निरुपमा त्रिवेदी,इंदौर
बचपन याद आता है अक्सर
रूठती थी मैं बात-बात पर
मां कहती मुझे समझा कर
रूठना नहीं देखो पल भर
रूठने से लगती हो निरी बंदर
फीका दिखता है चेहरा सुंदर
फीके चेहरे पर फिर
सुंदर नहीं लगते कभी
महंगे से मंहगे वस्त्र भी
चटक रंग ओढ़ते हैं उदासी
चाहती नहीं क्या तू
बिटिया मेरी दिखना सुंदर
चिड़ियों सी चहचहाया करो
मधुर बैन बोला करो
फूलों-सी खिलखिलाया करो
मोहक मुस्कान बिखेरा करो
तितली मन-सी रहा करो
जीवन में मधु रस घोला करो
गिलहरी-सी फुदका करो
मन पर बोझ ना रखा करो
मां का स्नेह भरा स्पर्श पाकर
गुस्सा होता था मेरा झट छूमंतर
खिलखिलाते हम दोनों फिर
खट्टे-मीठे लम्हे सहेजते मिल
अब कभी रुठना चाहूं मैं पल भर
मां का मुसकाता चेहरा फिर
याद आता है मुझे अक्सर
रहती नहीं फिर मैं मुंह फुलाकर