Festival Posters

Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

Pandit chhannulal Mishra death: मृत्यु के बगैर तो बनारस भी अधूरा है

Advertiesment
हमें फॉलो करें channulal mishra
webdunia

नवीन रांगियाल

रात करीब साढ़े 3 या पौने 4 बजे तक अपनी नई किताब की मनुस्क्रिप्ट पढ़ रहा था, इस दौरान पब्लिशर ने भी मैसेज किया और कहा कि अगर आप जल्दी पढ़ लेंगे तो किताब को भी जल्दी प्रिंट में दे देंगे। अपनी ही कविताओं को पढ़ना अश्लील काम है— इसलिए मैं सुबह का राग भैरवी लगाकर मैनुस्क्रिप्ट पढ़ने में मन लगा रहा था। यह भजन पंडित छन्नू लाल मिश्र का गाया राग भैरव में ‘भवानी दयानी’ था।

सुबह 8 बजे जागने पर एक न्यूज़ ऐप पर जो पहला नोटिफिकेशन था वो पंडित जी के निधन का था। जिस पहली अनुभूति हुई वो यह थी कि संसार में ज़्यादातर संयोग मृत्यु से जुड़े होते हैं। दूसरी बात जो जेहन में आई वो यह थी कि अब मैं कभी बनारस गया तो पंडित छन्नू लाल मिश्र से नहीं मिल पाऊंगा, लेकिन बनारस की छोटी गैबी में उनके घर के सामने से एक बार जरूर गुजरने की कोशिश करूंगा।

बहरहाल, मृत्यु के बगैर तो बनारस भी अधूरा है, इसलिए पंडित छन्नू लाल मिश्र के जाने को गाते हुए नहीं तो उनके भजन सुनते हुए स्वीकार कर लेना चाहिए।

अगर मैं गा पाता तो गाकर आपका बखान करता महाराज, लेकिन जिंदगी में लय नहीं उतनी, इसमें ख़रज ज़्यादा है, जिंदगी का रियाज़ नहीं है— बेसुरी हो जाती है जिंदगी बार-बार। इसलिए सिर्फ़ लिख पाएंगे। कोशिश करेंगे, जिस तरह आप रामचरितमानस गाकर समझाते हैं, कुछ वैसा ही रत्‍तीभर सुर बना रहे जीवन में और हमारे इस लेख में भी।

आपने ही तो कहा था— सुर में हो तो विरह भी सुंदर लगता है, बेसुरा तो ख़्याल भी बुरा है।

उत्तर प्रदेश में एक जगह है बनारस, जिसके इंचार्ज हैं भगवान शंकर। यहां बनारस में भूत भावन भगवान भोलेनाथ ने अपना एक एक्जिक्यूटीव या कहें एक ऐजेंट छोड़ रखा था। नाम है पंडित छन्नूलाल मिश्र।

काशी की एक गली में मकान नंबर 60/61 छोटी गैबी में रहते हैं छन्नूलाल मिश्र। ऐसी कोई सुबह नहीं जब इस गली से धूप बत्‍ती और गुग्‍गल का धुआं और रामायण की चौपाइयों की आवाजें न गूंजती हों। धूप के धूएं के साथ जहां से रियाज़ की आवाज आती हैं, उस गली में छन्नूलाल मिश्र ही रहते होंगे, इसमें कोई शक– संशय नहीं।

इस गली को रोज सुबह रियाज़ की आदत है और छन्‍नूलाल मिश्र के होने की भी। काया की कमज़ोरी और स्वास्थ्य के चलते जिस दिन पंडि‍त जी रियाज नहीं करते हैं, उस दिन यह गली भी उदास हो जाती है और प्रतीक्षा करती है कि पंडित जी कम से कम अपना गला ही साफ़ कर ले। या भोर के राग भैरव और अहीर भैरव का ही रियाज कर ले। राग तोड़ी के बगैर तो छोटी गैबी का भी ध्यान भटक जाता है।

दरअसल, बनारस की दो गलियों की वजह से ही बनारस सुर में बना रहता है। एक छन्नूलाल मिश्र की छोटी गैबी और दूसरी वो जगह जहां डुमरांव के कमरूद्दीन ने डेरा डाला था, जिन्होंने शहनाई की ऐसी गूंज छेड़ी कि वो हम सब के उस्ताद बिस्मिल्ला खान हो गए।

जब भी बनारस के बारे में सोचता हूं तो अस्सी घाट और मणिकर्णिका घाट के साथ उस्ताद बिस्मिल्ला और पंडित मिश्र भी याद आते हैं। बनारस में से अगर घाटों के दृश्य निकाल दें तो बनारस सूना हो जाएगा— घाटों पर इफरात में जलती चिताओं की अग्नि को बुझा दें तो संसार में शून्य पसर जाएगा, जैसे मृत्यु के बगैर जीवन का अधूरापन। मृत्यु के बगैर संसार अधूरा है।

ठीक यूं ही अगर बनारस की सूची से खां साहब और पंडित जी के नाम काट दें तो बनारस पूरा नज़र नहीं आएगा। यह वे लोग थे, जिन्हें बनारस में जीते जी मुक्ति मिली। कबीर ही विरले थे जो पैदा तो बनारस में हुए किंतु अपनी मुक्ति के लिए काशी में रुके नहीं, बल्कि उन्होंने अपना एग्जिट मगहर से लिया। यह अलग बात है कि लहरतारा तालाब और कबीरचौरा मठ में वो किसी किसी को नज़र आ जाते होंगे।

बहरहाल, उस्ताद बिस्मिल्ला खान ने बनारस के गंगा घाट पर बसे संकटमोचन हनुमान मंदिर से मौसिक़ी की जो रवायत शुरू की थी, छन्नूलाल लाल मिश्र उसे उसी बनारस की गली छोटी गैबी से निभाते रहे। आने वाले कई साल या दशकों तक इस रवायत की आवाज़ बनारस से छन कर देश भर में आती रहेगी।

हम अगर पंडित छन्नूलाल मिश्र को बचा हुआ— या कुछ-कुछ छूटा हुआ बिस्मिल्ला कहें तो इसमे हैरत नहीं होना चाहिए, वे आधे बिस्मिल्ला तो हैं ही।

बिस्मिल्ला भैरवी, बिहाग बजाते थे— घाट पर हनुमानजी के आंगन में रियाज़ करते थे और घाट पर स्‍नान करते थे, तो वहीं छन्नूलाल दिगम्बरों के साथ मसाने में होरी खलते हुए ठुमरी, चैती, चैता, कजरी और दादरा सुनाते हैं।

मैंने सबसे पहले जब उनका ख़याल… ‘मोरे बलमा अजहुँ न आए’ सुना तो लगा कि पंडित जी सिर्फ़ ख़याल गायिकी के राजा होंगे, बाद में भीतरघात कर अंदर घुसे तो पता चला कि वो ‘रामचरितमानस’ और ‘शिव विवाह’ के भी महाराज हैं। फिर धीमें- धीमें ख़्याल हुआ कि भक्ति संगीत का अखण्ड पाठ हैं पंडित छन्नूलाल मिश्र, जिसने लाखों श्रद्धालुओं की आतम में अलख जगा रखी है।

इस अधार्मिक और अराजक माहौल में भी भक्ति की लौ की तरह धीमे-धीमे जल रहे छन्नूलाल मिश्र। उन्हें गाते हुए देखना दूर किसी अंधेरे में छोड़ दिए गए किसी अप्रचलित और त्‍याग दिए गए मंदिर में जलते दीये को देखने की तरह है।

उन दिनों जब मैं अलग अलग शहरों में अप-डाउन में होता था, उन्हीं दिनों में पंडितजी को सुनना शुरू किया था। तब मेरे फोन में ‘रिपीट मोड’ में हुआ करते थे वो। मैं बगैर बटुए और ज़रूरी कागजात के घर से निकल सकता हूं, लेकिन हैडफोन के बगैर शायद कभी नहीं। एक शहर से दूसरे। जाते वक्त पंडितजी का रुद्राष्टकम, आते समय में सुंदर कांड। सुबह कजरी, शाम को ख़याल। कोई भी हो, मुकुल शिवपुत्र, मेहदी हसन या लेड ज़ेप्लीन, या फिर नुसरत फतेह अली, कोहेन हो या कौशिकी चक्रवर्ती। यह सब रिपीट मोड में ही होते हैं। शफ़ल में नहीं। हम जीते शफ़ल मोड में और सुनते रिपीट सिंगल में हैं।

छन्नूलाल गायन की क्लासिकल विधा में हैं, लेकिन जब गाते हैं तो जनमानस के कथाकार हो जाते हैं। जैसे कोई भजन के साथ सत्संग कर रहा हो। पहले गाएंगे फिर पूरी चौपाई का अर्थ बताएंगे। राग क्या है, ताल कितनी हैं बताएंगे। पुकार क्या है और कब लगाई जाती है, ठुमरी गाएंगे तो कहेंगे कि देखिए इसमें लचक और लोच कहाँ से आई। ठुमरी आख़िर ठुमकती क्यों है। कजरी कहाँ गाई जाती है, चैती कहाँ से आई, दादरा क्या चीज़ है। क्‍यों चैती बनारस की ख़ासियत है, क्‍यों अब यह हर जगह गाई जाती है। पंडितजी ही बताते हैं कि चैत के महीने में चैती गाई जाती है और चैता भी गाए जाते थे। वो यह सब बताते हैं और श्रद्धालुओं से बातें करते हैं गाते-गाते। अगर मंच पर साज- ओ- सामान और साजिंदे नज़र न आए तो लगेगा भक्ति में डूबा कोई भक्त अपने आराध्य से बतिया रहा है।

वे नोटेशन को देखकर नहीं गाते— एक कथाकार के तौर पर श्रोताओं से सीधा संवाद करते हैं और श्रोताओं को अनुभव करवाते हैं कि वे श्रोता नहीं, श्रद्धालु हैं। उन्हें सुनते हुए हम अंदर ही अंदर अपने आराध्य को प्रणाम कर लेते हैं।

हम इंटेलएक्चुअल्स लोगों को लगता है कि वो शास्त्रीय गायक हैं, एक राग के साथ वे छेड़छाड़ करेंगे और हम उस पर दाद देंगे, क्योंकि हमारी आदत है, हम हर काल मे कला की समीक्षा ही करते रहे हैं, लेकिन जो राम का सेवक होगा वो उनके गान का लुत्फ़ उठायेगा। वो सुनेगा और सुनने का लुत्फ़ उठाएगा, कुछ सुनते हैं, कुछ सुनने को समझते हैं। जैसे दुनिया में जीना और दुनिया को देखना दोनों अलग-अलग चीज़ें हैं।

पंडितजी चाहते तो विशुद्ध क्लासिकल को चुनकर किराना घराना के अब्दुल करीम खां (1872- 1937) या वहीद खां (1930- 1949) बन जाते, किंतु उन्होंने अर्द्ध-क्लासिकल और उसकी सरलता– सुगमता चुनकर भक्ति संगीत का हाथ पकड़ा और जन जन को बनारसी अंदाज में भजनों से वाक़िफ किया।

बहुत छुटपन में जब इंदौर के गांधी हॉल के प्रांगण में किसी सर्द रात में जब मैं भटकता हुआ उन्हें सुनने चला गया था तो जल्द ही उन्हें कथा वाचक जानकार वहां से निकल लिया था, तब पता नहीं था कि कुछ साल बाद वे फिर लौटकर भीतर आएंगे और देर तक रामचरितमानस और सुंदरकांड की ध्‍वनि में गूंजेंगे।

छन्नूलाल ख़ुद को भोलेनाथ का सेवक ही मानते हैं, इसलिए वो घरानों में यक़ीन नहीं करते। वो भगवान शि‍व की तरह कहीं से भी और कभी भी अपने रागों की धुनि रमा सकते हैं। कहने को उन्होंने किराना घराने के अब्दुल गनी खां से तालीम ली, लेकिन घराने की रवायत को कभी तवज्जों नहीं दी। इस रिवाज़ को न तोड़ते तो छन्नूलाल मिश्र का भी एक घराना होता, संभवत: बनारस घराना। लेकिन वे रामचरितमानस गाए या शिव विवाह हमेशा एक कथा वाचक बनकर ही गाते रहे, किसी घराने के गवैये के तौर पर नहीं।

गायन का उनका अपना दार्शनिक नज़रिया है, वो कहते हैं ‘तकलीफ़ में गाने से ही सिद्धि मिलती है’। जैसे कलाकार और लेखक सोचता है कि लिखने के लिए दुःख, अवसाद, अकेलेपन और बेचैनी या किसी प्रेरणा की जरूरत होती है। शायद, इसीलिए हम भी यह मानते हैं कि ज्‍यादातर कलाएं अंधेरे में जन्‍मती और पनपती हैं। लेकिन पंडित जी अपने गान से ईश्वर की स्तुति में यकीन करते हैं। कहते हैं संगीत से ही भगवान प्रसन्न रहते हैं, पूजा-पाठ और कर्मकांड से नहीं।

अपनी इसी आस्‍था के साथ पंडितजी पूरे ठाठ से ठेठ अंदाज़ में भक्ति संगीत और भजन-कीर्तन का उजियारा फैलाते रहे हैं। एक दिन उनको भक्ति संगीत की लौ को बरक़रार रखने वाले पुजारियों में सबसे पहले याद किया जाएगा।

पंडित जी के बारे में एक किस्सा है। कहा जाता है कि जब पंडित जी पैदा हुए तो उनकी माँ ने उनके लिए सबसे ख़राब नाम चुना था- छन्नूलाल। इस नाम के अर्थ में छह अवगुण है- काम, क्रोध, लोभ, मद, मदसर और मोह। माँ की इच्‍छा थी कि ख़राब नाम होगा तो बेटे को बुरी नज़र नहीं लगेगी। वो ज़्यादा वक़्त तक दुनिया में जिंदा और ख़ुशहाल रहेगा। वरना तो उनका असल नाम मोहनलाल मिश्र है।

छन्नूलाल मिश्र के नाम के अर्थ में भले ही छह अवगुण छुपे हुए हों— लेकिन मुझे भक्ति संगीत से लेकर बनारस की ठुमरी, कजरी और ख़याल के लिए छन्नूलाल मिश्र से सुंदर और गुणी नाम कोई और नज़र नही आता।

मां ने यह सोचकर पंडित जी का नाम छन्नू रखा था कि उसका बेटा हमेशा जीवित रहे— उसे किसी की नज़र न लगे। बेटे के लिए मां की यह प्रार्थना फलीभूत होती भी नजर आती है— भले ही पंडित जी स्थूल काया से विदा हो गए हों, उनकी काया से चिपका नाम छन्नूलाल मिश्र तो रह ही गया है— और देर तक रहेगा.
ALSO READ: जब पंड‍ित छन्‍नूलाल मिश्र ने मोदी जी से कहा था- मेरी काशी में गंगा और संगीत का ख्‍याल रखना

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

Karwa Chauth Essay: प्रेम, त्याग और अटूट विश्वास का पर्व करवा चौथ पर हिन्दी में निबंध