जाने की... अश्रुपूरित नमन...

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आज जब वे नहीं हैं हमारे बीच, तो याद आ रही है उनके परोपकार की कहानियां। आइए जानते हैं क्‍यों याद किए जाने चाहिए अमरजीत सिंह सूदन को यानी पापाजी को...

जानिए इंसानियत की असली कहानी: अमरजीत सिंह की इंसानियत के किस्सों से भरी दास्तां तब शुरू होती है जब वे 14 साल के थे। उन्हें एक महिला दिखाई दी जिसके पास उसके पति का शव रखा था और दाह संस्कार के पैसे नहीं थे। स्वभाव से उदार अमरजीत सिंह ने पूछा और घर जाकर अपनी गुल्लक से 12 रुपए निकाले और महिला के साथ तांगा कर दाह स्थल तक पंहुचे।

इस सब में देरी का कारण जब घर पर पिता ने जानना चाहा तो अमरजीत ने आपबीती सुना दी... पिता का कंठ अवरूद्ध हो गया। आशीर्वाद की बरसात कर दी। और फिर उस दिन से सेवा और मदद का यह भाव उनके जीवन का स्थायी संस्कार बन गया।

अमरजीत सिंह की बाईपास सर्जरी हो चुकी थी। उन्हें डायबिटिज भी थी। उम्र 65 की हो चली थी, लेकिन मदद करने का उनका जज्बा हर दिन मजबूत हो‍ता रहा।

अमरजीत सिंह ने कभी किसी असहाय को देखकर अपनी आंखें नहीं मूंदी ना अपना हाथ खींचा... वरना सेवा के अवसर हर दिन हर किसी के सामने आते हैं कितने ऐसे सह्रदय हैं जो साहस कर पाते हैं आग बढ़ने का?

सबसे बड़ी बात कि उनकी कोशिश होती है कि जो लावारिस लाश उनके सामने आती है उसका धर्म जानकर वे उसी के अनुसार शव को अंतिम सम्मान प्रदान करें। जब तक धार्मिक क्रियाएं चलती है वे वहीं खड़े रहते हैं उसी शांत भाव के साथ जैसे उनका अपना कोई चला गया हो।

अपने मान से बचाया मासूम का सम्मान: इंदौर के पिपलिया हाना तालाब में जब पन्नी बिनने वाली एक 13 वर्षीया बच्ची उन्हें दिखाई दी तो वे यह देखकर सन्न रह गए कि उसके बदन पर एक कपड़ा नहीं था और आसपास सैकड़ों लोग जमा थे उसे घूर रहे थे, अमरजीत सिंह ने आनन फानन में अपने सिर की पगड़ी उतारी और उसमें लपेट कर अस्पताल ले गए। डॉक्टर ने पूछा यह आपकी बेटी है ?

तत्काल जवाब आया : हां, सर ये मेरी बेटी है ...

इलाज के दौरान बच्ची को बचाया नहीं जा सका।

डॉक्टर ने कहा : बच्ची तो नहीं बच सकी, आप उसका नाम बता दीजिए

अमरजीत सिंह : मैं अपना नाम बता देता हूं इसका मुझे नहीं पता...

डॉक्टर: लेकिन आपने कहा ये आपकी बेटी है

अमरजीत सिंह : हां, ताकि इसका जल्दी इलाज हो सके...

दूसरे दिन अमरजीत सिंह के धर्म से आदेश हुआ कि इन्हें समाज से निकाला जाता है कोई अपनी पगड़ी कैसे उतार सकता है?

अमरजीत सिंह ने कहा, मैंने एक बच्ची की लाज को ढंका है अगर यह गुनाह है तो मेरे वाहेगुरु मुझे सजा देंगे, ईश्वर न करें कि ऐसा फिर कभी किसी बच्ची के साथ हो लेकिन कभी हुआ तो मैं फिर वहीं करूंगा जो मैंने इस बार किया है...

ऐसे अनेक मार्मिक किस्सों से भरी पड़ी है अमरजीत सिंह सूदन की जिंदगी.... वे कहते हैं मैं चाहता हूं मरते दम तक मुझे इसी तरह सेवा का मौका मिलता रहे। मैं किसी मजबूर का हाथ थाम सकूं इतना मुझमें सामर्थ्य नहीं बस मेरे मन का संतोष हैं कि मैं किसी के काम आ सका। शहर में इधर-उधर घूमते मानसिक रूप से दुर्बल की चिकित्सा हो या शारीरिक रूप से अक्षम की मरहम पट्टी। अमरजीत सिंह सूदन अपने पूरे मनोयोग से लग जाते हैं उसे बचाने में और अगर न बच सके तो उनकी अंतिम यात्रा की समस्त जिम्मेदारी निभाने....

क्या मिला सिला??

क्या मिलता है उन्हें यह सब कर के? सवाल के जवाब में वे और विनम्र हो जाते हैं और दुखी मन से कहते हैं जो दंगे फैला रहे हैं जो जात-पांत धर्म-संप्रदाय की विषैली राजनीति कर रहे हैं, देश की आबोहवा को प्रदूषित कर रहे हैं उनसे पूछिए न कि क्या मिलता है उन्हें यह सब कर के?

मुझे तो जो मिलता है उसे मैं कभी शब्दों में नहीं बता पाऊंगा क्योंकि मेरे देश का हर नागरिक स्वस्थ, सुरक्षित और समर्थ रहे मैं तो बस इतना ही प्रयास करता हूं...

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